अपने-अपने तालिबान (लघुकथा संग्रह)

1 द्रोणवाद

द्रोणवाद से उबकर एकलव्य अपनी जाति के ही लोगों के बीच में उठना-बैठना प्रांरभ कर दिया । वैसे भी उसे अब ये महसूस होने लगा था, कि अब द्रोण को गुरू बनाये रखने का कोई औचित्य नहीं रह गया है...अर्जुन तो वह बनने से रहा ।
ख़ैर, वह अपनी ही जाति का नेता चुन लिया गया । कुछ दिनों बाद उसने सजातीय विवाह करने का निश्चय किया, और इस सम्बन्ध में वह जहाँ-जहाँ भी लड़की देखने गया, उससे उसकी उपजाति और गोत्र पूछा गया, तब उसे पता चला कि वह तो अपनी ही जाति में अछूत है ।
...द्रोणवाद की जड़ें उसकी जाति में भी पैर पसारी हुई थीं ।

2 गर्वोक्ति

वह सिख बहुल क्षेत्र में अल्पसंख्यक हिन्दू था । वह नियमित गरुद्वारा जाता, गुरु ग्रंथसाहेब का पाठ करता । इंदिरा गाँधी हत्याकांड के बाद हुए दंग़ांे में वह सिख धर्म में अपनी आस्था बताते हुए बच गया । कुछ वर्षो बाद उसका स्थानान्तरण मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हो गया । वहाँ वह बाक़ायदा मस्ज़िद जाता, और कुरआन का पाठ करता । बाबरी मसज़िद विध्ंवस पर भड़के दंग़ों में उसने मुंिस्लम दंग़ाइयांे से मुस्लिम धर्म में अपनी आस्था की बात कही, वहीं हिन्दू दंग़ाईयों को अपने हिन्दू होने की दुहाई दी। वह फिर बच गया। इन दिनों वह ईसाई बहुल क्षेत्र में पदस्थ है। वह पादरी हत्याकांड, ननों से बलात्कार, और चर्च विध्ंवस आदि विषयों पर हिन्दुओं के खिलाफ़ आग़ उगलता है। वह नियमित चर्च भी जाने लगा है और पवित्र-ग्रंथ बाइबिल भी पढ़ने लगा है ।
वह गर्व से कुछ कहता तो है,पर अकेले में...।

3 बहुमत

‘चूँकि चित्त को एकाग्र करने के लिये एक प्रतीक चाहिए, सो मंै मूर्ति-पूजा का पक्षधर हँू ।’ एक धर्म ने अन्य दो धर्मांे से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के उद्देश्य से कहा
‘मैं मूर्तिपूजा के सख़्त खिलाफ़ हँू, पर मंै मुर्दों की पूजा का पक्षधर हँू, सो मैं श्रेष्ठ हूँ ।’ दूसरे धर्म ने कहा ।
‘मंै तो मूर्तिपूजा का कट्टर विरोधी हँू, पर मैं एक स्थान-विशेष पर बैठकर एक चित्र विशेष की पूजा, उससे प्रार्थना व उसकी आराधना का पक्षधर हँू, सो मंै तुम दोनों से श्रेष्ठ हँू ।’ तीसरे धर्म ने कहा ।
श्रेष्ठता सिद्ध करने की होड़ लिये वे तीनों एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के पास निर्णय के लिये पहँुचे, और उसके समक्ष अपना-अपना पक्ष रखा ।
वह व्यक्ति यह सोचकर मुस्कुराया कि प्रतीक की पूजा तो तीनों ही में प्रचलित है, पर उसने बड़ी ही समझदारी से उत्तर दिया- जिस धर्म का पालन करने वाले जहाँ अधिक हैं, वहाँ पर वह धर्म श्रेष्ठ है । अर्थात् तुम लोगों की श्रेष्ठता तुम्हारे सिद्धांतों में नहीं, बल्कि बहुमत में हेै ।

4 समानता

बेरोज़गार अर्जुन नौक़री की चाह लिये एकलव्य के कार्यालय पहँुचा । काफ़ी देर इंतज़ार के बाद कार्यालय प्रमुख एकलव्य के चेम्बर से उसका बुलावा आया । अन्दर प्रवेश करते ही एकलव्य के तेज़ को देखकर अर्जुन दंग रह गया। उसका कटा हुआ अंगूठा भी वापस अपनी जगह पर था। नौक़री पा जाने की आस में अर्जुन ने उसके समक्ष अपनी ख़राब आर्थिक परिस्थितियों का रोना, रोना शुरू कर दिया। इस पर एकलव्य ने कहा-‘‘कल तक जो दशा मेरी थी, आज वही तुम्हारी है। जिस तरह कई वर्षांे तक द्रोणवाद-अर्जुनवाद फैला हुआ था, उसी तरह आगामी कई वर्षांे तक एकलव्यवाद फेैला रहेगा । समानता इसी तरह से आती है । एकलव्य के इस कथन पर अर्जुन के भीतर का अर्जुन सिर उठाने लगा, सो उसने कहा- ‘ये तो कोई बात नहीं हुई कि, चूँकि द्रोणवाद-अर्जुनवाद कई वर्षांे तक फैला रहा, इसलिये एकलव्यवाद भी कई वर्षों तक फैला रहे। इसमें समानता वाली बात कहाँ है ? ये तो कल तेरी बारी तो आज मेरी बारी वाली बात हुई।
अब एकलव्य के अन्दर के एकलव्य की बारी थी सो उसने कहा-‘‘गेट आऊट ! गेट आऊट फॅ्राम हियर।’’

5 परिचय

मैं हिन्दू हूँ...,साॅरी मैं हिन्दू था (क्योंकि हिन्दुत्व की बुराइयों के चलते मेरे पूर्वजों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था)। मैं बुद्धिष्ट हूँ...पर यहाँ भी दिक़्क़त है। भारत में अम्बेडकरवादी बौद्ध धर्म प्रचलित है...यानि कि धर्म व्यक्तिवादी है । यानि सही कहा गया है कि मनुष्य धर्म का निर्माण करता है, धर्म मनुष्य का नहीं । ख़ैर...कुछ देर के लिये मंेै ईसाई या मुसलमान बनना चाहूँगा, क्योंकि मंै उनकी मूर्ति-पूजा के विरोध का समर्थक हँू...पर क्या चर्च या मसज़िद भी आस्था के प्रतीक या मूरत नहीं हैं?
उफ ! मंै बड़ा ही कनफ़्यूज़ हो रहा हँू । ...अब ऐसा करिये आप लोग ही मेरा धार्मिक परिचय निर्धारित कर दीजिए ।

6 त्रासदी

चूंकि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति था, सो एक अहिंसा के पुजारी की हत्या से व्यथित होकर मंैने आत्महत्या कर ली...हत्यारा जीवित रहा, मंै कई योनियों से होकर गुजरा, हत्यारा उसी योनि में जीवित रहा । मंै बड़ी मुश्किल से फिर से मानव योनि में जन्मा हँू...हत्यारा अब भी मानव योनि में ही जीवित है । आज मै अहिंसा के सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ाने वालों की भीड़ में हर जगह शामिल रहता हूँ, और हर जगह वही हत्यारा मेरा अगुवा होता है ।

7 तपस्वी

एक कुतिया के पीछे तपस्वी की सी मुद्रा में घूमते हुए पाँच कुत्तों में से एक को, जब ये अहसास हो गया, कि उसे कुछ हासिल होने वाला नहीं है, तो वह वहीं एक बरगद के वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया । उसी समय उधर से गुजरते एक अन्य कुत्ते ने उस पर फिक़रा कसा-‘‘क्यों चुक गये हो क्या?...तुम तो यार पूरी कुत्ता जमात को बदनाम करने पर तुले हुए हो, जो इस संग्राम में हार मान बैठे हो...। लानत है तुम्हारी कुत्तानगी पर...।’’ इस पर उस कुत्ते ने बिलकुल ही किसी तपस्वी की सी मुद्रा में जवाब दिया-‘‘मित्र उस कुतिया के पीछे घूमते हुए मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो गया, और मुझे लगा कि ‘वासना’ ठीक नहीं है । इससे चारित्रिक पतन होता हेै । कुत्तों में कोई एक तो चरित्रवान होना ही चाहिए, ओैर तुम तो देख ही रहे हो कि मै वटवृक्ष के नीचे बैठा हुआ हँू।’’
‘‘अच्छा तो ये तुम नहीं, वटवृक्ष बोल रहा है ।’’ कहता हुए वह कुत्ता वहाँ से चलता बना।

8 अश्वत्थामा हतो

‘‘पिताश्री, आपने अर्जुन के प्रतिस्पर्धी एकलव्य को ख़त्म करने के लिये उससे उसका अंगूठा मां लिया, और उसने भी सहर्ष अपना अगूंठा देकर आपको तमाचा सा जड़ दिया। उससे हुई आपकी नैतिक पराजय से आपको मर्मान्तक पीड़ा तो होती ही होगी ?’’ अश्वत्थामा ने द्रोण से पूछा।
‘पुत्र एक शिष्य के रूप में उसने मुझे परास्त कर दिया, इसी मंे मेरी सार्थकता है। अर्जुन ने तो मुझे अब तक परास्त नही किया है, और तुमने भी तो मुझे पुत्र मे रुप में परास्त नहीं किया है। अश्वत्थामा मैं गुरू के रूप में अर्जुन से, और पिता के रूप में तुमसे परास्त होना चाहता हंूॅ ।’ द्रोण ने कहा।
...और इसके बाद की कथा कहने की आवश्यकता नहीं है ।

9 नई जात

क्यों बे ! तूने सारे आॅफिस मेें ये ख़बर फैला दी कि मै ‘कोटे’ से हँू। एकलव्य के वंशज अधिकारी ने अम्बेडकर के वंशज चपरासी को फटकारा ।
जी...मंैने सोचा हम कोटे वाले परस्पर भाई-भाई हंै । चपरासी ने घिघियाते हुए कहा ।
सुन, मंै किसका वंशज हूँ, मालूम हेै न...एकलव्य का समझा । वही एकलव्य जिसका नाम अर्जुन के साथ हमेशा लिया जाता है, और तू किसका वंशज है...अं ? अब कान खोलकर सुन ले, मैं सवर्ण एकलव्य न सही, क्षत्रिय एकलव्य तो हूँ ही ।

10 जात और औक़ात

‘‘यार, आज मंैने अख़बार मंे एक ख़बर पढ़ी कि, एक कार को ओह्नरटेक करने के चक्कर में एक टेम्पो सामने से आती हुई ट्रक से जा भिड़ी, और टेम्पो-ड्राईव्हर समेत उसकी सभी सवारियों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई ।’’ एक मित्र ने दूसरे से कहा ।
‘कोई भी व्यक्ति जो अपनी जात और औक़ात से आगे बढ़ने का प्रयास करता है, अपने देश में उसका यही हश्र होता है ।’ दूसरे मित्र ने निस्पृह भाव से उत्तर दिया।

11 हल -1

किसी राज्य में कुप्रशासन के चलते प्रजा में घोर असंतोष व्याप्त था। जगह-जगह संगठित विद्रोह हो रहे थे । पुलिस चैकियों को फूंका जा रहा था। हमेशा तटस्थ रहने वाला प्रबुद्ध वर्ग भी खुलकर मैदान में उतर आया था। परेशान होकर राजा ने इस विषय पर राजगुरु से सलाह लेनी चाही। राजगुरु काफी अनुभवी व्यक्ति था । उसकी सलाह पर राजा ने अपने विेशेष गुप्तचरों को आदेश दिया कि राज्य के सभी मंदिरों में गो-माँस, गुरुद्वारों तथा मसज़िदों में सुअर का माँस फेंक दिया जाये और दो-चार ईसाई पादरियों की हत्या और ननों के साथ बलात्कार कर दिया जाये, साथ ही प्रबुद्ध वर्ग के बीच बहस के लिये कोई मुद्दा उछाल दिया जाये ।
राजा के आदेश का अक्षरशः पालन हुआ । प्रबुद्ध वर्ग बहस में ही उलझा रहा और उस राज्य की प्रजा आपस में ही लड़ने-मरने लगी, और इतिहास में उस राजा का नाम एक बुद्धिमान राजा के रुप में दर्ज़ हो गया ।

12 फलित

ज्योतिषशास्त्र की किताब के पन्ने पलटते हुए उसकी नज़र हथेली की बनावट के आधार पर लिखे भविष्यफल पर पड़ी । उसने सभी प्रकार की बनावट के विषय में पढ़ लिया, और सबसे अच्छे फलित को दिमाग़ में बिठा लिया। फिर उसने अपनी हथेली की बनावट की ओर ध्यान दिया तो पाया कि उसकी हथेली तो सबसे अच्छे फलित वाली हथेली से मिल रही है।
...और वह ख़़्ाुश हो लिया ।

13 गाँधी की बकरी

भेड़िये के चंगुल में फँसी बकरी ने भेडिये से मिमियाते हुए निवेदन किया-‘मैं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की बकरी हूँ । मेरी इज़्ज़त तो जंग़ल का राजा शेर भी करता है । कम से कम मुझे तो छोड़ दे ।’
‘‘अगर ऐसा है तो, मैं तो तुम्हें छोड़ ही नहीं सकता, क्योंकि मंै अपने पिछले जन्म में गोड़से था। और हाँ...मरते-मरते तुम ये बात भी जान लो कि इन दिनों जंग़ल में शेर का नहीं, हमारा राज है ।’’ कहकर भेड़िये ने बकरी की गर्दन में अपने दाँत गड़ा दिये ।

14 ज़ेहाद

‘‘ये विधर्मी बडे़ ही कट्टर होते हंै । उदारता नाम का गुण ज़रा भी नही होता इनमें । मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं साले, धरम के नाम पर ।
‘तो तुम्हें किसने मना किया है ? तुम भी हो जाओ कट्टर !’
‘‘जी हमारा धर्म उदारता और सहनशीलता का पाठ पढ़ाता है ।’’
‘ये कट्टर न हो पाने के बहाने हंै। क्या तुम उनकी तरह धरम के नाम पर अपनी जान दे सकते हो ?’
‘‘मैं क्यों जान दँू ? मंै तो ब्राम्हण हँू । धर्मग्रन्थों के अनुसार धर्म की रक्षा के लिये जान देना तो क्षत्रियों का काम है ।’’
‘और आप ...? आप तो क्षत्रिय है न ...? आप क्या कहते हंै...?’
‘‘ये ब्राम्हण हमेशा से हमारे कंधों पर बंदूक रखकर चलाते आये हैं, अब हम चूतिया नहीं बनने वाले हंै।’’
‘आप ?’
‘‘जी मंैं तीसरे वर्ण से हँू । मुझे तो अपने धंधे-पानी से ही फुरसत नहीं मिलती, जो मंै इस धरम-वरम के चक्कर में पडँू । हाँ यदि धरम धंधा बन जाये तो और बात है ।
‘और आप ...?’
‘‘मंै दलित वर्ग से हँू । आपको शर्म आनी चाहिए, जो आप मुझे धर्म के लिये अपनी जान देने को कह रहे हैं।’’

15 अपने-अपने तालिबान

‘‘चँूकि अमेरिका ईसाई राष्ट्र है और ईज़राईल में ईसा का जन्म हुआ था, सो हिन्दुस्तानी मीडिया इन दोनों देशों के प्रति दुर्भावना रखता है, और विश्व के किसी भी हिस्से में घटी घटनाओं के लिये अमेरिका को ही ज़िम्मेदार बताता है । यहां तक कि सोवियत संघ के विघटन के लिये भी अमेरिका को ही दायी ठहराता है । केवल ‘सी.एन.एन.’ और ‘स्टार’ ही सही जानकारी देते हैं ।’’ एक ईसाई ने कहा ।
‘‘क़श्मीर के बारे में भी हिस्दुस्तानी मीडिया ग़लत जानकारी देता है। क़श्मीर के बारे में सही जानकारी तो पी.टी.वी.चैनल ही देता है, सो मंै उस पर लगे प्रतिबंध के बावज़़ूद अपने केबल आॅपरेटर से इस चैनल को दिखाने को कहता हँू ।’’ एक मुसलमान ने कहा ।
‘मुआफ़, करें आप लोग भारत में रहते हैं और...।’ एक हिन्दू कुछ कहते-कहते रुक गया ।
‘जी नहीं...। हम भारत में नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान में रहते हैं, जहाँ के तालिबानी गुट कभी बाबरी मसज़िद ध्वस्त करते हैं, तो कभी किसी पादरी की हत्या करवाते हंै ।’ मुसलमान व ईसाई ने एक साथ उत्तर दिया ।

16 हल -2

‘‘वह विचारक तो अपने उग्र विचारों से लोगों को बड़ी ज़ल्दी ही प्रभावित कर लेता हेै। वह तो राजधर्म को भी ललकारने लगा हेै । हमारे लिये तो वह दिन-प्रतिदिन ख़तरनाक़ होता जा रहा है । उसे ज़ल्दी ही ठिकाने लगाने का उपाय सेाचना होगा।’’ राजा ने अपने सलाहकार से कहा।
‘महाराज ऐसा कीजिये, राज्य के सभी मूर्तिकारों को उस विचारक की मूर्तियाँ बनाने का आदेश दे दंे, और नगर के सभी चैराहांे पर उन मूर्तियों को स्थापित करवा दें, साथ ही जनता के बीच उसे भगवान के रुप में प्रचारित कर उन मूर्तियों की पूजा प्रारंभ करवा दें । कुछ दिनों बाद आप पायेंगे कि, उस विचारक के विचार ग़ायब हो गये हैं, और उसकी मूर्तियाँ ही बची हैं, और मूर्तियाँ हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पायेंगी।’ सलाहकार ने अपने अधरों पर कुटिल मुस्कान लाते हुए कहा।
...और राजा ने ऐसा ही करके अपना राजतंत्र बचा लिया।

17 भयादोहन -1

एक दिन मंै एक अनजाने भय से ग्रस्त हो गया, और अपने निकटतम मित्र से अपने भयग्रस्त होने की बात कही । उसने मुझे लताड़ा-तुम्हारे जैसे नास्तिकों का यही हश्र होता है । फिर उसने मुझ पर तरस खाते हुए मुझे ईश्वर की शरण में जाने की सलाह दी । मेरे यह पूछे जाने पर कि मुझे ईश्वर कहाँ मिलेगा, उसने मुझे ईश्वर के विभिन्न ब्राण्ड्स के बारे में बताया। उसके बताये अनुसार सबसे पहले मैं मंदिर पहँुचा, वहाँ मुझे नर्क का भय दिखाया गया। मंै और भयभीत होकर वहाँ से चर्च पहुँचा, वहाँ मुझे शैतान का भय दिखाया गया। मैं और ज़्यादा भयभीत होकर मस्ज़िद पहँुचा, वहाँ मुझे आतंक के सहारे जे़हाद करने की सलाह दी गयी। अंत में बहुत ही ज़्यादा भयभीत होकर मैं मनः-चिकित्सक के पास पहँुचा ।
...आज मैं पूर्णतः भयमुक्त हूँ । मंैने ईश्वर के विभिन्न ब्राण्ड्स से तौबा कर ली है ।

18 दलित-1

वह अपनी धुन में मग्न चला जा रहा था कि अचानक, उसे उसके कानों में पिघले शीशे सा कुछ डलता हुआ प्रतीत हुआ। उसने ध्यान दिया, पास ही एक संत मनुस्मृति पर प्रवचन कर रहा है ।
वह चैंक गया । उसे अचानक ही अहसास हो गया कि, वह तो दलित है।

19 धर्मांन्तरण

उसने उस भूखे आदमी को भरपेट भोजन कराया, और उसके बाद सामान्य औपचारिकता के नाते यूँ ही पूछ लिया-भाई तुम्हारा नाम क्या है?, तुम किस ईश्वर को मानते हो ?, तुम्हारा धर्म क्या है ? इस पर उस व्यक्ति का जवाब था-आज से तुम मुझे जो नाम दोगे, वही मेरा नाम होगा। मेरे ईश्वर तुम हो...सिफ़ऱ् तुम, और तुम्हारा धर्म ही मेरा धर्म हेै।
...अब उसे धर्मान्तरण का राज़ समझ में आ गया ।

20 दलित -2

‘‘हम हिन्दू उदार प्रवृत्ति के और सहनशील होते हंै, इसीलिये तो इतने आक्रमणों के बाद भी हमारा धर्म, हमारी संस्कृति जीवित है।’’
‘‘हम मुसलमान अपने धर्म की रक्षा के लिये जान भी लड़ा देते हंै। हम एक-एक, दस-दस के बराबर होते हैं, इसी कारण तो हम इतने व्यापक हैं।’’
‘‘हम सिख हैं। हमारी उत्पत्ति ही मुस्लिम संस्कृति से हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने के लिए हुई है। लेकिन हाँ, हम हिन्दू नहीं हंै। हमारी बहादुरी तो जगज़ाहिर हेै।’’
‘‘हम ईसाई बुद्धिमान होते हंै। हम दलितों को भी अपने धर्म में मिलाकर उन्हें स्वाभिमान से जीना सीखाते हैं। हमने अपनी बुद्धि के सहारे ही सारी दुनिया पर राज किया हेै ।’’
हम क्या बोलंे...? बस इतना ही कि हम दलित हंै ।

21 हिसाब

‘‘तुम चाहे कितने भी प्रतिभावान रहो, सफलता के कितने भी झण्डे गाड़ लो मैं तुझे मान्यता प्रदान नहीं करने वाला, क्यांेकि तुम हो तो दलित जाति के ही...।
‘मेरे अस्तित्व को ही ललकारने वाले, तेरी योग्यता क्या है ? मैं भला तुझसे मान्यता क्यों लूं ?’
मै दलित जाति से नहीं हूँ। मेरी सबसे बड़ी योग्यता यही है। और दलितों को मान्यता नहीं देने का मुझे व मुझ जैसे लोगों को स्वाभाविक अधिकार है समझे...।
तो ठीक है... आज से मैं तुझे मान्यता नहीं देता हूं । हिसाब बराबर...।

22 अफ़़ीम

मैंनें किसी महापुरूष की उक्ति पढ़ी कि, किसी भी विषय पर गंभीर चिन्तन-मनन कर उस पर अपना दृष्टिकोण रखना चाहिये । बस फिर क्या था, मैंने विषय के रूप में धर्म को चुना और सभी धर्मग्रंथ पढ़ डाले, उन पर गंभीर चिन्तन-मनन किया, और फिर लोगों के समक्ष धर्मग्रन्थों पर अपना दृष्टिकोण रखा।
...आज सभी धर्मो के लोग पहली बार एकजुट होकर मुझे सूली पर चढ़ाने के लिये ले जा रहे हैं।
मरते-मरते मैं उस महापुरुष की उक्ति को थोड़ा विस्तारित करना चाहँूगा।
किसी भी विषय पर गंभीर चिन्तन-मनन कर अपना दृष्टिकोण रखना चाहिये, पर धर्म को छोड़कर ।

23 मेरा भारत महान् .... 1

मंैने कहा - हमारा देश महान् है ।
उसने कहा - अच्छा !
मंैने आगे कहा - हमारी संस्कृति लाज़व़ाब है ।
उसने फिर कहा - अच्छा !
हमारे यहाँ पत्थर भी पूजे जाते हैं । मैने आगे बहुत ही ज़्यादा उत्साहित होकर कहा ।
आपके यहाँ पत्थर ही पूजे जाते हैं ।...उसने कहा ।
आगे मैं कुछ नहीं कह पाया ।

24 शाप

उस जगह एक कुत्ता और एक बकरी साथ खडे़ हुये थे, तभी सामने से एक बच्चे ने एक पत्थर उठाकर कुत्ते पर दे मारा । इस पर कुत्ते ने उस बच्चे को शाप दिया-‘जा बड़ा होकर किसी धार्मिक संगठन का नेता बन जा ।’
इस पर बकरी ने पूछा-कुत्ते भाई तुम तो उसे शाप के बजाय आशीर्वाद दे रहे हो...क्यांेकि आज तो धार्मिक संगठनों के नेता ही मौज़ कर रहे है ।’’
‘दरअसल अपने पिछले जन्म में मैं भी एक कट्टर धार्मिक संगठन का नेता था।’ कुत्ते ने खुलासा किया ।

25 काश !

‘महाराज ये सवर्ण मुझसे छुआ मानता है । अगर छुआछूत की परंपरा इसी तरह क़ायम रही, तो आपके लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का क्या होगा ? अस्पृश्यता निवारण अधिनियम का क्या होगा ? एक दलित ने राजा से फरियाद की।
हमारे राज्य में संविधान लागू हुए इतने वर्ष हो चुके हैं, ऐसे में इस सवर्ण का छुआछूत को मानना ये सिद्ध करता है, कि ये पूरी तरह पाग़ल हो चुका है, और न केवल पाग़ल बल्कि एक ख़तरनाक़ पाग़ल...सो इसे गोली मार दी जाये। राजा ने आदेश दिया ।

26 खाली दिमाग़

हम चारों अलग-अलग धर्मो का पालन करने वाले मित्र थे । एक दिन हम लोगों ने तय किया कि ईश्वर के दर्शन किये जाये, और हम सभी ने अपने-अपने धर्म के ठेकेदारों के बताये अनुसार पूजा-पाठ शुरू कर दी । यहाँ तक कि हमने अपने आवश्यक कार्य भी स्थगित कर दिये । कुछ दिनों बाद हमें आश्चर्य तो तब हुआ, जब हम सभी के अलग-अलग ईश्वर ने हमें दर्शन देकर कहा-बेटे खाली दिमाग़ या तो शैतान का घर होता है, या फिर भगवान का ।
...और फिर हमने खुद को अपने कार्यों में व्यस्त कर लिया ।

27 संदेश

एक धार्मिक दंग़े के दौरान मेंरी हत्या हो गई । उपर पहँुचने पर मेरे जीवन का हिसाब-किताब देखा गया, और यह कह कर कि तुमने जीवन भर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया, और नास्तिकता का प्रचार करने वाली रचनाएँ ही लिखी, मुझे नर्क भेज दिया गया ।
नर्क मंे मैंने पाया कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी धर्म के लोग़ जो कि विभिन्न धार्मिक दंग़ों में मारे गये थे, एक सम्मेलन कर रहे हैं । मैं भी उस सर्व-धर्म सम्मेलन में शामिल हो गया ।
सम्मेलन में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि पृथ्वीवासियों को एक संदेश भिजवाया जाये कि वे सभी अधर्मी हो जाएँ ।

28 जय हो

उन्होनें मुझे छुरा दिखाकर कहा बोलो-‘अल्लाह हो अक़बर’ मै बेझिझक बोल गया, क्यांेकि मुझे ज़ल्द से ज़ल्द अपने मोहल्ले पहँुचना था, और वहाँ पहँुचकर पूरी ताक़त से जय श्रीराम बोलना था, और साथ ही दूसरों की छाती पर त्रिशूल रखकर जय श्रीराम बुलवाना भी था ।
...और ऐसा तभी हो पाता, जब मैं जीवित बचता। इसलिये मैं बेझिझक बोल गया-‘अल्लाह हो अक़बर’।

29 औक़़ात -1

‘‘दाऊजी आपके गाँव मे एक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कवि कुमार साहब रहते हैं । क्या आप मुझे उनका घर बतायेंगें ?’’ मैंने एक गाँव के प्रमुख से कहा ।
‘हमारे गांव मे कुमार नाम का कोई आदमी नहीं है। दाऊजी ने जवाब दिया।
‘‘बाबूजी वो दगड़ू चमार का लड़का भीखू है न, वो ही ‘कुमार’ नाम से कविता-वविता लिखता रहता है । ‘‘वहीं पर बैठे दाऊजी के लड़के ने कहा ।
‘वो साला भीखू चमार, कुमार साहब कब से हो गया ? अच्छा तभी साले को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल गया होगा। नाम बदलकर साला सोचता है, जात भी बदल जायेगी। ख़ैर, हम तो साहब चमारों के मुहल्ले में जाते नहीं हैं, लेकिन आपको उसके घर का रास्ता बता देते हंै, कहकर दाऊजी मुझे वहीं से रास्ता बताने लगे ।

30 प्रवचन

एक धार्मिक चैनल में महात्माजी का प्रवचन हो रहा होता है कि शरीर नश्वर है, और नश्वर वस्तुओं से मोह-माया उचित नहीं है...कि अचानक बीच में एक विज्ञापन आ जाता है- सिर में है टेंशन, बदन में दरदवा...,ले के आई सैंया नवरतन तेलवा...।

31 रामराज्य

‘‘हमारे यहाँ औरत मज़ाक की वस्तु है। उसे जब चाहो उपभोग करो, और जब चाहो, लांछन लगाकर घर से निकाल बाहर करो ।’’...और साले दलितों-मलेच्छों की तो ख़ैर नहीं । कोई साला हँू का चूँ नहीं कर सकता हमारे यहाँ...।
तो सीधे-सीधे कहो न कि आपके यहाँ रामराज्य है ।

32 मेरा भारत महान् -2

‘‘मालूम है कि सल्तनत और मुग़लकाल में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर भारी अत्याचार किये हैं । तलवार की नोंक पर धर्म परिवर्तन कराये गये । और न जाने क्या-क्या किया गया हिन्दुओं के साथ...।’’
‘अच्छा ! तुम्हें कैसे पता चला...?’
‘‘अजी मैंने विश्वप्रसिद्ध इतिहासकारों की पुस्तकें पढ़ी हैं ।’’
‘...तो फिर तुमने उन्हीं पुस्तकों में यह भी पढ़ा होगा कि, आर्य आक्रमणकारी थे, और वैदिक काल में गोमँास खाया जाता था।’
‘‘मुआफ़ कीजिये...मैंने उन इतिहासकारों द्वारा मध्यकालीन भारत के इतिहास पर लिखी पुस्तकें ही पढ़ीं हैं’।’

33 सार्थक चर्चा

रेलवे प्लेटफाॅर्म में एक सीट पर दो अपरिचित व्यक्ति बैठे हुए हैं । टेªन आने में कुछ समय है । उनके बीच औपचारिक बातचीत का सिलसिला प्रारंभ होता है।
पहला - आप कहाँ सर्विस करते हैं ?
दूसरा - जी मंत्रालय में...शिक्षा मंत्री के यहाँ ।
पहला - अरे वाह ! आप तो बडे़ काम के आदमी हैं। मै शासकीय काॅलेज़ में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष हँू...रमाकांत (दुबे गर्व से)
दूसरा - जी मै मंत्रालय में निहायत ही मामूली पद पर हँू। मेरी पहचान एक लेखक के रुप में ही अधिक है।
पहला - किस तरह का लेखन करते हैं आप ? मतलब किस वाद से या विचारधारा से जुडे हुए हैं ?
दुसरा - जी मैं सार्थक लेखन में यकीन करता हँू ।
पहला - मैं भी सार्थक चर्चा में यक़ीन करता हँू । वैसे आपका नाम क्या है ?
दूसरा - जी अशोक ।
पहला - अशोक और आगे ?
दूसरा - अशोक घोरपडे़ ।
पहला - क्या गिर पडे़ ?
दूसरा - जी नहीं , घोरपडे़, जी.एच.ओ.आर....
पहला - अच्छा-अच्छा ठीक है । वैसे आप हैं कहाँ से ?
दूसरा - जी महाराष्ट्र से।
पहला - महाराष्ट्र में तो कई जातियाँ होती हैं...आप ?
दूसरा - मेरी जाति का नाम आपकी समझ में नहीं आयेगा।
पहला - ख़ैर, कोई बात नहीं...आप एस.सी./एस.टी./ओ.बी.सी./ या अन्य, किस में आते हैं ?
दूसरा - जी एस.सी. में ।
पहला (व्यंग्य से)- अच्छा तो आप एस.सी.में आते है...।
(इतने में टेªेन आ जाती है )
पहला (चलते-चलते)- अच्छी सार्थक चर्चा हुई हमारे बीच। वैसे मंत्रालय में जब भी सेटिंग की ज़रुरत पडे़गी, मैं आपको कष्ट दूंगा।

34 वेताल फिर डाल पर...

सदा की भाँति वेताल ने विक्रम को कहानी सुनाना प्रारंभ किया । आर्यवर्त नामक देश के प्रधानमंत्री के मंत्रिमण्डल में एक मंत्री थे। चुनाव समीप ही थे, कि उनकी सुपुत्री एक हरिजन लड़के के साथ भाग गई। मंत्री महोदय ने अपने पाले हुओं को उन्हे जल्द से जल्द ढँूढ लाने का आदेश दिया। दुम हिलाने की होड़ में लगे उनके पाले हुओं ने एक सप्ताह के भीतर ही उन दोनों को मंत्री महोदय के समक्ष उपस्थित कर दिया। यह पता चलने पर कि दोनों ने ‘कोर्ट’ नामक संस्था में जाकर पंजीकृत विवाह कर लिया है, मंत्री महोदय ने उन्हें पुचकारते हुये कहा-‘तुम लोगों को भला भागने की क्या आवश्यकता थी ? मंै तो तुम दोनों का ब्याह बड़ी ही धूमधाम से करा देता। ख़ैर, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मंै तुम दोनों का एक बार फिर से विवाह करूँगा।
चुनाव के कुछ दिनों पूर्व की तिथि निर्धारित कर उन दोनों का विवाह संपन्न कराया गया। मंत्री महोदय के निर्देश पर समधी-भेंट के एक-एक क्षण को ‘कैमरे’ नामक वस्तु में क़ैद किया गया। विवाह संपन्न होते ही मंत्री महोदय अपने स्नानागार की ओर चल पड़े।
वेताल ने कहानी सुनाने के बाद कहा राजन ! इस बार तुम्हें तीन प्रश्नों के उत्तर देने हंै । पहला प्रश्न ये कि कोर्ट नामक संस्था में पंजीकृत विवाह हो जाने के उपरांत भी मंत्री महोदय ने उनका दुबारा विवाह क्यों कराया ? दूसरा प्रश्न समधी-भेंट के एक-एक क्षण को ‘कैमरे’ में क़ैद कराने का क्या औचित्य था ? एवम् तीसरा प्रश्न-विवाह संपन्न होते ही मंत्री महोदय स्नानागार की ओर क्यों चल दिये ? इन प्रश्नों के उत्तर जानकर भी न दोगे, तो तुम्हारे सर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगें।
वेताल, मंत्री महोदय ने समझ लिया था कि चँूकि दोनों ने कोर्ट नामक संस्था में पंजीकृत विवाह कर लिया है, अतः वे उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते हैं। चूँकि चुनाव समीप थे, अतः उन्होने इस घटना से राजनैतिक फ़ायदा उठाने की सोची, और अस्पृश्यता हटाने की दिशा में हीरो के रुप में प्रचारित होने के लिये उन्होने उनका दुबारा विवाह कराया । चँूकि प्रचार-प्रसार हेतु समधी-भेंट के चित्र प्रमुख तत्व थे, अतः उन्होंने समधी-भंेट के एक-एक क्षण को कैमरे में क़ैद कराया, और रहा आख़री प्रश्न तो, मैं आर्यवर्त के लोगों से भली-भाँति परिचित हूँ। बाहर से वे कितने भी प्रगतिवादी बनें, पर उनके मस्तिष्क में जाति और सम्प्रदायवाद का कचरा भरा ही रहता है। इसी कारण मंत्री महोदय अपने हरिजन समधी से छुआ जाने की घटना से उबरने के लिये स्नानागार की ओर चल पड़े। विक्रम ने उत्तर दिया।
बिलकुल ठीक विक्रम! पर तू बोला, इसलिये मुझे जाना ही पडे़गा, कहकर वेताल फिर डाल पर जा लटका।

35 सवर्ण

वह एक दलित प्रोफेसर रहा है। आजकल रिटायर्ड है और शौकिया तौर पर समाजसेवा करता है। उसने अपनी काम वाली बाई के खाने का बर्तन अलग रखा है। गली झाड़ने वाले मेहतर के लिये चाय का फूटा हुआ कप अलग से रखा है। वह दलितों मे सवर्ण है। सारे दलित उसे प्रणाम करते हैं।

36 राख -1

उस सरकारी कार्यालय में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। झण्डा-वन्दन हो चुका है। सब लोग प्रफुल्लित हैं। हँसी-मज़ाक कर रहे हैं। जल्द ही लड्डू बाँटे जाने हैं। लड्डू खरीदने की ज़िम्मेदारी एक बांभन को सौंपी गयी है। ये बांभन, चपरासी से प्रमोट होकर क्लर्क बना है। अधिकारियों के घरों में कथा बंाचने के कारण उसे आउट अॅाफ टर्न प्रमोशन दिया गया है।
बांभन महाराज लड्डू का डिब्बा उठाये सबके सामने जा रहे हैं, और कह रहे हैं-लीजिये अपने हाथ से लड्डू उठाइये। मेरे पास पहंुचकर वह अपने हाथ से लड्डू उठाकर देता है। ऐसा ही वह मेरे बाजू में खडे एक चमार कर्मचारी को भी हाथ से उठाकर देने लगता है। इसपर वह चमार कर्मचारी अड़ जाता है कि वह डिब्बे में ही हाथ डालकर लड्डू उठायेगा। वह बांभन भी अड़ जाता है। चमार अब बांभन को मां-बहन की गाली देने लगता है। कार्यालय के बाॅस, अनुसूचित जाति के दूसरे कर्मचारियों से कह रहे हंै कि बात न बढ़ायी जाये, और उस चमार कर्मचारी को समझाया जाये कि इस बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाये।
इसके बाद सभी अनुसूचित जाति के कर्मचारी उस चमार को समझा-बुझाकर शांत कर देते हैं, और समानता-भाईचारा आदि शब्दों की बयानबाजी के साथ गणतंत्र दिवस मना लिया जाता है।
...यह एक ऐसी राख है, जो अन्दर ही अन्दर सुलग़ रही है।

37 औक़ात -2

‘‘अबे, हम दलित ज़रूर हैं, पर बेटा हमारे ताल्लुकात ऊँचे घरानों से हंै। बेटा, अच्छे-अच्छे बंभनों का हमारे यहां आना-जाना है। साथ में खाना-पीना भी है। हम तो बंभनो के साथ एक ही थाली में खाते हैं। शाम को देख लीजो, हम अपनी एक बांभन भऊजी के साथ ही खाना खायेंगे।’’
अगले दिन-
‘‘देखा, हम अपनी उस बांभन भऊजी के साथ एक ही थाली में खाना खा रहे थे।’’
‘अबे, मैं भी देख रिया था। तेरी वो भऊजी बेटा, सूखी चीज़ें तो तेरे साथ थाली में खा रही थी, और बेटा जब दाल-चांवल-सब्जी-रोटी खाने की बारी आयी, तो उसने अपने बेटे की थाली में खाना शुरू कर दिया। बेटा हमें तुम्हारी औक़ात दिख गयी।

38 सन्त

अपने बाॅस कितने शरीफ़ हैं न ? हमेशा बेटा-बेटा कहके बात करते हैं। एकदम सन्त प्रवृŸिा के हैं। एक नवनियुक्त लड़की ने अपने कार्यालय में काम करने वाली एक अधेड़ महिला से कहा।
अरे तुम्हें कुछ मालूम नहीं है। ये बुढ़उ एक नम्बर का लम्पट रहा है। खोई हुई ताक़त और जवानी वापस पाने के लिए इसने कुछ दवाइयाँ लीं, और दवाइयों के रियेक्शन से यह नपुंसक हो गया, तभी से ये सभी औरतांे को बेटा-बेटा कहता है। अरे इस पर तो छेड़छाड़ के कई प्रकरण दर्ज हंै। अधेड़ औरत ने सन्त की सच्चाई से उसे अवगत कराया।

39 काॅमन फैक्टर

हिन्दू-सिख दंग़ो के दौरान-हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई
हिन्दू-मुस्लिम दंग़ो के दौरान-हिन्दू-सिख भाई-भाई या हो सकता है हिन्दू-ईसाई भाई-भाई।
इन घटनाओं में काॅमन है हिन्दू, और फैक्टर है, अल्पसंख्यकों का बहुसंख्यकों से सद्भावना रखते हुए दंग़ों की मुख्यधारा में शामिल होना।

40 क्रान्ति

अपने घर की बाल्कनी में अख़बार पढ़ता हुआ वह अक़्सर देखा करता कि मोहल्ले के घूरे में मोटे-तगडे़ कुŸो मुँह डालकर कुछ-कुछ खोजते-खाते रहते। वे गायों को आस-पास फटकने भी नहीं देते, और भूंककर उन्हें भगा देते। गायें दूर खड़ी होकर उन्हंे देखती रहतीं।
एक दिन उसने देखा कि एक बड़ा मोटा-तगड़ा सांड वहां आ गया है, और उसने घूरे पर कब्ज़ा कर लिया है। कुŸो लगातार उसे भौंक रहे हंै, पर उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है। कुŸो अब ख़तरनाक तरीके़ से भौंककर उसे डराने की कोशिश कर रहे हैं। अब वह सांड भी आक्रामक हो उठा है, और अपनी सींगों से कुŸाों पर हमला करने लगा है। अब कुत्तों की भौक किकियाने में तब्दील होती जा रही है।
अब अक़्सर ऐसा होता है कि घूरे पर सांड और गायों का कब्ज़ा रहता है, और कुŸो खड़े होकर उन्हें देखते रहते हैं।
41 औक़ात -3

ग्राम-सभा की बैठक लेते हुए उस दलित तहसीलदार ने बडी आत्मविश्वास-भरी बातें कीं। बातचीत के दौरान उसने देखा कि गांव के सारे सदस्य तो दरी पर बैठे हंै, लेकिन एक व्यक्ति कोने में अलग-थलग उकडू बैठा हुआ है। उसने आदेशात्मक अन्दाज़ में उससे कहा-वहां क्यों अलग-थलग बैठे हो। यहां सबके साथ बैठो। इस पर सभी लोगों ने कहा-साहब आप तो अपना काम करिये। काम के दौरान उस अधिकारी को यह बात लगातार खटकती रही, और बैठक खत्म होने के बाद उसने उससे कारण पूछा, तो पता चला कि चूंकि वह चमार जाति का है, इसलिए सबकेे साथ नहीं बैठ सकता, और उसे हमेशा इसी तरह से बैठना होता है, जबकि उसका अपना लड़का किसी दूसरे ज़िले में तहसीलदार है।
...अब उस तहसीलदार को अपना आत्मविश्वास ढहता हुआ प्रतीत होने लगा ।

42 विकल्प

पितृ-पक्ष के दौरान उसने अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिये ब्राम्हण-भोज का आयोजन करने की सोची, किन्तु उसे मालूम था कि सिर्फ़ भोज के लिये तो वे आने से रहे। फिर उसने उनका विकल्प तलाशा, तो पता चला कि कौआ उनका विकल्प है। उसने खाना कौओं के सामने डाल दिया। कौओं ने कांव-कांव करके अपने दूसरे साथियों को भी बुला लिया।
कौओं के झुण्ड को देखकर उसके मुंह से बरबस ही निकल गया-वाक़ई एकदम सही विकल्प है।

43 कोठेवाले

‘पण्डितजी, आपने हमारी बच्ची की शादी अच्छी तरह निपटा दी। पूजा की सामग्रियों के आलावा दक्षिणा के ये पांच सौ एक रूपये भी रख लंे।’
‘‘आपने हमंेे क्या पांच सौ रूप्पली वाला पण्डित समझ रखा है? आप हमें ज़्यादा पैसे दीजिये।’’
‘अच्छा पण्डितजी, ये छै सौ एक रूपये रख लीजिये।’
‘‘हम छः सौ एक रूपये में यहां इतनी दूर मराने के लिए थोड़े ही आये हंै।
‘अच्छा पण्ड़ितजी, ऐसा करिये, आप अपना रेट बता दीजिये।’
‘‘लो भाई...अब हम कोठेवाले हो गये, जो हमसे हमारा रेट पूछा जा रहा है...मोल-भाव हो रहा है...क्यों जजमान?’’
‘अब पण्डितजी हम तो कुछ कह ही नहीं रहे हंै। आप ही अपने से कह रहे हंै।’

44 हँसी

मैं अपनी मायूसी से मायूस होकर मायूसी के डाॅक्टर के पास पहुंचा, तो पाया कि डाॅक्टर खुद मायूस बैठा हुआ है। उसने बड़ी ही मायूसी से कहा कि हँॅंसना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक होता है, अतः रोज़ एक घण्टे हँसा करें। उसने मुझे हँसने वालों के क्लब का सदस्य बनने की भी सलाह दी।
अगले दिन मैं हंसी की खोज में क्लब पहुंचा, तो पाया कि उस क्लब में छलजीवी, बलजीवी, बुद्धिजीवी एवम् तथा कथित प्रबुद्ध वर्ग के सवर्ण लोग अपने दोनों हाथों को उठाकर हो-हो कर अपनी फ़़र्जी ज़िन्दगी सी फ़र्जी हँसी हँस रहे हैं...और हँस रहे हैं...काॅंख-काॅंख कर हँस रहे हैं। उनकी इस स्थिति पर मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा। पर मेरी हँसी फ़र्जी नहीं थी...शायद इसलिये कि मैं दलित वर्ग से था।

45 कलजुग

‘‘यार, इस नये मंत्रि-मण्डल में तो अपना काम होने से रहा।’’
‘ क्यों भला?’
‘‘अरे यार इस मंत्रि-मण्डल में तो एक भी ब्राह्मण मंत्री नहीं है, जिसको महाराज पाय लागी, कहते हुए दण्डवत् से लेकर साष्टांग प्रणाम तक कर लेते थे...अपना काम भी हो जाता था, और अपनी चापलूसी भी ढंक जाती थी। अब इन साले बनियों और दलितों का पैर किस बहाने से पकडे़ं...और यदि पकड़ भी लें, तो साले सब समझ जायेंगे। घोर कलयुग है साला।

46 लोकतंत्र -1

जंगल में चुनाव हो रहे थे। शेर और सिंह प्रमुख प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार थे। चीता तीसरे मोर्चे का उम्मीदवार था। भेेड़ियों ने अपनी पृथक से क्षेत्रीय पार्टी बना रखी थी, तो सियारों ने अपने को उपेक्षित, शोषित और पीड़ित बताते हुए दलित पार्टी बना रखी थी। जंगली कुŸो निर्दलीय उम्मीद्वार थे। हिरणों को इनमें से ही चुनना था। सभी उम्मीदवार हिरणों को दबी, किन्तु सख़्त आवाज़ में उनके मताधिकार के महŸव को बताते हुए, उन्हें दायित्वबोध करा रहे थे। इस तरह जंगल में पूरा लोकतन्त्र लागू था।

47 आईने के पीछे का सच

‘‘तुमने धर्मांन्तरण क्यों किया?’’
‘जी मैं एक दीगर धर्म के व्यक्ति की रखैल रही। कुछ दिनों बाद उसने मुझे छोड़ दिया। चूंकि मैं अपने समाज की नज़रों में बिगड़ चुकी थी, इसलिये मेरे समाज और धर्म के लोग तो मुझे वापस अपने साथ में लेने से रहे, सो मैंने सोचा कि उसी व्यक्ति के धर्म को स्वीकार कर लिया जाये।’
‘‘और तुमने धमानर््ंतरण क्यों किया?’’
‘जी मैं दलित वर्ग से हूॅं। चूंकि हमारे एक बड़े नेता ने धर्मांन्तरण कर लिया था, सो हमने भी धर्मांतरण कर लिया।’
‘‘...और तुमने?’’
‘जी दलित वर्ग से तो मैं भी हूॅं, पर मैंने अपने उस बड़े नेता का अंधानुकरण न करके, अपने विवेक से काम लिया। मुझे लगा कि वर्ण-व्यवस्था का कोढ़ कभी ठीक होने वाला नहीं है, सो स्वाभिमान से जीने की लालसा ने मुझे धर्मांन्तरण के लिये प्रेरित किया और मैंने धर्मांतरण कर लिया, पर यहाॅं भी वर्ण-व्यवस्था जैसी ही वर्ग- व्यवस्था लागू है। ’
‘‘...और तुमने?’’
‘जी मुझे एक धार्मिक संस्था ने पढ़ाया-लिखाया, योग्य बनाया। आज मैं जो कुछ भी हूं उसी की बदौलत हूं। चंूकि हमारे यहां जिसका खाओ, उसका गाओ वाली परम्परा रही है, सो मैंने भी अपनी इस परम्परा का निर्वाह करते हुए उस धार्मिक संस्था के पक्ष में धर्मांन्तरण कर लिया।’
‘‘...और तुमने क्यों किया?’’
‘जी आप किसी से कहेंगे तो नहीं?’
‘‘अरे नहीं भाई ! मैं तो यूं ही पूछा रहा हूं।’’
‘तो सुनिये...दरअसल मैंने लालच से प्रेरित होकर धर्मांन्तरण किया। मुझे न जाने क्यों, ऐसा लगता रहा कि मेरी प्रतिभा की कद्र अपने देश में नहीं हो रही है। मैं हमेशा ही विदेश जाने की जुगाड़ में लगा रहता, और इस धर्मावलम्बियों के सम्पर्क में रहकर मैं अपने मंतव्य में सफल भी हो गया। आजकल मैं एक एन.आर.आई. हूूॅं। दूरगामी फ़ायदों को देखते हुए मैंने धर्मान्तरण कर लिया।
‘‘आपने इस सभी का उŸार तो सुन लिया। आप तो इस धर्म के अगुवा कहलाते हैं...आपने तो कइयों का धर्मांन्तरण कराया है। आप तो बडे़ ज़ोर-शोर से कहते रहे हैं कि, हम धर्म-परिवर्तन नहीं, हृदय-परिवर्तन कराते हैं। तो क्या हम ये मान लें, कि इन सभी का हृदय परिवर्तन हुआ है?
मैं तो आज भी डंके की चोट पर कहता हूं कि हम धर्म-परिवर्तन नहीं, हृदय-परिवर्तन कराते हैं, और इन सभी का हृदय-परिवर्तन हुआ है।

48 पिण्डदान

पण्डिताइन-सुनियेजी, अपनी बेटी रेखा कल मुझसे कह रही थी कि वह राकेश से शादी करना चाहती है।
पण्डित-अरे शादी करने के लिए क्या उसे, वही हरिजन मिला था।
पण्डिताइन-अरे छोड़िये न। लड़का अच्छी सरकारी नौक़री में है। वह अपनी बेटी को सुखी रखेगा और सबसे बड़ी बात वो लोग कोर्ट में शादी करेंगे, जिससे हमारे चार-पांच लाख रूपये बच जायेंगे, जो अपने छोटू को मेडिकल काॅलेज़ में एडमिशन के काम आयेंगे।
पण्डित-लेकिन जात-समाज में लोग क्या कहेंगे?
पण्डिताइन-अरे समाज की आॅंखों में धूल झोंकना कौन सी बड़ी बात है। हम अपनी बेटी से सम्बन्ध खत्म कर लेने की बात कहते हुए उसे मरा हुआ घोषित कर उसका पिण्डदान कर देंगे। इससे समाज भी शांत हो जायेगा। हमारी बेटी सुखी रहे, इससे बढ़़कर हमारे लिये क्या हो सकता है?

49 घर-वापसी

उस्ताद-जमूरे
जमूरा-जी उस्ताद।
उस्ताद-अबे ये भीड़ कहाँ खिसक ली ?
जमूरा-उस्ताद सुनते हैं कि शहर में कुछ नौटंकीबाज आये हुए हैं, और सारे शहर में घूम-घूमकर घर-वापसी नाम की नौटंकी दिखा रहे हैं। भीड़ उन्हीं की नौटंकी को देखने गयी है।
उस्ताद-अबे वो लोग तो अपने बाप हैं बे। उनकी घर-वापसी नाम की नौटंकी तो सुपर-डुपर हिट है।
जमूरा-उस्ताद, ये कैसी नौटंकी है ?
उस्ताद-अबे इस नौटंकी में क्या होता है कि धरम नं.-एक से जो लोग दूसरे धरम में चले गये हैं, उन्हें वापस धरम नं.-एक में लाने की कसरत की जाती है। अधिकतर ऐसा होता है कि धरम नं.-एक के ही कुछ लोगों को पकड़कर उन्हें दूसरे धर्म का बताते हुए उनकी घर-वापसी का स्वांग रचा जाता है।
जमूरा-उस्ताद, लोग धरम नं.-एक से ही क्यों दूसरे धरमों में जाते हैं ं? दूसरे धरमों से तो कोई इसमें नहीं आता। अख़िर क्यों ं?
उस्ताद-अबे धरम नं.-एक में आदमी-आदमी के बीच ऊँच-नीच की दीवार है। आदमी पहले अपना सम्मान चाहता है, और इस धरम में रहते हुए वह सम्मान तो पा ही नहीं सकता, क्योंकि इस धरम में सम्मान चंद मुट्ठीभर लोगों के लिए ही आरक्षित है। लोग बेइज़्ज़त होकर भला धरम को क्यों ढोयें ? इसीलिये वे दूसरे धरमों में ंचले जाते हंै।
जमूरा-तो उस्ताद, घर-वापसी नाम की इस नौटंकी की रिज़ल्ट ज़़ीरो होता होगा?
उस्ताद-बेटा ये नौटंकीबाज पालिटिक्स में भी होते हैं। और सŸाा इनका घर होता है,ं सो उनके लिये घर-वापसी का मतलब होता है-सŸाा की वापसी। दूसरों के लिए इस नौटंकी का रिज़ल्ट भले ज़़ीरो होता हो, पर इनकी रोटी सिंक जाती है...समझा ?
जमूरा-समझ गया उस्ताद।

50 फ़़्यूज़न -1

गांव में रामलीला हो रही है। शबरी द्वारा कथित मर्यादा पुरूषोŸाम को जूठे बेर खिलाने का दृश्य चल रहा है। भक्तिभाव से भरी हुई शबरी चाह रही है कि मर्यादा पुरूषोत्तम के विराट स्वरूप के उसे दर्शन हो जायें। भक्ति की शक्ति से उसे प्रभु के विराट स्वरूप के दर्शन हो भी जाते हैं। प्रभु के विराट स्वरूप में उसे शूद्र शम्बूक का वध, शूर्पनखा की कटी हुई नाक और सीता का परित्याग जैसे दृश्य नज़र आते हैं। अगले पिछले सभी अवतारों में की गयी करतूतें दिख पड़ती हैं। अचानक शबरी का हाथ उसके गिरेबां तक पहँुच जाता है और वह कहने लगती हैं-ऐ सबसे बडे़ जातिवादी और नारी विरोधी, कौन है तू ? किस संगठन से जुडा हुआ है, बता ?
...और इसके बाद जैसा कि हमेशा होता है...रामलीला पण्डाल में आग़ लगा दी गयी।

51 सन्मति

एक बार सारे विश्व में सामूहिक रूप से प्रार्थना की गयी-ईश्वर-अल्ला तेरो नाम...सबको सन्मति दे भगवान। ईश्वर ने इस प्रार्थना से प्रसन्न होकर सबको सन्मति दे दी ।सन्मति मिलते ही लोग ईश्वर के वज़ूद को ही चुनौती देने लगे। अब वे हर बात पर तर्क करने लगे। आस्था का लोप हो गया। ईश्वर ने अपना वज़ूद ख़तरे में जानकर लोगों से सन्मति वापस ले ली।
ईष्वर अब चेत गया है, इसीलिये उसे अब कोई भी प्रार्थना प्रभावित नहीं कर पाती है।

52 वर्गभेद -1

मुझे याद पड़ता है कि छुटपन में, हमारे पूरे मोहल्ले मंे सिर्फ़ एक ही लड़के के पास क्रिकेट किट हुआ करती थी। वह अपनी किट उसी शर्त पर निकाला करता कि वह जब तक चाहेगा, बैटिंग करता रहेगा। वह आऊट नहीं होगा। बाॅॅलिंग और फील्डिंग करते-करते हमारी सासें फूल जाती थीं। जब वह बैटिंग करते-करते बोर हो जाता था, तब कहीं जाकर हमें बैटिंग का मौक़ा मिल पाता था।
...मुझे जीवन के हर कदम पर अपना छुटपन याद आता है।

53 अवैध आस्था

उस्ताद-जमूरे ।
जमूरा-जी उस्ताद
उस्ताद-मुझे इस देश की चिन्ता हो रही है।
जमूरा-क्यों उस्ताद ?
उस्ताद-इस देश के हर गली-चैराहे मंे अलग-अलग धर्म के पूजाघर कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। कुछ दिनों बाद आदमी ग़ायब हो जायेंगे, और ये भगवान ही रह जायेंगे। मुझे इसी बात की चिन्ता खाये जा रही है।
जमूरा-छोडो न उस्ताद। देश की चिन्ता करने के लिये हैं न बडे़-बड़े नेता।
उस्ताद-मुझे इस बात की भी चिन्ता है। ख़ेैर तूने शहर के एक चौराहे में अवैध रूप से सीना ताने एक मन्दिर को देखा है कि नहीं ?
जमूरा-देखा है उस्ताद। मैं वहां एक नारियल भी चढ़ा आया हूं।
उस्ताद-अबे तेरा वो नारियल तो अवैध हो गया।
जमूरा-क्यों उस्ताद ?
उस्ताद-अबे अवैध कब्ज़े में बने मन्दिरों में जाने वालों की आस्थाएं भी अवैध हो जाती हैं।
जमूरा-ये क्या बोल रहे हो उस्ताद। आप तो सरेआम लोंगों की धार्मिक भवनाओं को ठेस पहंुचा रहे हो।
उस्ताद-अबे हम जैसे फुटपाथियों की बातों से लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचती।
जमूरा-तो किनकी बातों से ठेस लगती है उस्ताद ?
उस्ताद-अबे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का ठेका या तो बडे नेताओं के पास होता है, या फिर बड़े लेेखकों के पास...समझा ?
जमूरा- समझ गया उस्ताद।

54 ब्रम्हहत्या

‘‘जल्लाद, कल तुम्हें एक अपराधी को फाँसी पर चढ़ाना है।’’
‘साहब उसने क्या गुनाह किया है ?’
‘‘वह नाबालिग़ लड़कियों से बलात्कार करके, उनकी हत्या कर देता था। इसीलिये उसे यह सज़ा दी जा रही है।’’
‘ऐसे कमीने-पापी को फाँसी पर चढ़ाने में मुझे बड़ी खुशी होगी साहब । मेरा बस चलता तो मैं कल क्या, आज ही उसे फाँसी पर चढ़ा देता।...वैसे साहब उस उपराधी की जात क्या है ?’
‘‘अपराधी की कोई जात या धरम नहीं होता है।...अपराधी, सिर्फ़ अपराधी होता है।’’
‘फिर भी साहब, कोई तो जात होगी उसकी...?’
‘‘हाँ, ब्राम्हण है वह...पर इससे तुम्हें क्या ?’’
‘तब तो साहब मुझे मुआफ़ करिये। मैं उसे फाँसी पर लटकाकर अपने सर पर ब्रम्हहत्या का पाप नहीं ले सकता। मैं जल्लाद हँू तो क्या हुआ, मेरा भी अपना धरम है। मुझे भी तो उपर जाकर मुँह दिखाना है।’

55 भयादोहन -2

‘‘क्यों रे बालक, ये रसीदबुक पकड़कर कहाँ घूम रहा है ?’’
‘जी हम लोग गणेशजी का चन्दा इकट्ठा कर रहे हैं।’
‘‘तुम्हारे बाक़ी साथी कहाँ हैं ?’’
‘जी, हम दस लोग अलग-अलग रसीदबुक लेकर, अलग-अलग घरों में चन्दा माँगने जा रहे हैं।’
‘‘ऐसे में तो बेटा, तुम लोगों को चन्दा मिलने से रहा। तुम सभी को चन्दा माँगने के लिए एक साथ भीड़ के रूप में जाना चाहिये। बेटे, लोग श्रद्धा से नहीं, बल्कि भीड़ से डरकर चन्दा देते हैं। जितनी बड़ी भीड़, उतना ज़्यादह चन्दा समझे...।

56 पूजिये विप्र सकल गुनहीना...

‘‘इस अधिकारी ने हम दो ब्राम्हण कर्मचारियों को सस्पेण्ड करके हमारी हाय ली है। इसका कभी भी भला नहीं होगा। हम लोग तो उसे श्राप देते रहते हैं।’’
‘सरकारी कामों में व्यक्तिगत दुर्भावना का भाव नहीं लाना चाहिए। जब उस अधिकारी ने आदेश ज़ारी करके तुम्हे इस हेड-आॅफ़िस से हटा दिया था, तो भी तुम लोग यहाँ ज़बरन बने हुए थे। यह ग़लत तो था।’
‘‘यार, उसने हम दो को ही सस्पेण्ड किया, जबकि तुम्हे तरक्की दे दी। ब्राम्हणोें को सज़ा, और दलितों को तरक्की। यह कहाँ का न्याय है ?’’
‘मैंने इस मुकाम को हासिल करने के लिये बहुत मेहनत की है। मुझे अपनी साहित्यिक उपलब्धियों का फ़ायदा मिल रहा है। मेरे उपर किसी तरह का भ्रष्टाचार का आरोप भी तो नहीं है, जैसा कि तुम लोगों पर है।’
‘‘हम ठहरे शुद्ध शाकाहारी सात्विक ब्राम्हण। हम किसी से थोड़ी बहुत घूस ले भी लेते हैं, तो दान के रूप में। हमारा तो लोन-फोन लेकर घी पीने वाला दर्शन भी नहीं है। अरे यार वो एक भौतिकवादी दर्शन है न...।’’
‘अच्छा, तो तुम चार्वाक दर्शन के बारे में कहना चाह रहे हो, जिसमें ऋण कृत्वा घृतम् पीवेत कहा गया है।’
‘‘अरे हाँ-हाँ वही। हम तो तुलसी बाबा के मानने वाले हैं।’’
‘तब तो तुम्हें उस अधिकारी को श्राप देने का कोई अधिकार नहीं है, क्योकि तुम्हारे तुलसी बाबा ही ने तो कहा है न-होहे वही जो राम रचि राखा। तुम्हारा निलम्बन भी प्रभु की इच्छा है।’
‘‘हम कुछ नहीं जानते। हम ब्राम्हण हैं, और हमें उस अधिकारी ने सस्पेण्ड किया है। हम तो उसे श्राप देंगे ही।’’
‘यार, उस अधिकारी की बात छोड़ भी दें, तो आॅफ़िस के दूसरे अधिकारी भी तो तुम लोगों को पसन्द नहीं करते हैं, फिर भी तुम लोग यहाँ बने रहना चाहते हो। तुम्हारे तुलसी बाबा ही ने तो कहा है न-आवत ही हरसै नहीं, नयनन नहीं सनेह, तुलसी तहाँ न जाइये, चाहे कंचन बरसे मेह।’
‘‘यार, आप ठहरे साहित्यकार। आपको सात-आठ भाषाएं आती हैं। आपको कई सारे दोहे और श्लोक मँुह जुबानी याद हंैं। हमें तो सिर्फ़ एक ही दोहा मालूम है, और उसी में पूरी दुनिया समाहित है।’’
‘कौन सा दोहा ?’
‘‘पूजिये विप्र सकल गुनहीना...।’’

57 दिवालिये -1

शहर के उस मुहल्ले में प्रवचन चल रहा था। स्वामीजी बड़े ज्ञानी मालूम पड़ रहे थे। अपने प्रवचन के दौरान स्वामीजी ने कहा-जिस तरह त्रिभुज के तीन कोण होते हैं, ठीक उसी तरह आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है।
आस्था में डूब श्रोता बोले-वाह।
स्वामीजी ने आगे कहा-जिस तरह चांद, सूरज और धरती गोल है, ठीक उसी तरह प्रभु धरती पर अवतार लेते हैं।
भक्तों ने कहा वाह...वाह।
स्वामीजी ने बहुत ज़्यादा उत्साहित होकर नाचते हुए कहा-जिस तरह कम्प्यूटर की मेमोरी होती है, ठीक उसी तरह आत्मा टेलीविज़न के समान होती है।
लोग वाह-वाह करते हुए स्वामीजी के साथ नाचने लगे।
इस घटना के दौरान पाग़लखाने की एक गाड़ी वहाँ आकर रूकी, और असमें से डाक्टर- कम्पाउण्डर आदि उतरे। उन्होंने लोगों को बताया कि ये स्वामी पाग़लखाने से भागा हुआ एक ख़तरनाक पाग़ल है।
हमारे स्वामीजी को पाग़ल बताते हो...कहते हुए उग्र भीड़ पाग़लखाने के कर्मचारियों पर टूट पड़ी।

58 कुण्ठाकथा

क्यों, तुमने यह क्या तमाशा बना रखा है ? मुझे पक्की ख़बर है कि आॅफ़िस के कम्प्यूटर में तुम अश्लील वेबसाइट्स देखते हो, और दूसरे कर्मचारियों को भी दिखलाते हो। शर्मा साहब ने विनय को फटकारते हुए कहा।
अपराधबोध से भरा हुआ विनय, शर्मा साहब के चैम्बर से निकला। वह पिछले कई दिनों से महसूस कर रहा था कि शर्मा साहब उसे अपमानित करने का अवसर ही खोजते रहते थे। वह सोचता कि शायद दलित होने के कारण ही ऐसा है।
शर्मा साहब के चैम्बर से निकलकर से वह हाॅल से होकर अपनी सीट की ओर बढ़ने लगा। उसे ऐसा लगने लगा, जैसे हाॅल में बैठे कर्मचारी उसकी ओर व्यंग्य से देख रहे हों। वह नज़रें झुकाये अपनी सीट पर जा बैठा। यह सही बात थी कि पूरे कार्यालय में इण्टरनेट का सिर्फ़ उसे ही ज्ञान था। उसे एक हाई-टेक कर्मचारी के रूप मेें जाना जाता था। वह अपने सभी साथियों को इण्टरनेट से परिचित कराना चाहता था, लेकिन थोड़ी ही देर बाद उकताकर वे कहने लगते-अरे यार कुछ माल-टाल दिखाओ। उसे दो-तीन अश्लील साइट्स के पते मालूम थे, सो वह उन्हेें वही दिखा देता। कार्यालय के लगभग सभी साथी कर्मचारियों को वह ये साइट्स दिखा चुका था। इनमें से कुछ तो उसकी बाप की उम्र के थे। और तो और, आफ़िस कि महिला कर्मचारी भी हँसते हुए कह देतीं-विनय जी हमें भी इण्टरनेट सीखा दें।
शर्मा साहब की फटकार के बाद उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। वह किंकर्Ÿाव्यविमूढ़ की सी स्थिति में अपनी सीट पर बैठा रहा। उसे पता ही नहीं चला कि कब दफ़्तर बन्द होने का समय हो गया। उसने घड़ी देखी, और जाने के लिये जैसे ही सीट से उठना चाहा, उसके पास शर्मा साहब पहुँच गये, और कहने लगे-विनयजी आप मुझे भी वो वाली साइट्स खोलकर दिखायें। मैं बहुत दिनों से आपसे यह बात कहना चाह रहा था, लेकिन...ख़ैर। क्या करें यार, साली सारी दुनिया ही कुण्ठित है।
शर्मा साहब को साइट्स दिखाता हुआ विनय अपने-आपको कुण्ठारहित महसूस करने लगा।

59 चिन्ता -1

जमूरा-उस्ताद।
उस्ताद-हंू।
जमूरा-आजकल दलित और नारीविरोधी पार्टियंा भी उनकी चिन्ता करने की बातें कर रही हैं।
उस्ताद - तुझे इसका मतलब मालूम है जमूरे ?
जमूरा -नहीं पता उस्ताद।
उस्ताद-उस्ताद अबे उन पार्टियों के लिए दलितों की चिन्ता का मतलब है किसी आवारा कुतिया पर किसी पामेरियन कुत्ते का चढ़ा हुआ होना और नारियों की चिन्ता का मतलब है किसी पामेरियन कुतिया पर आवारा कुत्ते का चढ़ा हुआ होना।
जमूरा-वाह उस्ताद! वाह!
उस्ताद-अबे वाह नहीं...आह बोल।

60 जुगाड़

आज आम्बेडकर-जयन्ती पर आप सभी प्रबुद्धजन इकट्ठे हुए हैं, और छुआछूत हटाने की दिशा में सार्थक विचार-विमर्श कर रहे हैं। मैं एक अँगरेज़ी दैनिक की संवाददाता हँू...अंजली शर्मा । मैं अपने अख़बार के काॅलम व्यूव के लिये आप लोगों का दृष्टिकोण जानना चाह रही थी।
‘‘हाँ...तो मिस्टर आप का परिचय ?’’
‘बन्दे को रामानन्द शुक्ल कहते हैं।’ (बालों में स्टाइल से उंगलियाँ फेरते हुए)
‘‘अरे वाह। आप तो ब्राम्हण हैं। वैसे, कौन से ब्राम्हण हैं ?’’
‘जी, हम लोग कान्यकुब्ज हैं।’
‘‘बाई दि वे । आप लोग हैं किधर के ?’’
‘जी, वैसे तो हम लोग मूलतः यू.पी. के हैं, लेकिन पिछली चार पीढ़ियों से इसी क्षेत्र में रह रहे हैं।’
संवाददाता (चहककर)-‘‘मतलब आप लोग यू.पी. वालों से रोटी-बेटी का सम्बन्ध बना सकते हैं। मेरी एक बड़ी बहन है। उसके लिये कोई लड़का हो तो बताइये न। सरकारी नौक़री में हो तो बहुत अच्छा होगा।’’
‘अजी मैडम, इन दलितों के चलते हम ब्राम्हणों के भला सरकारी नौक़रियाँ कहाँ मिल रही हैं।’
‘‘हाँ, यह बात तो बिल्कुल सही है।’’
एक दलित विचारक-यार आप लोग जब से अपना ही राग अलाप रहे हैं।
संवाददाता (हें-हें करती हुई)-‘‘जहाँ अपने लोग दिख जाते हैं, वहाँ काॅस्ट-फीलिंग तो आ ही जाती है। वैसे मुझे अपने काॅलम के लिये पर्याप्त मैटर मिल चुका है। आप सभी लोग सिर्फ़ अपना नाम लोट करा दें...आर्टिकल मैं खुद तैयार कर लूंगी।...और हाँ शुक्लाजी, आप ज़रा अपना पता भी नोट करा देंगे।

61 कारोबार

जमूरा-उस्ताद, मैं भीड़ इकट्ठी करने के लिये जबसे डुगडुगी बजाये जा रहा हूँूॅ, लेकिन लोग इकट्ठे नहीं हो रहे हैं।
उस्ताद-जमूरे, लगता है कि हमें अपना यह धन्धा समेटना पड़ेगा।
जमूरा-क्यों उस्ताद ?
उस्ताद-अबे, अब इस धंधे में बहुत से लोग उतर आये हैं। साला काम्पीटिशन तगड़ा हो गया है। कोई जन्नत से ज़ेहाद तक नाम की नौटंकी दिखा रहा है। कहीं धर्मान्तरण और घर-वापसी नाम के कार्यक्रम साथ-साथ चल रहे हैं। कभी किसी मस्ज़िद को तोड़ने का कार्यक्रम बन रहा है, तो कभी मन्दिर में बम रखा जा रहा है। पब्लिक भी साली चूतिया है, जो इनके पीछे घूमती रहती है।
जमूरा-छोड़ो न उस्ताद पब्लिक का भी टेस्ट बदल गया है। उस्ताद आजकल अपने यहांँ ज्योतिषियों का बड़ा बोलबाला है। आपुन भी ये धंधा शुरू कर देते हैं। एक तोता पाल लेते हैं और उसको काग़ज़ उठाना सीखा देते हैं...बस।
उस्ताद-अबे मैंने एक बार इसी काम के लिये एक तोता पाला था।
जमूरा-फिर क्या हुआ उस्ताद ?
उस्ताद-मैंने उस तोते को गीता के दो-चार श्लोेक और कुरआन की दो-चार आयतें रटवा दीं।
जमूरा-फिर...?
उस्ताद- फिर क्या, लोगों ने उसे ज्ञानी मानकर उसकी पूजा करनी शुरू कर दी, और एक दिन वह मर गया तो शहर में दंगा हो गया। हिन्दू कहते थे कि उसने मरते समय श्लोक बोला था, तो मुसलमान कहते कि उसने कुरआन की आयतें पढ़ीं थीं।
जमूरा-फिर क्या हुआ उस्ताद ?
उस्ताद-फिर क्या होना था, एक समझौते के तहत तोतेश्वर का मन्दिर और उसी के बाजू में मियाँ मिठ्ठू की मज़ार बना दी गयी।
जमूरा- उस्ताद दुनिया में क्या कभी अमन-चैन कायम होेगा, या लोग धरम के नाम पर दंगों मेें ऐसे ही मरते रहेंगे ?
उस्ताद-जमूरे। इस दुनिया में अमन-चैन तभी कायम हो सकता है, जब सारे के सारे लोग अधर्मी हो जायें, या फिर धर्म को कपड़ों की तरह बदलने लगें।

62 असुरक्षा

क्यों मियाँ, काफ़िरों के साथ गणेश के चन्दे की रसीदें काटते घूम रिये हो। क्या, तुम्हें मालूम नहीं कि इस्लाम में बुतपरस्ती की मनाही है ?
जनाब, मैं तो इस पर सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि जान है तो जहान है।

63 दुकानदारी -एक

(रात के वक़्त उस्ताद और जमूरा शहर के बाज़ार में घूम रहे हैं, और आपस में बातचीत भी कर रहे हैं)
जमूरा-उस्ताद, वो दुकानों के बीच में केसरिया रंग का ग्लोसाइसनबोर्ड किस दुकान का है ?
उस्ताद-जमूरे, वो संकटमोचक का मन्दिर है।
जमूरा-और उस्ताद, वो नीले रंग का बोर्ड, जिसमें किसी होटल के मीनू, जैसा कुछ लिखा हुआ दिख रहा है, क्या किसी आईसक्रीम पाॅर्लर का है ?
उस्ताद-नहीं रे, वो एक देवी के मन्दिर का बोर्ड है, और मीनू जैसा जो दिखा रहा है, वह वहां पर जोत जलाने का रेट है।
जमूरा-उस्ताद, मन्दिरों में भला इस तरह के साइनबोर्ड्स की क्या ज़रूरत है?
उस्ताद-बेटा, यह भी एक क़िस्म की दुकानदारी है।

64 इज़्ज़त, इज़्ज़त और इज़्ज़त

उस्ताद-क्यों बे जमूरे । यँू थोबड़ा लटकाकर क्यूँ बैठा हुआ है।
जमूरा-उस्ताद, कल लौण्डी-चकल्लस मेें आपुन की फोड़ाई हो गयी।
उस्तााद-अबे तो तू ये बात गर्व से कहा होता। भला यूँ थोबड़ा लटकाने की क्या ज़रूरत है ?
जमूरा-उस्ताद। सरे-बाजा़र आपुन की इज्ज़्ात उतर गयी, और आपको मजा़क सूझ रहा है।
उस्ताद-अबे इज्ज़्ात का क्या है, वो तो आनी-जानी चीज़ है। मेन चीज़ है पइसा। तेरा पइसा तो खरच नहीं हुआ न, थाने या अस्पताल में...बस।
जमूरा-उस्ताद, बड़े-बड़े सन्त-महात्मा बोल गये हैं, कि पैसा तो हाथ का मैल है...इज्ज़्ात गयी तो सब गया। साला सारा इम्प्रेशन ख़राब हो गया।
उस्ताद-बेटा मैंने तेरे को कितनी बार समझाया है कि धार्मिक चैनल मत देखाकर, मत देखाकर... बिगड़ जायेगा। आख़िर तूने मेरा कहा नहीं माना, और इज्ज़्ात का कचरा अपने दिमाग़ में भर लिया। ख़ैर सुन इज्ज़्ात-विज्जत सब मन का वहम है। तू अपने-आपको बेइज्ज़त हुआ मान ही मत। रही बात इम्प्रेशन की, तो बेटा यह जान ले कि दुनिया में किसी का भी इम्प्रेशन ठीक नहीं है। तेरे सन्त-महात्माओं का भी नहीं।
जमूरा-उस्ताद, आप तो बड़े-बड़े सन्त-महात्माओं की मारे जा रहे हो।
उस्ताद-अबे तो मैं उस्ताद ऐसे ही थोडे़ बन गया हूँ।

65 हफ़्ता

‘आप लोग मेरे दरवाज़े पर भीड़ लगाकर क्यूँॅ खडे़ हैं ?’
‘‘हमें गणेश का चन्दा चाहिये।’’ (रूखे स्वरों में)
‘आप लोग चन्दा माँग रहे हैं, या हफ़्ता वसूल रहे हैं ?’
‘‘आप जो भी समझ लें।’’
‘कितना दे दूँ ?’
‘‘जितनी आपकी श्रद्धा।’’
‘ये इक्कीस रूपये रख लंे।’
‘‘पांच सौ एक रूपये से कम की रसीद तो हम काटते ही नहीं।’’
‘तो यूं ही बिना रसीद के रख लो।’
‘‘हम भीख नहीं माँग रहे हैं।’’
‘...लो भाई...पूरे पाँंच सौ एक रूपये हैं। भीड़ से अपने यहाँ भगवानों को छोड़कर खुदा-वुदा, रब्ब -वब्ब इसा-विसा सभी डरते हैं।’

66 आस्था

जमूरा-उस्ताद मैं रात भर गणेश-विजर्सन देखता रहा।
उस्ताद-मुझे तेरा चरिŸार मालूम है बेटा। तू तो वहां लाइन मारने को जाता है।
जमूरा- नई उस्ताद, आजकल आपुन भी सीरियस हो गया है। धरम-धरम में इन्टरेस्ट लेने लगा है। धार्मिक चैनल भी देखने लगा है। विसर्जन के बाद लेकिन बड़ा दुःख हुआ कि दस दिनों तक जिसकी पूजा की, उसे ही डूबो दिया।
उस्ताद-बेटा सारी दुनिया का यही चलन है कि जिसकी पूजा की जाती है, उसे डूबो दिया जाता है, या कह लो कि डूबोने के लिये ही उसकी पूजा की जाती है। जिसे खुद को पुजवाने का शौक है, उसे डूबने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। तू शोक मत मना। इसे तर्क की नज़रों से नहीं, आस्था की नज़रों से देख।
जमूरा-उस्ताद आप तो प्रवचन करने लगे।
उस्ताद-बेटा धन्धा बदलने की तैयारी कर रहा हूँ।

67 दंगों के देवता

उस दंगाग्रस्त शहर के सहमे हुए एक घर के सामने से त्रिशूलधारी दंगाइयों का एक दल जय श्रीराम का उदघोष करते हुए गुजरता है। घर में दुबके परिवार का एक बच्चा अपने बाप से पूछता है-पापा ये श्रीराम कौन हैं ? उसका बाप कुछ कहता, इसके पहले छुराधारियों का एक दल अल्लाह हूं अक़बर कहता हुआ उधर से गुजरता है। बच्चा फिर पूछता है कि पापा ये अल्लाह कौन है ? बाप के झिड़कने पर मायूस हो बच्चा कहता है-नाराज़ क्यों होते हो पापा। मैं जानता हूँ कि ये दोनों ही दंगों के देवता हैं, और इन्हीं के डर से हम अपने घर में डरे-सहमे से दुबके हुए हैं।

68 तुलसीदास का कोर्ट-मार्शल

प्रिंट मिडिया से बोर हुए तुलसीदास ने इलेक्टाॅनिक मीडिया की ओर रूख किया और एक चैनल के कोर्ट-मार्शल नाम के कार्यक्रम में पहुंच गये। कार्यक्रम संचालक ने उपस्थित लोगों से तुलसीदास जी का परिचय कराते हुए, उनसे प्रश्न करने को कहा। प्रश्नों का सिलसिला शुरू होता है-
एक महिला-तुलसीदासजी आपने तो ढोल-गंवार वाले प्रसिद्ध दोहे में नारी को पशु के समकक्ष रखा है, इसी कारण आज नारी को सम्मान नहीं मिल रहा है। इस पर आपका क्या कहना है ?
तुलसीदास-इस दोहे में ताड़न का अर्थ प्रताड़ना से न होकर भांपने से है, और मैंने नारी को भांपने की बात कही है, सो आपका आरोप निराधार है।
एक दलित-तुलसीदासजी शब्दों की लफ्फ़ाजी तो कोई आपसे सीखे। ख़ैर आपने राम को भी अपने ही जैसे ब्राहा्रणवादी बना दिया, और उसके हाथों शूद्र शबूक का वध करवा दिया।
त्ुलसीदास-देखिये मि., आपको शबरी प्रकरण भी याद होगा। मैंने तो शबरी के जूठे बेर राम को खिलाये हैं. सो आप मुझ पर जातिवादी होने का जो आरोप लगा रहे हैं, वह भी निराधार है।
एक ब्राहा्रण-महोदय, इतने सीनियर मोस्ट ऋषि-मुनियों के होते हुए, दशरथ द्वारा पुत्र प्राप्ति यज्ञ एक जूनियर ऋषि, श्रृंगी से करना से करना समझ से परे हैं। इसके पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है ?
तुलसीदासजी-नो कमेण्ट्स।

69 मोहरे

राज्य के आदिवासी क्षेत्रों के सभी स्थानीय निकायों के अध्यक्षों के पद आदिवासियों के लिये आरक्षित हो गए थे। मैंने एक प्रभावशाली पूर्व सवर्ण सरपंच से इस बाबत राय जाननी चाही। इस पर वह विद्रूप मुस्कुराहट के साथ बोला-हमारे लिए तो यह अधिक सुविधाजनक हो गया है। अब हम सामने न आकर पर्दे के पीछे से अपने मोहरे चलेंगे।

70 सह-संबंध

प्रारम्भ में मनुष्य ने अपने मन में ईश्वर की उपासना प्रारम्भ की...मनुष्य का विकास होता रहा। कुछ दिनों बाद उसने अपने घर में ही एक उपासना-स्थल बना लिया, तो भी मनुष्य का विकास होता रहा। कुछ वर्ष और बीतने पर उसने अपनी उपासना सार्वजनिक कर दी, और अब सार्वजनिक स्थलों पर बड़े-बडे़े उपासनागृह बनने लगे...मनुष्य का विकास अवरूद्ध हो गया।
आज हम पाते हैं कि ज्यों-ज्यों उपासना गृहों का आकार बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों मनुष्य का आकार छोटा होता जा रहा है।
दोनों के बीच ऋणात्मक सह-संबंध स्थापित हो गया है।

71 साज़िश

उस देश में होने वाली सभी दुर्घटनाओं में विदेशी हाथ होने की बात कहकर मुआमले को शाँत कर दिया जाता था। मुर्ग़ियोे में होने वाली बर्ड-फ्लू बीमारी की बात हो या मनुष्यों में होने वाले साॅर्स रोग की, सभी में विदेशी साज़िश की बू आती थी। यहाँ तक कि वहाँ के एक देसी बाबा की दवा फैक्ट्री में निर्मित दवाइयों में अस्थि का चूर्ण पाये जाने पर कहा गया कि यह उस देश के बाज़ार में कब्ज़ा करने की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साज़िश है। बर्ड-फ्लू के बारे में कहा गया, कि यह विदेशी दूध-दही बनाने वाली कम्पनियों की साज़िश है, जो चाहती हैं कि लोग चिकन का सेवन बन्द करके विदेशी दूध-दही का ही सेवन करें।
एक बार उस देश में लागू सड़ी-गली वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ़ दलितों ने आन्दोलन छोड़ दिया। इसपर आन्दोलन के अगुवा नेताओं को अपनी महान् सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करने का उपदेश देते हुए बताया गया कि वस्तुतः वर्ण-व्यवस्था के पीछे भी विदेशी हाथ है। यह व्यवस्था रंगभेद से आई है। इस पर दलित नेता अपनी महान् संस्कृति का गुणगान करते और गर्व से कुछ कहते हुए अपने घरों को लौट गये।


72 हिज़डे़

क्यों तुम लोग कोई काम-धाम क्यों नहीं करते ? ताली बजाकर पैसे मांगने वाले हिजड़ों से मैंने पूछा।
अजी, हमको कहाँ कोई काम आता है, सिवाय ताली बजाने के। उन्होंने जवाब दिया।
तुम लोग कोई धार्मिक चैनल क्यों ज्वाइन नहीं कर लेते ? मैंने मज़ाक में उनसे कहा।
हमारा ये वार्तालाप हुए मात्र एक हफ़्ता ही हुआ था। आज मैं विभिन्न धार्मिक चैनलों में उसी दल के हिजड़ो को ताली बजा-बजाकर नाचते-झूमते देखता हूँ । साथ ही देखता हँू ताली बाजा-बजाकर नाचने वाले भक्तों की अथाह भीड़ को, और दुनिया को हिजड़ों की दुनिया बन जाने की कल्पना करके मैं भयभीत हो जाता हूँ।

73 सबसे बड़ा धार्मिक

‘‘आदमी को धार्मिक प्रवृŸिा का होना चाहिए। अब मुझे ही देखों। मैं रोज़ सुबह मुंह-अन्धेरे उठकर गंगास्नान को जाता हूँ। उसके बाद एक घण्टे तक पूजा-पाठ करता हूँ। यथाविधि उपवास भी रखता हूं।’’
‘अच्छा ज़रा तुम ये तो बताओ कि तुमने कितने विधर्मियों की हत्या की है ?’
‘‘ एक की भी नहीं।’’
‘तो क्या खाक़ धार्मिक हुए। मुझे देखो...मैं हर दंगे में दो-चार लोगों को तो सलटा ही देता हूँ। अब बताओ कि तुम धार्मिक हुए या मैं ?
आप महोदय। आप तो सबसे बड़े धार्मिक हैं।

74 दृष्टिकोण

आज मेरे सामने एक आदमी बैठा हुआ है। मैं उसे देखकर डर रहा हूँ। मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि उसके सिर पर दो बड़ी सी सींगें निकल आई हैं, और उसके नाखून भी किसी राक्षस की ही भाँति बढ़ रहे हैं। मुझे बहुत ही डरावना लग रहा है वह। मुझे पसीने छूट रहे हैं। मैं उस आदमी को मार डालना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे ऐसा लगने लगा है कि यदि मैंने उसे नहीं मारा, तो निश्चित तौर पर वह मुझे मार डालेगा।
आप लोगों को यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि कल तक यही व्यक्ति मुझे सबसे ज़्यादा प्रिय था शायद इसलिए कि वह मेरा हमधरम था, लेकिन आज उसने धर्मान्तरण कर लिया है।

75 जाल

मेरे एक मित्र ने एक विवाह समारोह में मुझे अपने एक अन्य मित्र से मुलाकात कराई-मीट माई फ्रेण्ड मि. फलां। मैंने उसके उपनाम से उसकी जाति भाँप ली। थोड़ी देर बाद उसने मेरा परिचय एक और मित्र से कराया। मैंने उसके उपनाम से उसकी भी जात भाँप ली। धीरे-धीरे वह मेरा परिचय लोगों से कराता रहा, और मैं उनकी जातियाँ भाँपता रहा।
कुछ देर बाद मैंने चारों ओर नज़रें दौड़ायीं, तो पाया कि वहाँ तो चारों ओर जातियाँ ही जातियाँ हैं। कहीं ऊँचे क़द की, कहीं मझोले क़द की, तो कहीं छोटे क़द की।
और जब मैंने खुद की जाति को टटोला, तो पाया वहाँ तो उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। ठीक से देखने पर वह मुझे कोने में दुबकी हुई दिख पड़ी।

76 वर्ग-व्यवस्था

देश में लागू वर्ण-व्यवस्था ही सब तरफ थू-थू होती देखकर राजा ने आपने राजगुरू से सलाह ली। राजगुरू काफी अनुभवी था। उसकी सलाह पर देश में वर्ण-व्यवस्था समाप्त करने की घोषणा कर दी गई, लेकिन व्यवहार में कान्वेंट शिक्षित वर्ग को उच्च और शेष को निम्न वर्ग मान लिया गया।
इस तरह देश में वर्ग-व्यवस्था लागू हो गयी।


77 गाँधी-जयन्ती

उस नगर निगम में गाँधी-जयन्ती मनाने के निर्देश शासन से प्राप्त हुए थे, जिसपर चर्चा के लिए वहाँ पार्षदों की बैठक हो रही थी। पार्षदों में से एंग्लो-इण्डियन पार्षद ने कहना शुरू किया-हम सबको महात्मा गाँधी की जयन्ती धूमधाम से मनानी चाहिये। इस पर एक दूसरे पार्षद ने व्यंग्य कसा-हाँ भई, क्यों नहीं, गाँधीजी तो अंग्रेज़ों के मित्रे थे। हमेशा से¬फ़्टी वाॅल्व की तरह काम करते रहे। माहौल को तनावपूर्ण होनेे से बचाने के लिए एक उद्योगपति पार्षद ने कहना शुरू किया-महात्मा वास्तव में महात्मा ही थे। उन पर इस तरह की टीका-टिप्पणी ठीक नहीं है। इस पर एक अन्य पार्षद ने फिक़रा कसा-हाँ भई, आप तो ऐसा बोलेंगे ही, क्योंकि गाँधीजी तो पूरे पूँजीवादी थे। एक प्रसिद्ध उद्योगपति से उनकी निकटता किसी से छिपी नहीं थी। धीरे-धीरे बैठक में शोर बढ़ने लगा। मुस्लिम पार्षद गाँधी के ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ और ‘हे राम’ पर ऊंगलियाँ उठाते हुए उन्हेें कट्टर हिन्दू कहने लगे, तो कट्टर हिन्दू पार्षद उन्हें मुसलमानों के दलाल के रूप में बँटवारे के लिए ज़िम्मेदार बताने लगे। दलित पार्षद हरिजन शब्द की व्याख्या करते हुए कहने लगे कि गाँधीजी अछूतोद्धार का ढोंग करते रहे। कुछ देर बाद ऐसी स्थिति आयी कि शोर में किसी को कुछ भी सुनाई नहीं देने लगा, और आख़िर में सभापति ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-आप लोग शाँत हो जाइये। हमें गाँधी जयन्ती सिर्फ़ इसलिए मनानी है, क्योंकि शासन से हमें इसके लिए निर्देश प्राप्त हुए हैं।
...और इसके बाद बैठक विसर्जित हो जाती है।

78 रण्डियां

‘पहले मैं धर्म नं-एक को मानता था। एक बार मेरे बच्चे की तबियत बहुत ख़राब हो गयी।मैं अपने धर्म की सभी पवित्र जगहों पर गया, लेकिन मेरे बच्चे की तबियत ठीक नहीं हुई। आखि़र में मैं धर्म नं. दो के एक धर्मस्थल पर पहुंचा और अचानक मेरा बच्चा ठीक हो गया । तब से धर्म नं. दो के प्रति मेरी आस्था हो गयी।’
‘‘पहले मैं धर्म नं. दो को मानता था। मेरी शादी हुए दस बरस बीत चुके थे, लेकिन मुझे बच्चा नहीें हो रहा था । आस-पड़ोस की औरतांे ने मेरी बीवी को बांझ कहना शुरू कर दिया था। मेरे दोस्त भी मुझे शक़ की निग़ाहों से देखने लगे थे। मैं अपने धार्मिक-स्थलों के अलावा धर्म नं एक और तीन के धार्मिक स्थलों पर भी पहुंचा, पर कुछ हासिल नहीेें हुआ। आख़िर में धर्म नं. चार के पूजास्थल पर पहुंचा, और कुछ ही दिनों बाद मेेरी पत्नी गर्भवती हो गयी। तब से मेरी आस्था धर्म नं-चार के प्रति हो गयी ।
‘‘‘पहले मंै धर्म नं. तीन को मानता था। मंैने कई जगह नौक़री के लिए इटरव्यू दिलाया, पर हर बार निराशा ही हाथ लगती थी । एक बार इंटरव्यू के लिये जाते समय मैंने धर्म नं. एक के पूजाघर में सर झुकाया, और कुछ ही दिनों बाद पेरे पास काॅल-लेटर आ पहंुचा, तब से मेरी आस्था धर्म नं. एक में हो गयी है।
‘‘चुप रहो। ये तुम्हारी आस्थाएं हैं, या रण्डियां ।
तीनों समवेत स्वरों में- उस्ताद ऐसेे धर्म को ढोने का क्या फ़ायदा जोे फ़ायदा न पहुंचाये।
शाबाश! तुम्हारे जैसे यदि सभी सोचने लगें, तो ये दुनिया स्वर्ग बन जाये।

79 आतंक के पर्याय

मुझे याद पड़ता है कि छुटपन में हम दोस्त अपने कन्घे पर तात का झोला टांगे, एक हाथ से अपनी पैण्ट सम्भालते, तो दूसरे हाथ से नाक पोंछते हुए स्कूल जाते थे। स्कूल जाते हुए हम एक गाय के पैर पड़ते, क्योंकि हमें यह बताया गया था कि गाय, लक्ष्मी होती है। हमारी नींदे या तो मस्ज़िद की अज़ान से खुलती थी, या रामधुन से। लेकिन इन बीस-पच्चीस सालों में क्या से क्या हो गया हैं। मरी गायों पर ज़िन्दा दलित कुर्बान किये जा रहे हैं। मस्ज़िद की अज़ाने गोधरा-काण्ड की याद दिलाती हैं, तो रामधुनें उसकी प्रतिक्रिया की। इन आवाज़ों को सुनकर जागने वाले हम, आज इन आवाजों़ को सुनकर चादर में मुँह ढांक लेते हैं।
...आज ये धर्मस्थल आतंक के पर्याय हो गये हैं।

80 सीरियल क़िलर

मैंने छुटपन से ही नज़दीक से दंगे देखे हैं। मैं दंगों को पढ़ने, सुनने और करने में यक़ीन रखता हँू। ये दंगे मेरे मनोमस्तिष्क पर बड़ी ही बुरी तरह हावी हैं। मैं बड़ी ही बेसब्री से दंगों का इन्तज़ार करता हूँ। वैसे मुझे बहुत ज़्यादह इन्तजार नहीं करना पड़ता है। लोग मुझे सीरियल किलर कहकर पुकारते हैं, और मैं उन्हे जवाब देता हूँ-सबसे बड़ा सीरियल क़िलर तो धर्म है।
दिवालिये
वह हिन्दू को राम-राम, मुसलमान को सलाम, सिख को सत श्री अकाल तो इसाई को जय मसीह की कहा करता । वह एक प्रकार से सर्वधर्मी था। धार्मिक शुद्धता के प्रतिबद्ध मानसिक दिवालियांे ने उसका क़त्ल कर दिया। उसका जुर्म बताया गया कि वह सभी धर्मो में घालमेल करने का षड़यंत्र रच रहा था।

81 व्यवस्था

बड़े कुŸो की ओर देखकर एक पिल्ले ने गुर्राना चाहा। इसपर उस बड़े कुŸो ने पिल्ले की गरदन में अपने दाँत गड़ा दिये, और उसका काम-तमाम कर दिया।
यह मेरे सामने की घटना है, जिसके बाद से मुझमें एक दुम उग आयी है, जो हमेशा ही हिलती रहती है।

82 हिसाब-क़िताब

‘‘मैं तुम्हारे लिए क्या-क्या नहीं करती हँू, और तुम हो कि मेरा ज़रा भी ख़्याल नहीं रखते।’’
‘अच्छा । ज़रा बताओ तो तुम मेरे लिए क्या-क्या करती हो ?’
‘‘मैं तुम्हारे कपड़े धोती हूँ।’’
‘यह काम तो दो सौ रूपये महीने वाली बाई भी कर लेती है।’
‘‘मैं तुम्हें खाना बनाकर खिलाती हूँ।’’
‘कपड़े धोने और खाना बनाने का काम चार सौ रूपये महीने वाली बाई भी कर सकती है।’
‘‘मैं तुम्हारी बीवी हूँ...तुम्हें बिस्तर-सुख देती हँूँ।’’ (हताशा का स्वर)
‘बिस्तर-सुख सहित तुम्हारे बताये गये सारे काम निश्चित तौर पर दो हज़ार रूपये महीने वाली नौक़रानी कर सकती है। मैं तुम्हारे हाथ में महीने के दस हज़ार रूपये लाकर रखता हूँ। तुम्हारे द्वारा मुझे उपलब्ध करायी गयी तमाम सेवाओं के बावज़ूद मैं आठ हज़ार रूपये महीने के घाटे में चल रहा हँू...समझीं।’

83 कुण्डली

‘ज्योतिषीजी, मेरा बच्चा बीमार सा रहता है। ज़रा इसकी कुण्डली देखकर समाधान बताएँ।‘
’’बच्चे की कुण्डली से पता चलता है कि इसकी माता इसके हित के लिये किसी क़िस्म का उपवास नहीं रखती है।’’
‘इधर कुछ दिनों से मुझे धंधे में भी घाटा हो रहा है।’
‘‘महोदय आपके भाग्योदय को आपकी धर्मपत्नी ने अवरूद्ध कर रखा है।’’
‘ज्योतिषीजी, हमारे घर में हमेशा कलह की स्थिति बनी रहती है। बड़ी बेटी पच्चीस पार हो गयी है , लेकिन अभी तक कोई रिश्ता नहीं आया है।’
‘‘महोदय, कलह के मूल में आपकी पुत्री ही है, जो कि मंगली है।’’
‘महाराज क्या वाकई सभी अपशकुनों के पीछे ये औरतें ही ज़िम्मेदार होती हैं ?’’
’’अब मैं क्या बोलंू महोदय...आदमी तो झूठ बोल सकता है, पर कुण्डली नहीं...। ’’ 84 यक़़ीन

‘‘तुम बहुत अच्छे हो।’’
‘यह तुम कैसे कह रही हो ?’
‘‘हमारी शादी हुए तीन साल हो चुके हैं, और तुमने आज-तक कभी मुझसे मेरे भूत केे विषय में नहीं पूछा। कभी रूपये-पैसों का हिसाब नहीं पूछा। वाक़ई तुम मुझ पर कितना यक़ीं करते हो न?’’
‘यकी़न तो मैं यक़ीनन करता हूं, लेकिन इस बात पर कि यदि कोई औरत कहीं भी जाकर अपना मुँह काला करवाना चाहे, तो उसे कोई नहीं रोक सकता। मैं दरअसल सभी बातों के लिये मानसिक रूप से तैयार रहता हूँ।’

85 कानून

उसने भरे बाजार में चरित्रहीन होने के सन्देह में सरे-आम अपनी पत्नी का ख़ून कर दिया।
...और चश्मदीद गवाह न मिल पाने के कारण वह बाइज़्ज़्ात बरी कर दिया गया।

86 रीत

तुम्हारे ब्याह को तीन बरस हो गये न बहू ? सास ने अपनी बहू के पेट को घूरते हुए पूछा
जी वो तो मुझे छूते ही नहीं हैं। बहू ने सास का आशय समझते हुए कहा।
मैं कुछ नहीं जानती ? मुझे सती-सावित्री नहीं , कुल को चलाने वाली बहू चाहिए। इसके लिए ज़रूरत पड़ने पर मैं अपने बेटे का दूसरा ब्याह भी रचा सकती हँू। तुमको तो मालूम ही होगा कि मैं भी तुम्हारे ससुर कि दूसरी पत्नी हूँ। हमारे यहाँ यही रीत है। औरत का जन्म ही कुल को चलाने के लिए होता है। सास ने औरत की व्याख्या करते हुए कहा।

87 परमेश्वर

आज सुबह ही तो बस में भीड़ की वजह से सटे उस आदमी पर उसे इतना गुस्सा आया कि उसने उसे एक तमाचा जड़ दिया। बस में सवार दूसरे लोग भी उस आदमी को पीटने के लिए तैयार हो गये। और अब रात में उसके कपड़े एक-एक कर नुच रहे हैं, और वह न चाहते हुए भी मुस्कुरा रही है। कपड़े नोचने वाले आदमी की दरिन्दगी बढ़ती जा रही है, वह फिर भी मुस्कुरा रही है। अख़िर वह दरिन्दा उसका पति जो है।

88 अपना-अपना सच

सत्य की, खोज में जंगल की ओर जाते हुए दो युवकों को जंगल में पहुँचते ही एक आवाज़ सुनाई पड़ती है- अभी से सन्यास की ओर कैसे ? अभी तो तुम्हारे गृहस्थ रहने का समय है।
इधर-इधर नज़्ारें दौड़ाकर पहला युवक कहता है-मेरी पत्नी निहायत ही ठण्डी औरत है। मैं उसके साथ ख़ुश नहीं रह पाता और बेइज़्ज़्ाती के डर से इधर-इधर भटक भी नहीं पाता, इसीलिए मैं सत्य की तलाश में यहाँ आया हूँ।
मेरी स्थिति ठीक इसके विपरीत है। मेरी पत्नी मुझे ठण्डा पुरूष कहती है। वह मुझसे ख़ुश नहीं है, इसीलिए मैं भी सत्य की तलाश में यहाँ पर आया हूँ। दुसरे युवक ने भी अपनी बात रखी।
हर किसी का अपना-अपना सच होता है। तुम लोग जिसकी खोज में यहाँ आए हो वह खुद ही तुम्हारे घर में ही मौज़्ाूद है। अपने-अपने घर जाओ और जाकर अपने-अपने सच का सामना करो। आवाज़ ने गंभीर स्वरों में कहा।
इस पर दोनों युवकांे ने समवेत स्वरों में कहा-आप तो बहुत पहुँचे हुए महात्मा लग रहे हैं। आख़िर कौन हैं आप ?
मैं जंग़ल का सच हूँ। उस आवाज़ ने उŸार दिया।

89 पोल

उस्ताद-जमूरे।
जमूरा-जी उस्ताद ।
उस्ताद-कल तू किस औरत को सायकल में बिठाकर घूमा रहा था। वो तेरी घरवाली तो थी ही नहीें ।
जमूरा-उस्ताद वो तो...लेकिन आप ऐसा क्यों पूछ रहे हो उस्ताद ?कहीं आपको मेरे चरित्र पर शक़ तो नहीं है ?
उस्ताद-अबे शक़ नहीें पूरा यक़ीन है कि तू चरित्रहीन है।
जमूरा-उस्ताद, आप तो सरेआम मेरे चरित्र पर कीचड़ उछाल रहे हो।
उस्ताद-अबे मैं तेरे अकेले की ही नहीं, पूरी दुनिया की बात कर रहा हंू। पूरी दुनिया ही चरित्रहीन है।
जमूरा -वो कैसे उस्ताद?
उस्ताद-अबे परसों तक मैं तुझे शरीफ़ समझता रहा, लेकिन बेटा कल मुझे तेरी असलिसत दिख गयी । बेटा दुनिया की यही रीत है कि जो पकड़ा गया वो चरित्रहीन है, बाक़ी सब चरित्रवान हैं। यहां हर आदमी शीशे के घर में रहता है, और दूसरों के घरों में पत्थर मारने की सोचता हैं।
जमूरा-तो क्या उस्ताद, आप भी चरित्रहीन हंै ?
उस्ताद-अबे तो क्या मैं दुनियां से बाहर हंू ? ख़ैर अब तो यह साबित हो ही गया कि कल तू एक परायी औरत के साथ घूम रहा था।
जमूरा-तो मंै भी क्या करूं उस्ताद...मेरी अपनी औरत तो सरेआम मेरी बेइज़्ज़ती करती है।
उस्ताद-अबे तो तू उसकी गांड में लात मारकर उसे घर से निकाल क्यों नहीं देता ?
जमूरा-उस्ताद मेरा एक छोटा सा बच्चा भी है । मेरा अपना ख़़ून उस्ताद। औरत का क्या है, वो तो बाज़ार में मिल जाती है, लेकिन मेरा अपन ख़ून उस्ताद....।
उस्ताद-अच्छा, तो तू अपने बच्चे के कारण समझौता किये जा रहा है।
जमूरा-उस्माद मैं ही क्या, सारी दुनिया शादी के बाद समझौता ही तो करती है।
उस्ताद-अबे तू तो उस्तादों जैसी बातें करने लगा।
जमूरा-सब आपकी संगत का असर है उस्ताद ।

90 प्यार -1

यह कैसे कह सकते हो कि तुम अपनी घरवाली से बहुत प्यार करते हो ?
साहब, मैं अपनी धरवाली को मारता नहीं हँूं, इसी से साबित हो जाता है कि मैं अपनी घरवाली से बहोत प्यार करता हूँ।

91 सम्बोधन

‘‘सर, आप बहुत स्मार्ट लग रहे हैं। बिल्कुल ही किसी फिल्मी हीरो की तरह।’’
‘ओह रीयली ? मेरी पत्नी भी ऐसा ही कहती है।’
‘‘अरे भइया, आपकी शादी हो गई ?’’
‘हाँ भई, मेरा तो एक बच्चा भी है।’
‘‘अच्छा अंकलजी, अब मैं चलती हँू।’’

92 सम्बन्धान्तर

वह ग्रामीण क्षेत्र में पदस्थ था । वह जिस घर में रहता था, उस घर के लोग एक तरह से उसके आश्रित ही हो गये थे । एक भावनात्मक सा संबंध बना था उनमें परस्पर, कि अचानक एक दिन रात्रि बारह बजे उसकी जवान लड़की उसके कमरे के बाहर, परछी लीपती हुई नज़र आयी । पूछने पर उसने कहा कि माँ ने रोज इसी समय तुम्हारे कमरे को लीपने कहा है ...।
...और उसके बाद से उनमें केवल भावनात्मक सम्बन्ध भर नहीं रह गये।

93 आवश्यकताओं का सम्मान

अभी कल ही की तो बात है, मंैने उमा से कहा था कि प्रेम एक आध्यामिक संज्ञा है। इसमें दैहिकता के लिये कोई स्थान नहीं होता है । दैहिकता से प्रेम की शुचिता संदिग्ध हो जाती है। मंै तुम्हारी भावनाओं का सम्मान करता हँू,। ...और आज ही वह कैलाश के साथ गाँव के समीप की पहाड़ियों में आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ी गई । सुना है गाँव वालों ने उन्हे पकड़कर पीटा भी...।
...शायद उमा को भावनाओं के सम्मान से अधिक, आवश्यकताओं के सम्मान की आवश्यकता थी ।

94 पूजा

वह पार्टी से होकर रात में देर से घर पहुँचा । सुबह पत्नी ने करवा-चैथ व्रत से सम्बन्धित पूजा के सामानों की सूची दी थी, और साथ में हर हाल में उन सामानों को लाने की हिदायतें भी..., पर काम की अधिकता से वह सामान लाना भूल गया, सो वह डरते-डरते अपने बेडरूम में पहंुचा । पत्नी बिस्तर पर लेटी हुई थी। उसने अपराधबोध से कहा-‘साॅरी डाॅर्लिंग, आज मैं तुम्हारे कहे समानों को नहीं ला पाया ।’
‘‘तुम भी कहाँ वक़्त-बेवक़्त फालतू बातें ले बैठते हो’’, कहकर पत्नी ने एक हाथ से उसका हाथ पकड़कर उसे बिस्तर पर गिरा दिया, और दूसरे हाथ से बत्ती गुल कर दी।

95 मानसिकता

प्रश्न- ‘अ’ और ‘ब’ एक ही काॅलोनी में रहने वाले दो व्यक्ति हेैं । ‘अ’ का एक पुत्र और ‘ब’ की एक पुत्री है । ‘अ’ का पुत्र ‘ब’ को मामा कहता है, और कभी-कभार उसकी पुत्री को बाज़ार कराने ले जाता है, तो ‘अ’ के पुत्र और ‘ब’ की पुत्री के बीच सम्बन्ध निर्धारित कीजिये, जो सर्वमान्य हो ।
उत्तर - उन दोनों के बीच अवैध सम्बन्ध हेै ।

96 समागम

उस नदी में बाढ़ आयी हुई थी।आसपास के ग्रामीणों के लिये सरकार ने जगह-जगह राहत कैम्प लगा रखे थे। कैम्पों में बाढ़-ग्रस्त लोगों को भरपूर भोजन के अलावा दैनिक आवश्यकताओं की अन्य चीजे़ं भी उपलब्ध कराई जातीं। वहाँ पर तैनात अधिकारियों को उपर से सख़्त निर्देश थे कि, कोई भी व्यक्ति वहाँ से पलायन न कर पाये। सभी अधिकारी बड़ी ही मुस्तैदी से इस बात का ध्यान रखते थे कि, वहाँ से कोई पलायन न कर पाये, तो भी एक दिन एक दंपति वहाँ से भागते हुए पकड़ लिये गये । अधिकारियों ने उन्हे फटकारा, यहाँ तुम लोगों को किस बात की कमी है ? साबुन, सोडा, भरपेट भोजन सब कुछ तो मिलता है।
‘पेट की भूख तो मिट जाती है साहब, पर समागम की भूख का क्या करें ?’ उस ग्रामीण ने बड़े ही भोलेपन से प्रतिप्रश्न किया।

97 हार

उस आदमी ने पहले अपनी नवब्याहता पर अपनी विद्वता का रौब गांठना चाहा...औरत मुस्कुराती रही । फिर उसने अपनी आर्थिक संपन्नता का रौब गांठना चाहा...औरत मुस्कुराती रही। फिर उस आदमी ने औरत पर अपनी शारीरिक ताक़त का रौब गांठना चाहा...औरत फिर भी मुस्कुराती रही। आदमी अपनी जीत पर मदमस्त होकर ठहाके लगाने लगा...औरत मुस्कुराती रही। अचानक औरत ने मुस्कुराना बंद कर दिया और कहने लगी-इतना सब होने पर भी तुम मुझे रात में संतुष्ट कहाँ कर पाते हो। इतना सुनते ही आदमी के ठहाकों पर बे्रक सा लग गया। उसे अपनी जीत, हार में परिवर्तित होती नज़र आने लगी । अपने अहम् पर लगी चोट को वह बर्दाश्त नहीं कर पाया, और यह कहकर कि, रण्डी तुझे संतुष्टि चाहिये न, ...ये ले, कहकर औरत को पीटने लगा ।
...औरत अब रोने लगी ।

98 नसीहतें

एक अधेड़ महिला जिसकी जवान लड़की पड़ोस के एक लड़के के साथ भाग गयी थी, ने अपने पड़ोस में नये-नये शिफ़्ट हुए लड़के से कहना प्रारंभ किया-‘सुना है तुमने एक जवान लड़की को काम पर रखा है। ज़रा बचकर रहना, यहाँ की लड़कियाँ चालू क़िस्म की हंै ।’
लड़के ने स्वाभााविक तौर पर हामी भरते हुए कहा-‘‘जी हाँ ! मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है ।’’
...और नसीहतें बंद हो गईं ।

99 जूती

मुझे याद पडता है कि मैंने छुटपन में जब पहली बर जूते पहने, तो उसने मुझे मुझे काट खाये, लेकिन नये जूते पहनने के अहसास ने मेरी पीड़ा को कम कर दिया। उसके बाद में बड़ा होता गया।इस बीच मैंने कई बार नये जूते खरीदे। सभी जूतांे ने मुझे काटा। लोगों को बताने पर वे हंसते हुए कहते कि नये जूते तो काटते ही हैं। वे जूते भी क्या जूते, जो काटे ही न।
आपनी षादी के समय मैंने शेरवानी के साथ पहने के लिए पहली बार एक जूती खरीदी, और जब उसने मुझे काटा, तो मैं पीड़ा से छटपटा उठा। इतने वर्षों तक जूतों से अपने पैर कटवाने वाला मैं, एक जूती का काटना बर्दाश्त नहीं कर पाया। मैं तिलमिला उठा, और उसके बाद मैंने जूती कभी नहीं पहनी।

100 शीर्षासन

शादी के बाद वह चाहता रहा कि उसकी पत्नी पूरी तरह उसी के अनुरूप ढल जाये। वह उसे कठपुतली की तरह बनाना चाहता था। वह चाहता था कि वह जब बोले हँसो, तो वह हँसे। वह जब बाले, रोओ तो वो रोये। उसने अपनी पत्नी को बदलने के लिये तमाम हथकण्डे इस्तेमाल कर लिये। इस बीच बीस वर्ष गुज़र गये। इक्कीसवें वर्ष में उसे समझ में आ गया कि किसी को अपने अनुरूप ढालने से बेहतर है कि खुद को उसके अनुरूप ढाल लिया जाये।
आजकल वह अपनी पत्नी की कठपुतली हो गया है।

101 दŸाक-पुत्री

‘‘ तुम इस फाॅर्म में अपने हस्ताक्षर कर दो।’’
‘ ये कैसा फाॅर्म है?’
‘‘शासन चाहता है कि लोग ग़रीब लडकियों में से कम-से-कम एक एक लड़की को अपनी दŸाक पुत्री स्वीकारें और उसके पढ़ने-लिखने का सारा खर्च वहन करें। चूंकि हम शासकीय कर्मचारी हैं, सो हमारा भी यह सामाजिक दायित्व बनता है कि हम भी लड़कियों को गोद लें।’’
‘ गुरू, तुम्हारी आवक वाली कुर्सी है...तुम चाहो तो सारे ज़िले की ग़रीब लड़कियों को अपनी दŸाक-पुत्री बना सकते हो, पर मैं...।
‘‘ज़रा कान इधर लाना। उन लड़कियों की सूची में कुछ जवान लड़कियां भी हंै।’’ (फुसफुसाता हुआ स्वर)
अच्छा ऐसा है क्या...तो ये बात तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताई!...ख़ैर लाओ मैं सूची देखकर सभी जवान लड़कियों को अपनी दŸाक-पुत्री बना लेता हूं।

102 सुविधाजनक

क्योंजी मैंने सुना है कि शादी के पहले बहुत सी लड़कियों के साथ आपके सम्बन्ध थे। खूब चिट्ठी-पत्रियां आती थीं।
अरे नहीं भई। साहित्यकार होने के नाते मेरे पास बहुत सी लड़कियों की चिट्ठियाँ आती थीं, लेकिन मेरा उनसे किसी भी क़ि़स्म का कोई सम्बन्ध नहीं था।
तब तो ठीक है...नहीं तो मैं आपको कभी माफ़ नहीं कर पाती
(कुछ दिनों बाद...)
सुनियेजी आपका एक इंजीनियर दोस्त है न, वह मेरी बहन के लिए ठीक रहेगा ज़रा उसपर दबाव बनाओ न।
अरे भई, वह लड़का ठीक नहीं है। इंज़ीनियर है, तो क्या हुआ, वह एक लूज़-कैरेक्टर का आदमी है। उसके तो कई लड़कियोें से सम्बन्घ हैं। तुम्हारी बहन के लिए वह ठीक आदमी नहीं है।
अब आप बहानेबाजी करने लगे। आप तो चाहते ही नहीं कि मेरी बहन अच्छे घर में जाये। जब से बेचारे को लूज़-करेक्टर कह रहे हो। अरे भई शादी के पहले तो यह सब सामान्य सी बात है।

103 हिजड़ा -2

‘‘हाय-हाय चिकने...हमको पाइ्रसे दे, और हम हिजड़ों से आसीस ले ले। हमारी जबान कभी खाली नहीं जातीं। तुझे एक परी सी दुलहन मिले, जिसे तू रानी बनाकर रखे।’’
‘मुझे तो परी सी एक दुल्हन मिल चुकी थी, जो मुझे छोड़कर किसी दूसरे के साथ भाग गयी।’
‘‘तो तू यहाँ बैठा क्या मरा रहा है। चल हमारे साथ, तू भी ताली बजा।

104 जिन्न

आदिम युग में सभी इंसान एक साथ रहते थे। वे साथ-साथ शिकार करते और साथ ही खाते -पीते । इंसानों मंे एकता जैसे मानवीय गुणों को देखकर शैतान का ख़ून खैलता था । उसने इंसानों मे फूट डालने की सोची, और अलग-अलग बोतल मे अलग-अलग धर्म के जिन्नों को बंद कर, वह उन बोतलांे को जंगल में छोड आया ।
अगले दिन शिकार करने के लिये जंगल पहंुचे इंसानो को बोेतलें दिखीं। उन्होंने बोंतलों का बंटवारा कर लिया, और घर वापस आ गये। जिज्ञासु प्रव्त्ति के इंसानों ने घर पहुंचते ही बोतलें खोल लीं । बोतलों के खुलते ही जिन्न बाहर निकल आये, और फिर उन इंसानों में प्रविष्ट कर गये। तब से इंसान, इंसान न रहकर अलग-अलग धर्मावलम्बी हो गया है।

105 गति

‘‘मैंने कल तुम लोगोें की रेस देखी। तुम लोग अपने मालिकों के लिये जिस इच्छाशक्ति और समर्पण के साथ दौड़ लगाते हो, उसके सामने तो हमारी वफ़ादारी का गुण भी बौना नज़र आता है।‘‘ अस्तबल के पास घूमते हुए एक कुत्ते ने रेस में भाग लेने वाले एक घोड़े से कहा।
‘नहीं भाई ऐसी कोई बात नहीं है। इच्छाशक्ति और समर्पण जैसी बातांे का हमारे लिये कोई अर्थ नहीं है। दरअसल हार के बाद मिलने वाली सज़ा का डर हमें गति प्रदान करता है।‘ घोडे़ ने खुलासा किया।

106 विघ्नसन्तोषी -1

तेज़ कदमों से आॅफ़िस जाते हुए मेरे कदम एक जगह लगी भीड़ को देखकर रूक गये। मैंने देखा कि दो आदमी एक-दूसरे का काॅलर पकड़े आपस में गाली-गलौज़ करते हुए लड़ रहे हैं।
और लोगों की तरह मैं भी रूककर उन्हेें देखने लगा, और उनके बीच झगड़ा बढ़ने का इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर बाद मुझे लगने लगा कि निश्चित तौर पर दोनों में से कोई एक चाक़़ू निकालेगा, या हो सकता है पिस्तौल ही निकाल ले। यदि ऐसी स्थिति बने तो मैं क्या करूंगा। क्या बीच-बचाव करूंगा, या सरपट भाग लूंगा। मैं यह सब सोच ही रहा था कि दोनों ने एक-दूसरे का काॅलर छोड़ दिया, और एक दूसरे को गाली देते हुए अपने-अपने रास्ते चले गये। तमाशबीनों की भीड़ भी छँट गई। मैं भी बड़बड़ाते हुए निकला-साले हिजड़ोें को लड़ने का भी शऊर नहीं है। फोकट में टाइम बरबाद कर दिया, जबकि मुझे आज आॅफ़िस जल्दी पहुंचना था।

107 रेट

उस्ताद-जमूरा।
जमूरा-जी उस्ताद।
उस्ताद-तू अख़बार पढता है कि नहीं ?
जमूरा-पढता हंू उस्ताद ।
उस्ताद -तो बता आज क्या पढ़ा?
जमूरा-उस्ताद आज मैंने एक नेता का बयान पढ़ा कि उसे दूसरी पार्टी मे जाने के लिए दो करोड़ रू का लालच दिया गया, लेकिन अपनी पार्टी के प्रति आस्था होने के काण उसने पार्टी नहीं छोडी।
उस्ताद -इसका मतलब तुझे मालूम है ?
जमूरा- नहीं उस्ताद ।
उस्ताद-अबे वो टटपूंजिया नेता अपनरा रेट दो करोड़ बता रहा है, ताकि यदि बिकने का प्रोग्राम बने तों कम से कम उन्हें इतना रेट तो मिल ही जाये। रही बात आस्था की तो जान ले बेटा राजनीति में आास्थाएं कपड़ों के समान बदली जाती हैं।
जमूरा- उस्ताद आपको तो पाॅलिटिक्स में होना था ।
उस्ताद- अबे मैं वहीं से तो हकाला गया हंू।

108 माँ

एक गर्भवती कुतिया को हम लोग कभी-कभार रात का बचा हुआ खाना दे दिया करते थे। समय आने पर उसने बच्चे जने। बच्चों को दूध की आपूर्ति लगातार होती रहे, सोचकर वह कुतिया थोड़ी -थोड़ी देर बाद खाने की आस में हमारे घर पर आ जाती, और निराश होकर चली जाती। कुछ ही दिनों बाद वह अपने बच्चों के साथ आने लगी, और उन्हें कुछ दे देने का मूक निवेदन सा करने लगी।
आज उसके बच्चे बड़े हो गये हैं। वे हमारे आँगन में खाने के लिए झगड़ते रहते हैं, और अपनी माँ को तो आँगन में फटकने तक नहीं देते ।

109 बाज़ार -1

उस शहर के मुख्य बाजा़र में जड़ी-बूटी की एक स्थापित दुकान थी। नाम था अग्रवालजी की दुकान। कुछ वर्षों के बाद उस दुकान के आस-पास, जड़ी-बूटी की चार-पाँच दुकानें और खुल गईं। सभी ने बोर्ड लगा लिया अग्रवालजी की दुकान। स्थापित दुकानदार ने अपने बोर्ड में लिखवाया-असली अग्रवालजी की दुकान, तो दूसरे दुकानदारों ने भी लिखवा लिया-असली अग्रवालजी की दुकान। थक-हारकर असली अग्रवालजी जी ने बोर्ड में अपना नाम डालते हुए लिखवाया-रघुनन्दनलाल अग्रवालजी की दुकान, तो बाक़ी दुकानदारों ने एक कदम आगे बढ़ते हुए लिखवाया-असली रघुनंदनलाल अग्रवालजी की दुकान।

110 बाज़ार -2

‘‘अभी तो बाज़ार में टमाटर इतने सस्ते हैं कि एक रूपये किलो, या रूपये में दो किलो तक मिल रहे हैं, और तुम ये सौ ग्राम टमाटर सूप के पाउच का पैकेट पच्चीस रूपये में खरीद लाये हो। बेवकूफ़ कहीं के...।’’
‘इसमें बेवकूफ़ी वाली क्या बात हैं ? हम इसे तब पियेंगे, जब बाज़ार में टमाटर की क़ीमतें आसमान छूने लगेंगी।’

111 ज्ञान ले लो...

मेरे पास ज्ञान का अकूत भण्डार था। इस भण्डार में सभी प्रकार का ज्ञान था। मैं रोज़ सुबह इन्हें पोटलियों में भरकर पीठ पर लाद लेता, और रास्ता चलते हुए लोगों को ज्ञान बाँटता चलता। चूंकि ज्ञान बाँटने से ज्ञान बढ़ता है, इसलिये मेरा भण्डार बढ़ता चला गया, और मैं उसे और उदारता के साथ बाँटने लगा। एक दिन मैंने एक आदमी के सामने आपनी पोटली खोली, और उसे सभी विषय से संबंधित ज्ञान देने लगा अचानक वह आदमी उखड़ गया, और मुझसे कहने लगा, चलो दफ़ा हो जाओ यहाँ से । मैंने चुपचाप अपनी पोटली समेटी और बोझिल कदमों से वापस लौटने लगा। अब ऐसा अक़सर होने लगा। लोग मुझे देखकर कन्नी काटने लगे। अचानक मुझे मेरे अंतज्र्ञान ने कहा-बेटा अब ज्ञान बाँटने का नहीं, बेचने का समय आ गया है।
अगले दिन से मैंने ज्ञान बेचना शुरू कर दिया। आज मेरा कारोबार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रहा है। मेरी कई शाखाएं खुल गयी हैं। आप लोग तो जानते ही होंगे प्रबंधन गुरू, योग गुरू, आध्यात्म गुरू, प्रवचन गुरू आदि मेरी अगणित शाखाओं के बारे में...।

112 दुकानदारी -2

उस देश में बन्द का आयोजन मामूली सी बात थी। छोटी-छोटी बात पर बन्द का आव्हान कर दिया जाता था। बन्द के दौरान दुकानें, जबरिया बन्द करायी जाती थीं, और अख़बारों में छपवाया जाता था कि बन्द स्वस्फूर्तः रहा। देश में कभी सŸाापक्ष द्वारा, तो कभी विपक्ष द्वारा बन्द कराया जाता था। ऐसे ही एक बन्द के दौरान ज़बरदस्ती बन्द कराने गये एक राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्Ÿाा से एक दुकानदार और वही खड़े हुए कुछ मजदूरों ने पूछा-भला बन्द से क्या हासिल होता है, सिवाय नुक़सान के ? इस पर उस कार्यकर्ता ने कुटिल मुस्कुराहट के साथ कहा-बन्द के दौरान हमारी दुकानें खुल जाती हैं। अब क्या करें...अपनी-अपनी दुकानदारी है भाई।

113 बाज़ारीकरण

क्या यार आज़ादी के दिन भी मुंह लटकाये घूम रहे हो। कम-से-कम आज के दिन तो हममें देशभक्ति का जज़्बा ठाठें मारना चाहिए। मुझे देखो...मैं तो चार दिन पहले से ही तैयारियों में जुट जाता हूँ । सबसे पहले बाज़ार जाकर खादी के कपड़े खरीदता हूँ। आजकल तो बाज़ार में खादी कई वेरायटियों में उपलब्ध हैं। कपड़े खरीदने के बाद मैं झण्डे खरीदता हूँ...घर के सभी सदस्यों के लिये एक-एक । इस बार तो मैंने अपने बच्चे के लिये तिरंगे वाली शर्ट खरीदी है। वाक़ई यार, तिरंगे के ओपन इस्तेमान ने बाज़ार में नयी रौनक़ ला दी है।
मुआफ़ करना दोस्त...मुझे देशभक्ति के बाज़ारीकरण या बाज़ार के देशभक्तिकरण पर कुछ नहीं कहना है।

114 ग़्ाुलामी
‘‘तुम्हारी अर्ज़ पर हमने तुम्हें आज़ाद कर दिया था, और तुम फिर हमारे ही पास लौट आये हमारी ग़ुलामी करने। आख़िर क्यों ?
हुजूऱ, मैं आपसे तो आज़ाद हो गया था, पर अपनी ग़ुलामी वाली मानसिकता से आज़ाद नहीं हो पाया। कृपया मुझे आप फिर से अपना ग़़ुलाम बना लें।
युग निर्माण
वह एक सुधारक था, जो एक नये युग का निर्माण करना चाहता था। इसके लिये ज़रूरी था कि सोते हुए लोगों को जगाया जाये। सबसे पहले उसने लोगों के सिरों को सहलाया और बड़े प्यार से कहा-उठो। लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। उसने उन्हें झिंझोड़कर उठाना चाहा, इसपर वे लोग थोडे़ कुनमुनाए और फिर ओढ़-ढांककर सो गये। अब उससे रहा नहीं गया। उसने उन पर पानी उड़ेल दिया। इस पर वे सारे के सारे एक साथ उठ गये, और उस सुधारक को ही हरदम के लिये सुला दिया।

115 कुनैन

वाकई यार, आजकल शराफ़त का जमाना ही नहीं रह गया है। लोग शरीफ़ आदमी की शराफ़त को उसकी कमज़ोरी समझने लगते हैं।
बंधुवर, आजकल कमज़ोर आदमी ही शरीफ़ है।

116 श्रेय

वो बुढ़ऊ, जिससे तुम बातें कर रही थीं, कौन था ?
वे हमारे प्राचार्य रह चुके हैं। मैंने उन्हीं से अनुशासन, कर्Ÿाव्यपरायणता और सिद्धान्तवादिता का पाठ पढ़ा है।
मतलब तुम्हारे बिगड़ने का सारा श्रेय उसे ही जाता है।

117 उपलब्धियाँ

‘मैंने हमेशा बिन्दास जीवन जिया है। शादी के बाद मैंने अपने नकारा पति को भी छोड़ दिया। मैं कभी किसी की परवाह नहीं करती, कि कौन या बोल रहा है। आई डोण्ट केयर।’
‘‘मैं अपनी उपलब्धियाँ खुद हासिल करने में विश्वास करती हूँ । मैं शुरू से ही पढ़ाई में अव्वल रही हूँ, और आज अपने पैरों पर खड़ी हूँ। मेरी सबसे बड़ी यही उपलब्धि यही है। मेरा पति घर के काम में मेरा बिल्कुल भी सहयोग नहीं करता था, इसलिये मैंने उससे तलाक़ ले लिया।’’
‘‘‘मैं अपने पति द्वारा दी गयी शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना को लगातार झेले जा रही हूँॅ, और आजतक परित्यक्ता या तलाक़शुदा नहीं हूँ। मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि यही है।’’’

118 लोकतंत्र -2

उस देश में लागू राजशाही से वहाँ की जनता त्रस्त थी, और क्रांति के लिये पूरी तरह तैयार थी। राजा को गुप्तचरों से यह जानकारी मिली, तो उसने राजगुरू से सलाह ली। राजगुरू ने पहले ही अपने स्तर पर सर्वे कराकर यह पता लगा लिया था कि प्रजा लोकतंत्र चाहती है। राजगुरू की सलाह पर राजा ने अपना गेटअप चेंज कर लिया। उसने अपने राजसी वस्त्र और ताज़ उतार फेंके, और खादी धारण कर लिया। साथ ही टोपी भी पहन ली और खुद को प्रजा का सेवक घोषित कर सबसे विनम्रता से पेश आने लगा। राजा का यह बदला हुआ रूप देखकर प्रजा गद्गद् हो उठी और उससे सत्ता में बने रहने का निवेदन किया ।
अब राजा प्रधानमंत्री, राजदबारी मंत्री और राजकर्मचारी, प्रशासनिक अधिकारी कहलाने लगे।

119 चिन्ता -2

‘‘सुनियेजी, हम एक ही बच्चा रखेंगे, और उसी का पालन-पोषण ठीक ढंग से करेंगे। मैं अपने इस बच्चे के प्यार में किसी क़िस्म का बँटवारा नहीं करना चाहती। वैसे भी तुम्हारी कोई उपरी आमदनी तो है नहीं, कि हम एक से ज़्यादह बच्चे के बारे में सोचें।’’
‘ये बातें तो तुम अपनी कुण्ठा के चलते कह रही हो। तुम्हारे पाँच-छः भाई-बहन रहे, और तुम्हारी तरफ़ ध्यान नहीं दिया गया, इसीलिये तुम ऐसा कह रही हो।’
‘‘अजी ऐसी कोई बात नहीं है। क्या आपको मालूम नहीं है कि देश की जनसंख्या कितनी तेज़ी से बढ़ रही है। हमें परिवार-नियोजन करवाकर राष्ट्र के विकास में योगदान देना चाहिये।’’
‘बच्चों का बढ़ना राष्ट्र के विकास में उतना बाधक नहीं है, जितना उपरी आमदनी का बढ़ना...समझीं।’
देखिये फ़िलहाल मैं आपसे बहस करने के मूड में नहीं हूँ।

120 इकलौता

(बच्चे की शैशवावस्था में...)
पति-क्यों तुमने अपने बच्चे के लिये फिर खिलौना कार खरीदी।
पत्नी-अजी हमारा एक ही तो बच्चा है। बेचारा कार देखकर बड़ा आकर्षित हो रहा था।
पति-लेकिन पन्द्रह-बीस खिलौना कारें तो पहले ही घर में पड़ी हुई हैं। भई, खर्च करने के पीछे कोेई लाॅजिक होना चाहिए।
पत्नी-अजी लाॅजिक-फाॅजिक छोड़िये। हमें अपने बच्चे की ख़ुशी देखनी चाहिये। आख़िर हमारा एक ही तो बच्चा है।
(कुछ दिनों बाद...)
पति-तुम बच्चे को ये क्या फालतू की चीजें़ खिला रही हो ? क्या तुम्हें मालूम नहीं कि बच्चों को बाजा़र की चीजे़ें नहीं खिलानी चाहिये ?
पत्नी-अजी, बच्चा ज़िद कर रहा था, सो मैं इसे यह खिलाने बैठ गयी। अख़िर हमारा एक ही तो बेटा है।
(बच्चे की किशोरावस्था में...)
पति-मैंने सुना है कि हमारा बेटा आजकल स्कूल में गुण्डागर्दी करने लगा है, और अपने साथियों की पिटाई करता रहता है।
पत्नी-अजी, आज के ज़माने में गुण्डागर्दी बहुत ज़रूरी है, नहीं तो लोग हावी होने लगते हैं। मैं अपने बच्चे को आपके जैसा दब्बू नहीं बनाना चाहती...समझे आप ?
(बच्चे की बालिग़ अवस्था में...)
पति-लो भई...तुम्हारा इकलौता बेटा जे़ल चला गया।
पत्नी- हाय-हाय, सब तुम्हारे कारण है। तुम निहायत ही ग़ैरज़िम्मेदार आदमी हो, जो इकलौते बेटे की तरह ध्याान नहीं देते रहे। जाइये अब जमानत की व्यवस्था करिये...आख़िर हमारा एक ही तो बेटा है।

121 बाज़ार -3

मंैने सरकार से प्रश्न किया-मुझे एड्स नाम की बीमारी से बहुत डर लगता है। इससे बचने के लिए मुझे क्या करना होगा ? इस पर सरकार ने उŸार दिया-बस निरोध का प्रयोग करना होगा । और हाँ ,अनैतिक यौन-सम्बन्धों से बचने की कतई ज़रूरत नहीं है। सिर्फ़ और सिर्फ़ निरोध का प्रयोग करना होगा। हमारे देश के बाज़ारों में सभी ब्राण्ड्स के निरोध उपलब्ध हैं।
और मुझे अचानक देश की महानता पर यक़ीन हो गया।

122 शुतुरमुर्ग़

उस देश पर पड़ोसी देश ने कई हमले किये। पहले हमले पर उस देश के राजा ने उस पड़ोसी देश की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। दूसरे हमले पर कायरतापूर्ण कार्रवाई कहकर कड़े शब्दों में चेतावनी दी, और तीसरे हमले पर अपने सब्र का बांध टूट जाने की बात कही। इस बीच राजा की मृत्यु हो गई और नये राजा का राज्याभिषेक हुआ। कुछ दिनों बाद ही पड़ोसी देश ने फिर हमला किया। नये राजा ने फिर अपनी परम्परा का निर्वाह करते हुये कड़े शब्दों में भत्र्सना की। कायरतापूर्ण कार्रवाई कहा, साथ ही सब्र का बांध टूट जाने की बात भी कही।
...और आख़िरकार उस देश पर पड़ोसी देश का कब्ज़ा हो गया।

123 अभिशप्त

रेलवे स्टेशन की टिकट-खिड़की का एक दृश्य-
खिड़की पर टिकट लेने वालों की एक लम्बी लाइन लगी हुई है। एक सूटेड-बूटेड आदमी, जिसकी ऊंगलियों में सोने की अंगूठियाँ दमक रही हैं, हाथ मेें ब्रीफ़केस लिये हुए आता है, और लाइन में खडे़ न होकर सीधे खिड़की पर जाकर रोबदार आवाज़ में टिकट माँगता है...और टिकट लेकर हिक़ारत भरी नज़रों से लाइन में खड़े हुए लोगों को देखते हुआ निकल जाता है।
कुछ देर बाद दो महिलाएँ आती हैं, और वे भी सीधे खिड़की पर पहँुचकर टिकट लेने लगती हैं। अब लाइन में थोड़ी सुगबुगाहट शुरू होती है-खिड़की पर तो स्पष्ट लिखा हुआ है कि महिलाओं के लिए अलग से लाइन नहीं हैं।’ सुगबुगाहट बढ़ने पर एक और आवाज़ स्पष्ट सुनायी पड़ती है-‘जब अधिकारों की बात आती है तो कहती हैं कि हमें पुरूषों की बराबरी चाहिए, और यहाँ लाइन में खड़े होने में फटती है।
महिलाएँ भी टिकट लेकर बड़बड़ाती हुई निकल जाती हैं। थोड़ी देर बाद औसत कद-काठी का साधारण सा आदमी आता है और वह भी सीधे खिड़की पर पहँुच जाता है। इस पर पहली आवाज़ आती है- ‘अरे भई लाईन से आओ’। तो भी वह वहीं खड़ा ही रहता है। तभी दूसरी आवाज़ सुनायी पड़ती है-ओ सामने वाले भइया, उस आदमी को खिड़की में हाथ मत डालने देना। उसी समय तीसरी आवाज़ सुनायी पड़ती है-ओ टिकट देने वाले भाईसाहब। लाईन में लगे हुओं को ही टिकट दो। तीसरी आवाज़ के पूरी होते ही चैथी आवाज़ भी सुनायी पड़ती है-हम क्या चूतिया है,ं जो इतनी देर से लाईन में खडे़ होकर मरा रहे हैं।
आख़िरकार वह आदमी भी धक्का-मुक्की कर टिकट लेने में सफल हो जाता है, और थोड़ा ठहरकर लाइन में खड़े हुए लोगों पर व्यंग्य भरी नज़रें डालता हुआ झटके से निकल जाता है।
उधर चूतियापा झाड़ने को अभिशप्त वह लाइन वहीं ठिठकी सी खड़ी रह जाती है।

124 विध्नसन्तोषी -2
मुहल्ले में आवारा कुŸो खेल रहे हैं। नर-मादा-पिल्ले सभी खेल रहे हैं ।खेल-खेल में एक-दूसरे को पटकनी दे रहे हैं। एक-दूसरे को चाट रहे हंै। एक-दूसरे का पैर खींच रहे हंै। मुंह मे कुछ दबाये तेज़ी से दौड़ रहे हंै। सरपट भाग रहे हैं। फिर वापस आ रहे हैं...फिर जा रहे हैं। मैं यह दृश्य देख रहा हूँ...लगातार देख रहा हूँ। मैं अचानक उठता हूँ, और किचन से एक बासी रोटी लाकर उनके बीच डाल देता हूँं।
...अब कुŸो आपस में भयंकर तरीके से लड़ रहे हैं, और मेरे चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट तैर रही है।

125 कब्ज़ा

पापा, मुझे ये नूडल्स खरीदकर दो न।
नहीं बेटे ये जंक फूड हंै। इनको खाने से सेहत ख़राब होती है।
मम्मी, आप खरीद दीजिये न।
बेटे, पापा ठीक कह रहे हंै। इससे वाकई सेहत ख़राब होती है।
पर मम्मी, टीवी, रेडियो और पेपर वाले तो विज्ञापनों में दिनरात इन्हें पौष्टिक बताते हैं।
बेटे, ये विज्ञापन झूठे होते हंै। अपना सामान बेचने के लिए कम्पनियाँ झूठ बोलती हैं।
नहीं मम्मी, ये हो ही नहीं सकता। आप लोग अपना पैसा बचाने के लिए झूठ बोल रहे हैं।

126 विरोध

दारू के दलालों को,
जूते मारो सालों को।
अभी तो ये अंगडाई है,
आगे और लड़ाई है।
हमने मन में ठाना है
दारू-भट्ठी हटाना है।
इस बीच-बस्ती से हम दारू-भट्ठी हटाकर रहेंगे...हटाकर रहेंगे।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद...
तपती दुपहरी में इतना जोशीला भाषण, उसे पे्ररित कर रहा था कि वह भी वहां जाये, और इस नेक काम में कम-से-कम उपस्थित रहकर ही सहयोग दे।
वहाँ पहुंचने पर उसने देखा कि दारू-भटृठी के सामने एक शामियाना लगा हुआ है, जिसमें एक भी आन्दोलनकारी नहीं है। और जोश़्ाीले भाषण का सिर्फ़ टेप ही चल रहा है। वह झुंझलाता हुआ वहां से निकला। अबतक भाषण समाप्त हो गया था। टेप चलाने वाले ने देशभक्तिपूर्ण गाने का कैसेेट लगा दिया था।वापस लौटते हुए उसे गाने की आवाज़ सुनाई दी-
हर करम अपना करेंगे, ऐ वतन तेरे लिये,
दिल दिया है जां भी देंगे, ऐ वतन तेरे लिये।

127 थिगडा

‘सर, न जाने कितने ही डिफ़ेक्टिव लाॅट्स हमारे गोदामांे में पड़े सड़ रहे हंै। हम ऐसा करते हंै कि डिफ़ेक्टिव कपडों की सेल लगाकर उसे खपा देते हैं। बस इसके लिये विज्ञापनों में खर्च करना होगा।’
तुम तो यार पूरी डिफ़ेक्टिव मानसिकता के आदमी हो। अरे ऐसी सेल में तो लोग मुंह चुराते हुए पहुँचते हैं और मंुंह चुराते हुए ही निकल जाते हैं। तुम ऐसा करो समस्त प्रचार-माध्यमों से प्रचार करो कि हमारी कम्पनी जो कि शत्-प्रतिशत् एक्पोर्ट करने वाले उत्पाद बनाती है, गांधी-जयन्ती के उपलक्ष्य में देश की जनता को एक्सपोर्ट क्वालिटी के कपड़े, सस्ती दरांे पर उपलब्ध करायेगी ।
और सुनो छोटे डिफेक्ट पर गांधीजी के चित्र के और बडे डिफेक्ट पर झण्डे वाले कपड़े के थिगड़े लगा दो।


128 टैलैण्ट-हण्ट

उस देश के राजा को टी.वी. देखने का बड़ा ही शौक़ था । एक दिन उसे सूझा कि टैलैण्ट-हण्ट कार्यक्रमों के माध्यम से प्रधानमंत्री एवम् अन्य मंत्रिगणों तथा दरबारियों का चयन किया जाये। इसके लिए टी.वी. चैनलों एवम् और विज्ञापन एज़ेन्सियो की मदद ली गयी। मंत्रीगणांे के चयन के लिये ‘लाॅफ़्टर चैलैंज’़ का आयोजन किया गया। क्योंकि यह माना गया कि उन्हें जोकर प्रवृŸिा का होना चाहिये, जो हँसा-हँसा कर लोगांे को विभिन्न समस्याओं से दूर रख सकें। प्रधानमंत्री पद के लिये ‘काॅमेडी का बाप’ नामक कार्यक्रम रखा गया। दरबारियो के चयन के लिए ‘सस्ती, म्यूज़िक और झूम’ नामक कार्यक्रम रखा गया, जो पूरी तरह दरबारी और जैजैवन्ती राग पर आधारित था, क्योंकि दरबारी होने की पहली शर्त जी-हुज़ूरी मानी गयी। टी.वी.-क्रिकेट से प्रेरित होकर राजकर्मचारी बोली लगाकर खरीदे गये। सभी पदों पर बाक़ायदा महिलाओं के लिए आरक्षण भी रखा गया और उनके चयन के लिए ‘स्माॅर्ट कुमारी’ और स्माॅर्ट श्रीमती जैसे कार्यक्रम रखे गये।
इस तरह उस देश के मंत्रि-मण्डल का गठन हो गया। अब इन प्रतिभावान लोगांे ने यह सोचकर कि हम प्रतिभाशाली लोगांे के बीच में इस प्रतिभाविहीन राजा का भला क्या काम है, उन्होंने राजा को हटा दिया। और उस पर महाभियोग लगाकर उसे फांसी दे दी गयी।

129 जनहित

एक लोकप्रिय समाचार-चैनल द्वारा स्ट्रिंग आपरेशन कर उसकी सी.डी. तैयार कर ली गई। सŸाापक्ष का एक बड़ा लीडर दलालों से पैसे लेते हुए कै़मरे में क़ैद था। सŸाापक्ष ने चैनल से सौदबाजी की, और चैनल ने घोषणा कर दी कि जनहित में सी.डी. प्रसारित नहीं की जा रही है। इलेेक्शन नज़दीक ही थे, कि अचानक चैनल की विपक्ष के साथ सौदेबाज़ी हुई और सी.डी. को जनहित में प्रसारित कर दिया गया।

130 दूनी हैसियत

उस आदमी ने पचास प्रतिशत् डिस्काउण्ट वाली दुकान से आठ सौ रूपये के जूते खरीदे, जो पचास प्रतिशत् डिस्काउण्ट के बाद उसे चार सौ के पडे़। वह जूते पहनकर घूमता रहा। लोगों के लाख टोकने पर भी उसने अपने जूतों से क़ीमत का टैग नहीं निकाला, जिसमें जूते की क़ीमत आठ सौ रूपये लिखी हुई थी। जूते को उसने उसके फटते तक पहना। और आख़री तक टैग नहीे निकाला ।
...इस तरह वह आदमी अपनी हैसियत से दूनी हैसियत का आदमी बना रहा।

131 प्यार -2

उसके पड़ोस में एक निहायत ही ख़ूबसूरत औरत रहती थी। उसने उसे पटाने के लिए अपनी समस्त कलाओं का प्रयोग कर लिया और आख़िर में उसने उसे पटा भी लिया। वह हमेशा यही मानता रहा कि उनके बीच सिर्फ़ और सिर्फ़ दैहिक आकर्षण ही है।
एक दिन उसने उसे एक अन्य पुरूष के साथ आपŸिाजनक मुद्रा में देख लिया, तो उसके तन-बदन में आग़ लग गयी, और उसने उस औरत से पूरी तरह सम्बन्ध खत्म कर लिया।
अचानक उसे इस बात का अहसास होने लगा कि वह तो उस औरत से प्यार करने लगा था।

132 बाज़ार -4

ग्राहक- भाई-साहब, मुझे एक यूज़ एण्ड थ्रो पेन देना...यही कोई एक-दो रूपये वाली।
दुकानदार-ये लीजिये साहब, ये बहुत अच्छी पेन है। यह एक नामी ब्राण्ड है। इसके जैसी स्मूथ चलने वाली पेन आपको कहीं नहीं मिलेगी। क़ीमत है सिर्फ़ दस रूपये ।
ग्राहक- अरे भाई, मुझे लिखो और फेंको वाली पेन चाहिये...एक-दो रूपये वाली।
दुकानदार- यह लीजिये साहब। यह भी ब्राण्डेड कम्पनी की पेन है। इसकी क़ीमत भी ज़्यादह नहीं है। सिर्फ़ पाँच रूपये की है।
ग्राहक - अरे यार, मैं जब से आपसे कह रहा हूँ कि मुझे लिखो और फेको वाली पेन चाहिए। वह भी एक दो रूपये वाली, तो भी आप मुझे दुनियाभर की पेन दिखा रहे हंै।
दुकानदार- हम आपको बता दें कि हम एक-दो रूपये वाली सड़ियल पेन नहीं रखते हैं।
ग्राहक- मतलब ये कि मेरी औक़ात आपकी दुकान के लायक़ नहीं है।
दुकानदार - सीधी सी बात है।

133 राख -2

एक कलाकार ने क़ौमी एकता का भाव प्रदर्शित करने के लिये एक ही लकड़ी मंे मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारा और चर्च उकेरा । चूँकि उकेरते वक़्त उसने उस लकड़ी की प्रकृति का पूरा ध्यान रखा था, सो मंदिर और मसज़िद छोटे बड़े हो गये। इसी बात को लेकर रात में मंदिर और मस्ज़िद मंे झगड़ा शुरू हो गया और उत्तेजित होकर दोनों ने एक दूसरे में आग़ लगा दी। धीरे-धीरे आग़ की लपेट में गुरुद्वारा और चर्च भी आ गये।
कुछ देर बाद वहाँ सिर्फ़ राख ही बची थी, जो न तो मंदिर थी, न मसज़िद, न गुरुद्वारा और न ही चर्च थी...सिर्फ़ राख थी ।

134 भूख

उस व्यक्ति ने पामेरियन नस्ल की एक कुतिया पाल रखी थी । खाना खाते-खाते जब उसकी कुतिया अघा जाती, तो वह व्यक्ति उसकी जूठन को वहीं पर घूमते एक आवारा कुत्ते को दे दिया करता, और जिस दिन, कुतिया की जूठन नहीं बचती, उस दिन वह उस आवारा कुत्ते को भगा देता, और वह आवारा कुत्ता उस दिन दुबारा फिर उधर नज़र नहीं आता ।
एक दिन कुतिया की जूठन नहीं बची, और उस व्यक्ति ने दरवाज़े पर बैठे उस आवारा कुत्ते को भगाना चाहा, पर वह टस-से- मस नहीं हुआ। उसने उसे पत्थर मारकर भगाना चाहा, पर थोड़ी देर बाद वह पुनः वहीं पर आ बैठा। यह क्रम ज़ारी रहा...। वह कुत्ता फिर से वहीं आकर बैठ जाता।
तभी उस व्यक्ति को याद आया कि कुत्तों के संसर्ग का मौसम आ गया है।

135 लोकतंत्र लागू है

‘‘अपने यहाँ संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में ‘क’ और ‘ख’ दो प्रमुख पार्टियाँ थीं । दोनों ने लगभग बराबर संख्या में सीटंे जीतीं । पार्टी ‘ग’ एक दलित पार्टी है, उसने भी दो-तीन सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी। पार्टी ‘घ’ एक क्षेत्रीय पार्टी है, जिसने एक भी सीट हासिल नहीं की है। शेष जीते हुए निर्दलीय हैं। कृपया निम्नांकित सम्भावनाओं में से सर्वोपयुक्त संभावना कारण सहित बताएँ ।
1. पार्टी ‘क’ की सरकार बनेगी ।
2. पार्टी ‘ख’ की सरकार बनेगी ।
3. पार्टी ‘ग’ सरकार बनेगी ।
4. पार्टी ‘घ’ की सरकार बनेगी ।
5. निर्दलियों की सरकार बनेगी ।
6. कुछ भी हो सकता है ।
उत्तर - कुछ भी हो सकता है।...क्योंकि अपने यहां लोकतंत्र लागू है।

136 हिजड़ा -1

वह दैहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ एक युवक था । उसके मित्रजन उसे इन सम्बन्धों से मिलने वाली स्वार्गिक आनन्द की अनुभूति का अतिशयोक्तिपूर्ण बखान करते। उसका पुरुषसुलभ अहम् जहाँ उसे धिक्कारता, वहीं उसके संस्कार उसे इस ग़लत काम को करने से रोकते थे । इस पर हमेशा उसके अहम् और संस्कारों में युद्ध होता था । एक बार अपने अहम् से प्रेरित हो वह एक कोठे पर जा पहुँचा। वहाँ पर वह अपनी मर्दांनगी सिद्ध करने ही वाला था कि, उसके संस्कारों ने उसे रोक लिया। चँूकि वह संस्कारी था, सो वह वापस आने के लिये उद्यत हो गया, इस पर उस कोठेवाली ने बुरा सा मँुह बनाया, और लगभग थूकने के भाव से बोली-साला हिजड़ा।
बाहर निकलने पर उसके मित्रों ने उससे उसका अनुभव पूछा, इस पर उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। इस पर उसके मित्रों का भी वही कथन था-साला हिजड़ा।
...इतना होने पर भी वह आज संतुष्ट है, और सोचता है कि, वह हिजड़ा ही सही, है तो संस्कारी।

137 वर्गभेद -2

किसी गांव मेें तीन व्यक्ति ‘अ’, ‘ब’, और ‘स’ रहा करते थे, जो क्रमशः उच्च वर्ग, मध्यमवर्ग, और निम्नवर्ग से थे । तीनों ने ही अलग-अलग शासकीय कर्ज ले रखा था । क़िस्तें न पटने पर एक बार उस गांव में वसूली अधिकारियों का दौरा हुआ । सबसे पहले वे ‘अ’ के घर पहुंचे। वहां वे मुर्ग़े की टाँगें खींचते और महुए की श़्ाराब पीते हुए कहने लगे-‘दाऊजी, आपसे तो हम पैसे कभी भी ले लंेगे,...पैसे भागे थोडे़ ही जा रहे हंै। वहां से वे ‘स’ के घर पहुंचे, उसकी दयनीय स्थिति देखकर उनकी आंखें डबडर्बा आइं, और वे उससे बिना कुछ कहे ‘ब’ के घर की ओर चल दिये और वहां पहुंचकर उन्होंने उसे हड़काना शुरू कर दिया-क्यों बे ! पैसे देखकर तेरी नीयत ख़राब हो गई...। लाओ साले की ज़मीन, जो कर्ज़ लेते समय बंधक रखी थी, को नीलाम करते हंै ।
...और नीलामी कि प्रक्रिया शुरू हो गयी ।

138 तीन ठग

सैकड़ों वर्षांे की ग़्ाुलामी-तप से प्रसन्न हो कर प्रभु ने वरदान-स्वरुप भारत को एक लोकतंात्रिक कुर्सी प्रदान कर दी । चँूकि भारत की काया जीर्ण हो चली थी, इसलिये वह उसे कंधो पर बंाधे धीरे-धीरे चलने लगा, तभी सामने से आते हुए तीन ठगों की नज़रें उस कुरसी पर पड़ी । कुरसी देखकर उनके मँुह में पानी भर आया, और वे उसे हड़पने की युक्ति सोचने लगे । आख़िरकार उनके श़्ाातिर दिमाग़ में एक युक्ति आ ही गई । योजनानुसार तीनों उसी मार्ग पर अलग-अलग छिप गये । उनकी उपस्थिति से बेख़बर भारत अपनी मंद चाल से चलता रहा, तभी पहला ठग सामने आकर उससे कहने लगा-क्यूं भाई ! आप ये सम्प्रदायवाद की बेंच को कहाँ लिये फिर रहे हो ? क्रोधित हो भारत ने कहा अंधे हो क्या ? तुम्हंे ये लोकतांत्रिक कुरसी नज़र नहीं आती । ठग हँसता हुआ चला गया । कुछ आगे जाने पर दूसरा ठग सामने आकर कहने लगा-ये जातिवाद की टेबल को कहाँ लादे फिर रहे हो ? भारत ने बैाखलाकर कहा-अरे भई, ये टेबल नही, कुर्सी है । इस पर दूसरा ठग भी हँसते हुए चला गया । कुछ और आगे बढ़ने पर भारत का सामना तीसरे ठग से हो गया । तीसरा ठग ठहाका लगाकर कहने लगा-अरे यार ये क्षेत्रीयता के डबलबेड के पलंग को कहाँ ढोये जा रहे हो ?
अब भारत का आत्मविश्वास भी डगमगा गया । उसने यह सोचकर कि संप्रदायवाद, जातिवाद, और क्षेत्रीयतावाद से तो उसका अहित ही होगा, उसने कुर्सी को फेंकना चाहा । अब कुर्सी सड़क पर थी, पर भारत के कंधों का बंधन पूरी तरह खुला नहीं था, सो वह कुर्सी भारत के साथ घिसटती जा रही थी । अब बारी-बारी से तीनों ठग कूद-कूद कर उस कुरसी पर बैठने लगे।
तब से लेकर आज तक यह सिलसिला ज़ारी है ।

139 अविश्वास

एक घर में तीन व्यक्ति बैठे हुये हंै। पहला उस घर का मालिक, दूसरा उसका एक नज़दीकी मित्र, और तीसरा वो, जो उसके साइड वाले कमरे को किराये से पाने की उम्मीद से उसके नज़दीकी मित्र के साथ आया है। चँूकि उम्मीदवार कंुआरा है, इसलिये मकान-मालिक उसे किरायेदार नहीं बनाना चाह रहा है, पर साथ में नज़दीकी मित्र होने के कारण वह धर्मसंकट में है।
उनके बीच बातचीत का सिलसिला प्रारंभ होता है ।
मकान-मालिक -फ़िलहाल तो मकान किराये पर उठाने का हमारा कोई इरादा नहीं है।
उम्मीदवार -क्यों ?
मकान-मालिक -क्यांेकि उस कमरे की खिड़कियों में पल्ले नहीं लगे हैं, और बिजली का कनेक्शन भी पीछे पोल से है, उसे सामने पोल से लेना है ।
उम्मीदवार -मुझे कोई हर्ज़ नहीं है। मैं चाबी आपके पास ही छोड़ जाया करूँगा, फिर आप चाहे जैसे रिपेयरिंग करवाते रहिये ।
(मकान मालिक सोचने लगता है ये साला ऐसे टलने वाला नहीं,...मुझे कोई दमदार बहाना सोचना चाहिए, तभी उसे कुछ सूझता है।)
मकान-मालिक -हमारे यहाँ हमारे भतीजे भी साथ में रहतेे हैं। उनकी पढ़ाई में ख़लल न पड़े, सोचकर भी हम फ़िलहाल मकान किराये से देने के पक्ष में नहीं हेैं।(इस बीच मकान-मालकिन चाय लेकर आती है)
उम्मीदवार (चाय पीते-पीते)- भाईसाहब, पढ़ाई के मुआमले में तो मैं और भी संज़ीदा हूँ। मंै खुद सिविल सर्विसेज़ की तैयारी कर रहा हँू। ये तो आपके लिये प्लस-प्वांईट होना चाहिये ।
(मकान मालिक फिर सोचने लगता है, साला है तो दिमाग़ का तेज़ पर जब मिसेज़ चाय लेकर आई थी, तो ऐसे घूर रहा था, मानों कच्चा ही चबा जायेगा...इससे स्पष्ट कहना ही ठीक रहेगा।)
मकान-मालिक -यार हम लोग फ़ैेमिली वालों को ही मकान किराये से देने के पक्ष में हैं।
अब उम्मीदवार जाने के लिये निराशापूर्वक उठ खड़ा हो जाता है, क्योंकि उसे मालूम है, उसके चेहरे पर तो उसका चरित्र खुदा हुआ नहीं है, किन्तु जाते-जाते वह कहकर ही जाता है-भाईसाहब, पहले आप मुझे यह बतायें कि आपको मुझ पर भरोसा नहीं है, या अपने आप पर, या फिर अपनी पत्नी पर...।

140 उड़ान

उस बच्ची ने आनंदित होकर अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं । कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ कि वह अपने दोनों पंख फैलाये ऊँची,ं और ऊँची उड़ान भर रही है,...अचानक उसे लगा कि एक बाज उस पर झपट्टा मारकर उसे ज़मीन पर ले आया है, और उसके पंख नोचने लगा है । घबराकर उसने अपनी अँाखे खोल दीं ।
... इस बीच एक दौर खत्म हो गया था । अब वह बच्ची से एक औरत बन गई थी, और समाजरूपी बाज ने उसके पंख नोच लिये थे।

141 अघाया

‘‘साहब, कुछ बासी बचा-खुचा हो तो दे दीजिये, दो दिनों से कुछ खाया नहीं है।’’ उस भिखारी ने बडे़ ही दयनीय स्वरों में कहा ।
‘तुम लोग कुछ काम-धाम तो करना चाहते नहीं...हराम का खाने की आदत जो पड़ी हुई है । चलो भागो यहाँ से..., कहते हुए उसने उस भिखारी को भगा दिया। थोड़ी देर बाद उसने रात का बासी बचा-खुचा खाना अपने कुत्ते के सामने डाल दिया। कुत्ते का पेट भरा हुआ था, सो उसने उस खाने को सूंघा भर और वहीं पास में बैठ गया, और जब भी कोई दूसरा कुत्ता या मुर्गियाँ उस खाने के पास आते, वह दौड़कर खाने के पास पहुँच जाता। इस तरह उस कुत्ते ने उस खाने को न तो खुद खाया और न ही औरों को खाने दिया ।
कुत्ते की हरक़तों को ध्यान से देखते हुए उसका मालिक बुदबुदाया-साले को मेरा असर हो गया लगता है । ख़ैर अघाये मालिक का कुत्ता भी अघाया ही होगा।

142 हम सब एक हैं

आज़ादी के बाद उस देश में लागू लोकतांत्रिक पद्धति में सत्तापक्ष राजशाही की परंपरा चलाने लगा, तो विरोधियों ने लोकतांत्रिक पद्धति से विरोध दर्ज़ कराया, और जनता ने विरोधियों को सत्ता सांैप दी । कुछ महीनों बाद पता चला कि ये भी कुछ कम नहीं हैं, सो अगली बार जनता ने प्रयोग के तौर पर अपराधियों को सत्ता सांैप दी । अब तो अपराधियों को अपराध करने का लायसेंस मिल गया, और देश में ख्ुाले-आम अपराध होने लगे। खीझकर अगली बार जनता ने हिजड़ों को सत्ता सांैप दी ।
आज विभिन्न राष्ट्रीय समारोहों में जनता उन सबको एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए ‘हम सब एक हैं’ का नारा लगाते हुए देखती है ।
...शायद अगली बार जनता ग़ुलामी को ही चुने ।

143 भूल सुधार

एक व्यक्ति ने ईश्वर की तपस्या करते हुए अपनी सारी जवानी निकाल दी। अधेड़ावस्था पार करते हुए वह वृद्धावस्था पर जा पहँुचा, तब कहीं जाकर ईश्वर उस पर प्रसन्न हुआ, और उसने उसे दर्शन देकर पूछा-‘बता तुझे क्या वरदान दँू?’
‘‘प्रभु मेरे मन में तो सिर्फ़ एक नारी देह की कामना ही रह गई है अब तो...’’उस व्यक्ति ने विनीत भाव से कहा ।
‘अरे मूर्ख ! नारी देह तो तू सांसारिक रहकर भी प्राप्त कर सकता था। तूने बड़ी भूल कर दी, जो इसके लिये तप में अपना जीवन निरर्थक कर दिया ।’ ईश्वर ने उसे फटकारा ।
‘‘प्रभु मेरे तप का उद्देश्य कुछ और ही था, पर मुझे अपनी इस भूल का अहसास हो गया है कि, संासारिक जीवन से पलायन कर कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसीलिए प्रभु मंै अपनी भूल को सुधार कर अपना बचा हुआ जीवन सार्थक बनाना चाहता हँू ।

144 नर्वस ब्रेकडाऊन

उस आदमी ने मिट्टी की एक प्रतिमा गढ़ी । अपने शिल्प को वह आत्म-मुग्ध होने के भाव से मुस्कुराकर देखता रहा...देखता रहा । अचानक उसे महसूस हुआ कि, वह प्रतिमा भी मुस्कुराने लगी है। प्रतिमा को मुस्कुराता देखकर वह डर गया और वह उस प्रतिमा के चरणों में सिर झुकाकर बैठ गया । अब आत्म-मुग्ध होने का भाव खत्म हो गया था। उसने उस प्रतिमा के चरणों में बैठे-बैठे ही उपर नज़र डाली, तो वह प्रतिमा उसे अपने विराट-स्वरूप मंे नज़र आने लगी, और वह स्वयं को उसके समक्ष बौना महसूस करने लगा, और उसने उसे सर्वशक्तिमान मानना शुरू कर दिया और एक अनजाने भय से ग्रस्त हो अपनी रक्षा के लिए उसे पुकारने लगा। फिर अचानक उसे महसूस हुआ कि उस प्रतिमा ने उसके सर पर हाथ रख दिया है, अब उसने प्रतिमा की पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी ।
...वह आदमी और वह प्रतिमा आज भी एक दूसरे के आश्रित बने हुए यत्र-तत्र-सर्वत्र नज़र आते रहते हंै ।

145 आदमीपन

कुत्तों की उस अदालत में एक कुत्ते पर मुक़दमा चल रहा था । उस पर आरोप यह था कि उसने अपने मालिक को ही काट खाया था ।
जज के यह पूछे जाने पर कि उसने अपने मालिक को ही क्यों काट खाया, उसने उत्तर दिया- ‘मी लार्ड, मैंने टी.वी. पर न्यूज़ देखी कि ताईवान, सिंगापुर जैसे कुछ देशों में लोग कुत्ते का माँस बडे़ ही चाव से खाते हंै। बस ये देखकर मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया, और मैंने विरोध-प्रदर्शन करने के लिये अपने मालिक को ही काट खाया ।’
‘‘तुमने विरोध प्रदर्शन कर बदले की कार्रवाई की है, और इस तरह तुमने आदमीपन झाड़ा है, जो कि अक्षम्य है अत...’’
‘...मुआफ़ कीजिये आदमीपन मंै नहीं, आप झाड़ रहे हेंै, जो इतना सब होने पर भी मुझे वफ़ादारी का पाठ पढ़ा रहे हंै ।’ कुत्ते ने जज के वाक्य को बीच में काटकर अपनी बात रखी ।
‘‘ख़ामोश! न्यायालय की अवमानना करते हो। अब मेरा फ़ैसला सुनो-‘‘तुमने अपने ही मालिक को काटकर सारी कुत्ता जमात को बदनाम किया है, और साथ ही न्यायालय की अवमानना भी की है, अतः तुम्हें मृत्युदंड दिया जाता है ।’’ जज ने फ़ैसला सुनाते हुए कहा।

146 गोली मार देंगे...

उस दंग़ाग्रस्त शहर में कफ़्र्यू लगा हुआ था । शहर सेना के हवाले कर दिया गया था। दंग़ाइयों को देखते ही गोली मार देने के आदेश थे। एक पत्रकार ने सेना केे मेज़र से जानना चाहा कि वे दंगो़ं को किस तरह से रोकेंगे। इस पर मेज़रसाहब का ज़वाब था- ‘‘यदि दंग़ाइयों ने उत्पात मचाने का प्रयास किया, तो हम उन पर कार्रवाई करेंगें। यदि उन्हांेने किसी के घर में आग़ लगा दी, तो हम उन पर कड़ी कार्रवाई करेंगे, और यदि इससे आगे बढ़कर वे हत्याएँ करने लगें, तो हम उन पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगें।’’
‘आप तो नेताओं की भाषा बोल रहे हंै ।’ पत्रकार ने विस्मित भाव से कहा ।
‘‘भई हम भी क्या करें, लोकतांत्रिक देश के सैनिक जो ठहरे...।’’ मेज़रसाहब ने ज़वाब दिया।
‘तो भी...इस माहौल में जहाँ दंग़ाईयों को देखते ही गोली मारने के आदेश हुए हंै, आपके मँुह से तो एक लाइन में ज़वाब निकलना था-गोली मार देंगे ।’ पत्रकार ने कहा।
‘‘अब आप अपनी बकवास बंद करिये, वरना हम आपको गोली मार दंेगें । मेज़रसाहब ने खीजकर कहा

147 न्याय

उस देश में सरकार का ही एक क़ारिंदा न्यायपालिका का कार्य देखता था। उसकी अदालत में छात्रसंघ चुनावों के दौरान हुई हिंसा में हुई मौतों पर मुक़दमा चल रहा था । तीन पक्षों क्रमशः हिंसक छात्र, काॅलेज़ के प्राध्यापक और छात्रों के पालकों को आरोपी बनाया गया था।
क़ारिन्दें ने मामले में गौर कर न्याय दिया-चँूकि ये छात्र जिन पर क़त्लेआम का आरोप लगा है, छात्रसंघ चुनावों में संलग्न थे, और चूँकि छात्रसंघ चुनाव सरकारी आदेश पर हो रहे थे, अतः ये सभी छात्र सरकारी आदेशों का पालन कर रहे थे, सो इन सभी छात्रों को बाइज़्ज़त बरी किया जाता है, और ये प्रोफ़ेसर्स...चूँकि इनका दायित्व है कि ये हर छात्र को गाँधी जैसे अंहिसावादी बनाते, चूँकि ये अपने दायित्वों को निभाने में असफल रहे हैं, और इनके चलते ही क़त्लेआम हुआ है, अतः इन सभी प्रोफेसरों को फाँसी की सज़ा सुनायी जाती है, और छात्रों के अभिभावकों को चेतावनी देकर छोडा जाता है कि, ये भविष्य में अपने बच्चों को वहीं पर प्रवेश दिलायें, जहाँ गाँधी बनते हों।

148 फ्यूज़न -दो

कई हज़ार साल पहले भारतीय वनों में सभी बंदर मिल-जुलकर रहते थे। उनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं था, सब बराबर थे। अपराधी प्रवृति के बंदरों को तड़ीपार कर दिया जाता था। तड़ीपार किये गये बंदर, दूर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में शरण पा जाते थे।
एक बार तड़ीपार किये गये बंदरों का एक झुण्ड वापस आया, सभी ने टोपी लगा रखी थी। वे बडे़ ही आकर्षक लग रहे थे। उन्होनें बंदरों के बीच लोकतंात्रिक व्यवस्था का ऐसा चित्र खींचा कि भारतीय वनों के बंदरों ने वर्तमान व्यवस्था को नकार कर लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग की, इस बीच अचानक डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत आ गया। बंदर आदमी के रूप में आ गये। टोपीधारी बंदर टोपीधारी आदमी बन गये जो आज तक लोकतंत्र के ठेकेदार बने बैठे हैं।

149 चढ़ावा

एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर से चोरी हुुई प्रतिमा संयोगवश पुलिस ने बरामद कर ली। थाने में प्रतिमा लोगों के दर्शनार्थ रख दी गयी। ख़ूब रुपये-पैसे का चढ़ावा चढ़ने लगा । थानेदार समेत सारा स्टाफ़ भक्तिभाव से पूर्ण हो गया । थानेदार ने देखा कि इस चढा़वे में तो उपर के किसी भी अधिकारी को कुछ देना नहीं पड़ता है। वह रोज उस प्रतिमा से प्रार्थना करता कि, प्रभु आप स्थायी तौर पर यहीं थाने मंे विराजमान हो जाइये । उधर प्रतिमा ने भी सोचा कि वहाँ जीर्ण-शीर्ण मंदिर में तो कोई पूछ-परख नहीं थी । यहाँ तो भक्तों की भरमार है, सो एक दिन थानेदार के प्रार्थना करने पर प्रतिमा ने ‘तथास्तु’ कहकर एक फूल उसके हाथ में दे दिया ।
कुछ दिनों बाद वहाँ थानेश्वर भगवान का मंदिर बन गया ।
अब दोनों ख़ुश हैं ।

150 पोस्टमार्टम

उस राज्य में विपक्षी पार्टी के एक नेता-सह-व्यवसायी की हत्या हो गयी थी। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनांे ही इस बात पर एकमत थे कि, यह राजनैतिक हत्या है। सत्तापक्ष का कहना था कि, यह हत्या जनाधारविहीन विपक्ष द्वारा हवा बनाने के लिये उन्हीं के द्वारा प्रायोजित है, जबकि विपक्ष का कहना था कि, सत्तापक्ष ने उक्त नेता के बढ़ते जनाधार से भयभीत होकर उसकी हत्या करायी है। मक़तूल का बेटा भी चीख़-चीख़ कर सत्तापक्ष को कोस रहा था। संभवतः यह उसके राजनीति में प्रवेश के लक्षण थे, बहरहाल सभी विपक्षी दलों के बीच राज्यबंद को लेकर सहमति बननी ही थी, और एक दिन-विशेष को राज्यबंद का आह्नान कर दिया गया। बंद के दौरान सूनी सड़कों पर बंद दुकानों को कवरेज़ करते हुए एक टी.वी. पत्रकार ने एक आम आदमी से इस हत्या पर उसकी राय जाननी चाही। इस पर उसका कहना था कि, यह राजनीति की, राजनीति के लिये, राजनीति के द्वारा की गई हत्या की राजनीति है।
यह अलग बात रही कि, टी.वी. पर उस आम आदमी के बयान को संपादित कर दिया गया।

दलित क़िस्से-कहानियां-



151 एक गै़र-ज़िम्मेदार आदमी

पूरी तरह से शहरी परिवेश में पले-बढे दलित मिस्टर ‘क’ की नियुक्ति एक ग्रामीण क्षेत्र में ग्राम सेवक पद पर हो जाती है। वे अपनी जाति छुपाकर एक सवर्ण महिला के घर में किराये से रहने लगते हैं। उनका रहना-खाना वहीं होता है। उसी गांव में मिस्टर ‘क’ के ही आॅफ़िस में काम करने वाला एक लिपिक भी रहता है, जिसे उनकी जाति मालूम होती है। उस लिपिक को देखकर मि. ‘क’ का आत्मविश्वास डांवाडोल होने लगता है, और वह लिपिक भी उनकी इस कमज़ोरी को भाँपकर गाहे-बगाहे सौ-पचास रूपये माँग लेता है।
एक बार उस सवर्ण महिला की बेटी की शादी तय हो जाती है, और परिवार के एक सदस्य के तौर पर रहने के कारण सारी ज़िम्मेदारी मि. ‘क’ पर आन पड़ती है। शादी के दिन वे पूरी तरह भाग-दौड में लगे रहते हैं। जब बारातियों को खाना परोसने की बारी आती है, तो अचानक वह लिपिक जिन्न की भाँति प्रकट होकर मि. ‘क’ से कहता है-‘‘अभी तक तो मैंने तुम्हारी जाति के बारे में किसी से कुछ कहा नहीं है, लेकिन यदि तुमने बारातियों को खाना परोसकर उनका धर्म भ्रष्ट किया, तो मुझसे बुरा कोई न होगा। मैं सबके सामने तुम्हारी जाति बता दूँगा। उसकी इस बात से मि. ‘क’ के पैरों तले जमीन खिसक जाती है, और वे विवाह-स्थाल से चुपचाप पलायन कर जाते हैं। इस तरह एक ज़िम्मेदार आदमी बैठे-ठाले गै़र-जिम्मेदार आदमी होने का दर्जा पा जाता है।

152 ग्राम-भक्त की कथा

मि. ‘क’ के मित्रों में एक सवर्ण पशु-चिकित्सक ‘ग’ और एक दलित शिक्षक ‘घ’ भी थे। ये दोनों ही सन्देहास्पद चरित्र के, विवादस्पद व्यक्ति थे। ये दोनों ही मूलतः ग्रामीण परिवेश से थे, और गांव के सीमान्त पर स्थित छुइहा तालाब पर जाकर मंजन घिसना उनकी दिनचर्चा का एक अनिवार्य हिस्सा था। एक शाम वे तालाब पहुंचे ही थे कि, उन्हें दिशा-मैदान से निबटकर आती एक नवयुवती दिख पड़ी। बस फिर क्या था, पशु-चिकित्सक के उकसाने पर शिक्षक महोदय ने उसका हाथ पकड़ लिया। चूॅंकि शाम का धुंधलका घिर आया था, इसलिये वह युवती शिक्षक महोदय को पहचान नहीं पायी, और उसे बाहरी आक्रमणकारी मानकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी। ऐसे ही सुनहरे मौक़ों की तलाश में रहते गाॅंव के शोहदों के कानों तक उसकी आवाज़ पहुंची और वे अपने गांव की इज़्ज़त बचाने को दौड़ पडे़। उधर पशु-चिकित्सक ‘ग’ ने अपने में स्वान के दो गुण विकसित कर रखे थे। पहला सूंघने का गुण और दूसरा दुम दबाकर भागने का गुण। फिलवक़्त अपने स्वान घ्राण गुण का उपयोग किया, और वहां सेे भाग लिये। लगभग एक घण्टे बाद उनकी अन्तर्रात्मा ने उन्हें धिक्कारा कि वे अपने एक मित्र को मुसीबत में छोड़कर भाग आये हैं, और वे टाॅर्च लेकर घटनास्थल पर पहंुचे तो पाया कि मि. ‘घ’ मुंह के बल जमीन पर पड़े हुए हैं, और उनपर ताबड़तोड़ हमले ज़ारी हैं। सुनहरा मौक़़ा जानकर उन्होंने भी ‘घ’ पर आठ-दस लातें जमा दी’ और सिद्ध कर दिया कि लोग भले ही उन्हें सन्देह की नज़रों से घूरें, पर वे एक सच्चे ग्राम-भक्त हैं।

153 अजी नाम में क्या रखा है।

अब यह तो पूरी तरह साबित हो ही गया कि मि. ‘क’ के सवर्ण पशु-चिकित्सक मित्र अव्वल दर्जे़ के मौक़ापरस्त थे। ये मौक़ापरस्त महोदय बस या रेल में सफ़र करते वक़्त इसी जुगत में रहते कि किसी कन्या के समीप ही बैठंे। एक बार नज़दीक के कस्बे से गाँव आते समय बस में उन्हें एक कन्या के समीप ही बैठने का सुअवसर प्राप्त हो गया। संयोगवश उस कन्या के साथ कोई भी नहीं था। इधर मौक़ा सुनहरा जानकर उन्होंने औपचारिक से अनौपचारिक होते हुए कन्या से उसका नाम पूछ लिया। इस पर वह कन्या टालमटोल करने लगी। थोड़ा और ज़ोर डालने पर उसने हीन भावना से भरकर एक दलित सरनेम के साथ अपना नाम बताया-कचराबाई। उधर मौक़े को लपकने की गरज़ से पशु-चिकित्सक महोदय ने डाॅयलाग़ मारा-अजी नाम और सरनेम में क्या रखा है। एक दलित सरनेम जोड़ते हुए उन्होंने कहा मेरा नाम भी तो झाडूराम है। थोड़ी ही देर बाद कचराबाई की मंज़िल आ गयी, और वह उतर गयी। लेकिन उतरने से पहले उसने पश-ुचिकित्सक उर्फ झाडूराम को अपना पूरा पता दे दिया था।
...इस तरह भविष्य में झाडूराम और कचराबाई के मिलन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

154 आपने बुलाया और हम चले आये

कुआँरे मि. ‘क’ को उस सवर्ण बहुल क्षेत्र में नौक़री करते हुए तीन वर्ष हो चुके थे, और इन वर्षों में उनकी किसी लड़की से कोई बात नहीं हो पायी थी। यह तो उस गाँव की परम्परा का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन था। ऐसा नहीं था कि मि. ‘क’ निहायत ही शरीफ़ आदमी थे। वास्तव में अपनी जातिगत हीन-भावना की ग्रंथि के कारण वे किसी कन्या से बात करने का साहस नहीं जुटा जाते थे, जबकि सवर्ण पशु-चिकित्सक एवम् उनके दो अन्य सवर्ण मित्र, उन्हें अपनी बहादुरी के क़िस्से सुना-सुनाकर जलाया करते।
एक बार मि. ‘क’ ने अपने में विद्यमान तमाम साहस बटोरा, और पड़ोस की एक सवर्ण लड़की से औपचारिक बात कर ली। लड़की के हाव-भाव से उनकी हिम्मत बढ़ी, और औपचारिक से अनौपचारिक होते हुए उन्होंने उस लड़की को अपने घर के पीछे स्थित एक पहाड़ी पर पहुँचने का न्योता दे डाला। लड़की मुस्कुराती हुई चली गयी। उधर अपनी इस सफलता पर मुग्ध होकर मि. ‘क’ ने अपनी इस महान् उपलब्धि का ज़िक्र बारी-बारी से अपने तीनों सवर्ण मित्रों से कर दिया। मिलन के निर्धारित समय पर मि. ‘क’ पहाड़ी पर पहुँचे तो, पाया कि उनके तीनों मित्र वहाँ पहले से ही विराजमान हैं।

155 फ़रमान का असर

मि. ‘क’ के मित्रों में एक नया प्रायमरी स्कूल टीचर ‘ड’ शामिल हुआ था, जो कि संयोग से एक सवर्ण ही था। इस बीच शासन से एक फ़रमान ज़ारी हुआ कि अब प्रायमरी स्कूलों में भी अँगरेज़ी अनिवार्य रूप से पढ़ायी जायेगी, और सभी टीचरों को अँगरेज़ी पढ़ाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये राजधानी जाना होगा। प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये मि. ‘ड’ को भी राजधानी जाना पड़ा। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें बताया गया कि बच्चे को यदि कक्षा से बाहर जाना है, तो वह ‘मे आई गो आऊट सर’ कहेगा, जबकि अन्दर आने के लिए वह ‘मे आई कम इन सर’ कहेगा । मि. ‘ड’ ने दोनों ही वाक्य रट लिये। राजधानी से गाँव तक पहुँचने के दौरान उनके मस्तिष्क में ट्रेनों और बसों के धक्कों से ऐसा भूचाल आया कि ये दोनो वाक्य परस्पर गड्डमड्ड हो गये और एक बिल्कुल ही नये स्वरूप में प्रकट हुए-‘‘आई एम ए गाॅट सर’’ और ‘‘यू आर एक कमीन सर...।
...और उन्होंने बच्चों को यही सीखा दिया।

156 यदा-यदा ही धर्मस्य

देश के अधिकांश गाँवों की तरह यह गाँव भी पूरा धार्मिक था। वर्ष में कम से कम एक माह तक यहाँ प्रवचनों की गंगा-जमुना और सरस्वती बहा करती थी। यहाँ प्रवचन करने के लिये पूरे पचास-पचास कोस दूर से शंकराचार्य पधारा करते थे। एक बार मि. ‘क’ भी प्रवचन सुनने पहुँचे और कथित शंकराचार्य का बेसिर-पैर का प्रवचन सुनकर दंग रह गये। प्रवचन के दौरान शंकराचार्य जी बीच-बीच में कह उठते-बच्चा लोग ताली बजायेगा। उसकी इस बात से मि. ‘क’ को पूरा यक़ीन हो गया कि यह शंकराचार्य तो कोई मजमेबाज है। खै़र जिस दिन शंकराचार्य जी को गाँव से रूख़सत होना था, उस दिन गाँव की विधवाओं और परित्यक्ताओं ने रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया, और उस शंकराचार्य जी की गाड़ी के पीछे पाग़लों की तरह दौड़ने लगीं। आख़िरकार एक टेक्टर की व्यवस्था की गयी, और उसमें उन्हें बिठाकर शंकराचार्य जी अपने साथ ले गये।
...इस तरह कुछ दिनों के लिये वह गाँव विधवा और परित्यक्तारहित हो गया, और मि. क के मित्रों के मुँह लटक गये।

157 जैसे को तैसा

मि. ‘क’ के कार्यालय में एक तेज़-तर्रार दलित ग्राम-सेविका थी। वह बला की ख़ूबसूरत थी। उसे देखकर बी.डी.ओ. लार टपकाया करते थे, और उसे अपने साथ दौरे पर ले जाने की फिराक़ में रहते थे। एक बार एक सवर्ण बी.डी.ओ. ने अपनी बीवी की अनुपस्थिति में उसे अपने घर पर बुलाया और बातों ही बातों में उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी इस हरक़त से तिलमिलाई उस ग्राम-सेविका ने उसे ख़ूब भला-बुरा कहा, और उससे बदला लेने की ताक में रहने लगी। इस बीच कार्यालय के एक बाबू की शादी का दिन आ गया, और उसमे सभी लोगों का साथ जाना तय हुआ। यह उस ग्राम-सेविका के लिये बी. डी. ओ. से बदला लेने का सुनहरा मौक़ा था। उसने लोहे की राॅड लगी वाली जूती पहनी, और शादी में पहुँची। उधर सभी लोगों ने छककर खाया और डटकर श़्ाराब पी। उन सभी पर नशा छाने लगा। इस बीच अचानक वह ग्राम-सेविका उठी, और डी.जे. की धुन पर नाचने लगी और बी.डी.ओ. को साथ नाचने के लिये इशारे करने लगी। वह बी.डी.ओ. उस ग्राम-सेविका के साथ नाचने का लोभ संवरण नहीं कर पाया, और उसके साथ नाचने लगा। इस बीच मौक़ा देखकर उस ग्राम-सेविका ने ज़ोर-ज़ोर से बी.डी.ओ. के पैरों पर अपनी जूती से वार करना शुरू कर दिया। नशे की हालत में उस बी.डी.ओ. को कुछ पता ही नहीं चल पाया। अगले दिन उसे पता चला कि उसके तो दोनों पैर फ्रेक्चर हो गये हैं। उसे कुल मिलाकर तीन महीने तक अस्पताल में भरती रहना पडा ।
...इस तरह उस दलित ग्राम-सेविका का बदला पूर्ण हुआ।

158 चोरी और सीनाज़ोरी

मि. ‘क‘ के सवर्ण पशु-चिकित्सक मित्र को एक बार बोझ लेकर राजधानी बुलाया गया। बोझ ढोने के लिये सवर्ण चपरासी के इनक़ार करने के बाद उसने गांव के ही एक दलित को पकडा़, और शहर घ्ूामाने-फिराने और पिक्चर दिखाने का लालच देकर उसे अपने साथ जाने के लिये तैयार कर लिया। राजधानी पहुंचने के बाद आॅफ़िस का काम निबटते ही उस पशु-चिकित्सक को दलित का साथ बोझ जैसा लगने लगा, और उसने ज़रूरी काम का बहाना बनाकर वापसी की टिकट कटा ली। बेचारा दलित मन-मसोस कर रह गया। वापसी के दौरान गांव से लगभग पन्द्रह कि.मी. पहले बस-स्टैण्ड पर बस रूकी, तो उस पशु़-चिकित्सक ने उसे अपने बच्चे के लिये गुब्बारे का पैकेट लाने भेज दिया। इस बीच बस में बहुत भीड़ हो गयी, और वह दलित बस में चढ़ नहीं पाया। इस बात का पता उस पशु-चिकित्सक महोदय को बस के चलने के बाद चला, और उसने मन ही मन उसे एक भद्दी सी गाली देते हुए सोचा पन्द्रह कि.मी. ही तो हैं...आ जायेगा साला...।
अपने घर पहंुचकर वह आराम करने लगा। रात के दस-ग्यारह बजे अचानक उसका दरवाज़ा खटखटाया गया। दरवाज़ा खुलतेे ही उस दलित ने गुब्बारे का पैकेट उसके मुंह पर फेंकते हुए बताया कि उसके पास फूटी कौडी भी नहीं थी, इसलिये उसे पन्द्रह कि.मी. पैदल आना पडा है। इस पर उस पशु-चिकित्सक ने यह कहते हुए उसके मुंह पर दरवाज़ा बन्द कर दिया कि लम्बे सफ़र में जाने से पहले जेब में फूटी कौडी रखनी चाहिए। ग़लती तुम्हारी ही है।

159 पण्डित की दशा और दिशा

मि ‘क‘ के पडोस वाले गांव में मड़ई का आयोजन था। जैसा कि आमतौर पर मड़ई-मेलों में होता है कि लड़के धक्का देने, और लड़कियाॅ धक्का खाने आती हंै । हां तो इस महत्वपूर्ण कार्य से निवृत्त होकर मि ‘क‘ और उनके मित्र खाना खाने एक घर पर पहुंचे। ज़ाहिर सी बात हैं कि उस घर में मुर्ग़े की सब्जी बनी थी। उस घर के मालिक ने सिर्फ़ व्ही.आई ़पी़ लोगों को आमन्त्रित कर रखा था । पाॅवरफुल पद होने के कारण मि ‘क‘ भी इसी श्रेणी में आ गये थे। खाना खाते-खाते मि. ‘क‘ का ध्यान एक व्यक्ति की ओर गया, जिसने बहुत ही ज्यादा पी रखी थी। लोग उससे पाय लागी पण्डितजी कह रहे थे, लेकिन वह अपने-आप में ही मस्त था। कुछ देर बाद सब लोग खा-पीकर उठ गये, किन्तु वह वहींे बैठा रहा । अचानक ‘क‘ का ध्यान उसकी ओर गया । उसने देखा कि उसकी थाली में एक कुत्ता भी मंुह डालकर उसी के साथ खा रहा है, और वह ‘हट बे कुकुर ‘बोलकर उस कुत्ते को वहां से भागने को कह रहा है। आख़िर में वह ‘ले साले तू ही खा ले’ कहकर थाली सरका देता है। और उठने की कोशिश में गिर जाता है।
मि. ‘क‘ के मुंह से दूर से नस्कार के अन्दाज़ में बरबस ही ‘पाय लागी पण्डितजी’ निकल जाता है।