1देवदासी
मैं एक गाँव में नौकरी करता था।वहाँ पर मेरी दोस्ती मनीष से हो गई। वह एक पशु चिकित्सक था। हम दोनों की उम्र लगभग एक ही थी। हम दोनांे प्रायः साथ ही पाये जाते थे। दौरा भी हम साथ ही किया करते थे। उसके साथ रहते हुए जानवरों में पाई जाने वाली बीमारियों और उसके इलाज़ के बारे में मैं काफ़ी कुछ जान चुका था। यदि किसी मवेशी की मौत के कारणों का पता नहीं चल पाता था, तो मनीष उस मवेशी का पोस्टमार्टम कराया करता था। वह वहाँ मुझे भी अपने साथ ले जाता। मैं भी कुछ नया सीखने की ललक के चलते उसके साथ हो लेता। जानवरों के पोस्टमार्टम की प्रारंभिक प्रकिया यह होती थी कि गाँव का ही एक दलित (मोची) जाति का व्यक्ति मन्नू मरे हुऐ जानवर के कान के पास एक चीरा सा लगाता, और वहाँ से पकड़कर खींच-खींचकर उसकी खाल उतारता जाता। खाल उतारकर वह अलग कर लेता, फिर वह उस जानवर के अंदरूनी भाग को चैक करते हुए हर अंग को टटोलता, और मनीष को बताता कि इसका ये वाला अंदरूनी अंग काम नहीं कर रहा था। इसे फलां बीमारी थी। वह बीमारी का नाम बताकर उसका इलाज़ भी बता देता कि यदि इसे फलां दवाई दी जाती तो यह ठीक हो गया होता।
मन्नू से बातें करते हुए यह पता ही नहीं चलता कि डाॅक्टर मनीष है, या फिर वह खुद। वह तीसरी कक्षा तक बस पढा़ हुआ था, पर अनुभवों से उसने सारी जानकारियाँ हासिल कर ली थी। पोस्टमार्टम हो जाने के बाद वह उस जानवर की खाल को लेकर वहाँ से चल देता। एक बार मेरे यह पूछने पर कि वह खाल का क्या करता है, उसने बताया कि मैं इस खाल को सूखाकर एक लोकल व्यापारी को दो सौ रूपयों में बेचूंगा। मैंने उत्सुकतावश पूछा फिर वह लोकल व्यापारी इस खाल का क्या करता है? इस पर उसने बताया था कि वह इस खाल को कलकत्ता भिजवाता है, और वहाँ पर वह इसे दो हज़ार रूपये के हिसाब से बेचता है। बाद में इसी खाल से जूते बनते हंै, जिसे आप साहब लोग पहनते हैं। जिले के प्रायः सभी गांव के दलित उस लोकल व्यापारी को ही खाल बेचते हंै। उत्सुकतावश मैंने उस लोकल व्यापारी का नाम जानना चाहा। उत्तर में उसने जो बताया, तो मैं हैरान रह गया। वह लोकल व्यापारी एक ब्राम्हण जाति का व्यक्ति था और उसकी बहुत बडी़ डेयरी थी। पूरे जिले का वह एक ख्यात दूध उत्पादक था। लोग उसे एक बडे़ दूध व्यापारी के रूप में जानते थे। मैंने उससे फिर पूछा कि क्या वाकई में वह चमडे़ का व्यापार करता है? इस पर उसने बताया कि वह लाभ वाला हर बिजनेस करता है। उसके पास सुअर के भी बडे़-बडे़ फाॅर्म हैं। चूंकि मादा सुअर एक साथ कई बच्चे जनती हंै, सो इस बिजनेस में बहुत फ़ायदा है। वह व्यापारी तो पैसा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है। फिर मन्नू मुझे आस-पास के गांवों के भंगी जाति के व्यक्तियों के नाम गिनाने लगा कि फलां-फलां उसके सूअर के फार्म में काम करते हैं। मैंने उससे पूछा कि तुम क्यों नहीं बडे़ पैमाने पर चमडे़ का व्यापार शुरू कर देते हो? इस पर उसने बताया साहब मेरे पास पूंजी होती तो मैं कब का ये काम शुरू कर देता। मैंने उसको सुझाया कि पूंजी की चिन्ता मत करो। तुम आस-पास के गंावों के दस दलित मिलकर एक समूह बना लो तो मैं तुम लोगांे को सरकारी योजना का लाभ दिलवा सकता हूं। बैंक के तीन लाख रूपये लोन मंे से सवा लाख रूपये की छूट भी मिल जायेगी। इस पर फीकी सी मुस्कुराहट के साथ उसने कहा कि साहब आप दस लोगों की बात करते हंै, हम दलितों में आपस में विश्वास ही कहां है। दो सगे भाई तो एक साथ रह नहीं सकते हैं, तो आप तो दस लोगों की बात कर रहे हैं। आप तो साहब रहने ही दीजिये। हम दलितों की यही नियति है। उसकी यह बातंे सुनकर मैं बेहद चिंतित हो उठा। खुद दलित जाति से होने के कारण मेरा चिन्तित होना स्वाभाविक भी था। चिन्ता का पहला कारण तो यह था कि दलितों के पुश्तैनी कामों में दूसरी जाति के व्यक्तियों के द्वारा सेंध लगाया जाना, और दूसरा कारण था दलितों में एकता का न होना। ये दोनांे ही बातें मुझे बेहद परेशान करने लगीं।
हालांकि मन्नू कम पढा़-लिखा था, लेकिन उसकी समझ बेहद विकसित थी, सो मैं उसके घर जाने लगा। उसका घर गांव से बाहर था, जैसा कि प्रायः आज भी दलितों का होता है। वह अपना घर बेहद साफ़-सुथरा रखता था। बातों के दौरान उसने बताया था कि उसकी एक बेटी है। संतोषी नाम की। गांव के हिसाब से बेटी की शादी की उम्र गई है। वैसे तो मैं मन्नू के घर कई बार जा चुका था, पर संतोषी को दो-तीन बार ही देख पाया था। वह एकदम सादगी से रहती थी। उसकी सादगी मुझे बडी़ ही रहस्यमय जान पड़ती थी। मैंने अंदाज़ा लगाया था कि वह अलग कमरे में रहती है। मुझे हमेशा ही संतोषी को देखने की ललक रहती थी। मैं उसके बारे ज़्यादह से ज़्यादह जानना चाहता था, सो मैंने एक बार मन्नू से कहा-यार मैं आपके घर कई बार आ चुका हूं, लेकिन आपने मुझे अपना घर अन्दर से नहीं दिखाया है। मेरे ऐसे कहने के पीछे मेरी मंशा संतोषी को और करीब से देखना ही था। वह मुझे अपना घर दिखाने लगा। पर मेरी नजरे तो संतोषी को देखना चाह रही थी। एक कमरे के पास मैं जाकर ठिठक सा गया अन्दर से अगरबत्ती की खूशबू आ रही थी। खिड़की से झांककर देखा तो वह कमरा मंदिर सा लगा। अन्दर बहुत से देवी-देवताओं की फोटो दिखी। कमरे के अन्दर संतोषी ध्यान की सी अवस्था में बैठी थी। एक झलक में वह बडी़ ही तेजस्वीनी लग रही थी। उसके चेहरे में एक आभामंडल सा लग रहा था। मैने मन्नू से पूछा यह क्या है, क्या तुमने अपने घर में मंदिर बना रखा है। इस पर उसने बताया अरे नहीं साहब, मैं तो नास्तिक आदमी हूं। पता नहीं ये मेरी बेटी किसी बाबा के चक्कर में पड़ गई और कहती है कि मैं शादी नहीं करूंगी। मेरा जीवन सेवा के लिये समर्पित है। मैं दीन-दुखियों की सेवा में अपनां जीवन गुजार दूंगी। यह जानकारी भी मुझे चिन्तित करने के लिये पर्याप्त थी। मैं सोचने लगा कि दलित आंदोलन के वर्तमान दौर में भला किसी दलित महिला का पूजा-पाठ में घण्टों बिताना वाकई में चिन्ता का विषय है। आगे उसने बताया कि इसने अपने कमरे को ही मंदिर बना रखा है। यह अपने कमरे से गांव के मंदिर तक जाती है। उसके अलावा ये कहीं नहीं जाती है। इसकी कोई सहेली भी नहीं है। ये बाबूलाल चतुर्वेदी के कलैण्डर के हिसाब से सभी तरह के व्रत-उपवास करती है। हम इसे समझा-समझाकर थक चुके हैं, पर यह हमेशा ही कहती है कि दीन-दुखियों और पीड़ितों के लिये इसका जीवन समर्पित है।
हम जिस गाँव में रहते थे, वहां एक मंदिर था। उसी से लगे हुए एक घर में पुजारी रहा करता था। वह एक गृहस्थ पुजारी था। सारे गांव को यह बात मालूम थी कि पुजारी की अपनी बीबी के साथ बनती नहीं है। एक बार तो वह अपनी पत्नी को गांव में दौड़ा-दौड़ाकर मार रहा था। उस वक़्त उसकी बीवी उसे छोड़कर चली गई थी। और गांव वालो की मध्यस्थता करने के बाद मान-मनव्वल करके उसे उसके मायके से लाया गया था। लेकिन पण्डित को न सुधरना था, सो वह नहीं सुधरा। वह अब भी अपनी पत्नी पर हाथ उठाता ही रहता था। अभी फिर उसकी पत्नी मायके चली गई थी। संतोषी रोज सुबह मंदिर जाया करती थी। मैं और मनीष भी माॅर्निग वाॅक के लिये निकलते थे। गांव के कई युवा लड़के भी हमारे साथ ही माॅर्निंग वाॅक के लिये निकलते थे। हमारा माॅर्निग वाॅक का समय, और संतोषी का पूजा का वक़्त एक ही था। गांव के लड़के उसे देखकर व्यंग्य से कहते-देखो वो जा रही है, दूसरों की सेवा में जीवन समर्पित करने वाली लड़की। पण्डित की रखैल...। उसके बारे में ऐसा सुनने पर मुझे बुरा लगा, और मैंने उन लड़कों को चेताया। उस लड़की की सादगी को देखकर मेरे मन में उसके प्रति बेहद सम्मान का भाव था। यदि वह अपनी जिं़दगी साध्वी जैसे जीना चाहती है तो जिये, उससे भला दूसरों को क्या मतलब होना चाहिये।
एक दिन मैं मीटिंग के सिलसिले में कस्बे में गया हुआ था। मीटिंग ब्रेक में मैं अपने एक दोस्त के घर जा रहा था, तभी अस्पताल के पास मुझे गांव की नर्स के साथ संतोषी नज़र आई। मुझे लगा कि महिलाओं को कुछ न कुछ लगा ही रहता है। और कुछ नहीं तो एनीमिया तो ज़्यादहतर महिलाओं को रहता ही है। उसी की जांच के लिए आई होगी। मेरी उस नर्स के साथ अच्छी मित्रता थी, पर चूंकि मैं जल्दी में था, सो मंैने दो मिनट रूककर उनसेे कहा अभी मैं जल्दी में हूं। मीटिंग खत्म होंने के बाद आउंगा। इतने में ही मैंने कनखियों से देख लिया कि संतोषी के चेहरे परं किसी तरह के भाव नहीं थे। संतोषी का रहस्यमय व्यक्तित्व मुझे बेहद आकर्षित करता रहा और मैं मीटिंग खत्म होने के बाद तुरंत ही संतोषी को देखने अस्पताल पहुंचा। अस्पताल के परिसर में एक चबूतरे पर नर्स बैठी हुई थी। उसके साथ संतोषी नहीं थी। मैं नर्स से इधर-उधर की बातंे करने लगा, पर मेरी निग़ाहंे तो संतोषी को ही ढंूढ रही थीं। आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया, और मैंने नर्स से पूछ ही लिया-संतोषी नहीं दिख रही है। इस पर नर्स ने बताया कि अन्दर उसका आॅपरेशन हो रहा है। मैं चैक गया। मैंने उससे पूछा- कौन सा आपरेशन? इस पर उसने कहना शुरू किया- क्या बताउं सर, ये लड़की एकदम पागल है। पता नहीं कहां से इसे दुखी-पीड़ित लोगों की सेवा का भूत चढा़ है। इसकी इस कमज़ोरी का फ़ायदा वो पण्डित उठाता है। वह अपने आपको पत्नी पीड़ित बताते हुए इसके साथ संबंध बना लेता है। इसे तीन माह का गर्भ ठहर गया था, सो मैं इसका अबार्शन कराने के लिए लाई हूं। यह दूसरी बार है। पण्डित ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा कि किसी भी तरह इसका अबार्शन करा दो। मंैने पहली बार इसी शर्त पर इसका अबार्शन कराया था कि आईंदा ऐसी ग़लती नही होगी, तो भी इसने दुबारा ऐसी ग़लती की। मैं इन लोगों को समझा-समझाकर थक गई हूं कि संबंध बनाते वक़्त सुरक्षा साधनों का प्रयोग करो पर नहीं। इन्हें तो मजा चाहिये। सज़ा औरत भुगते। अब इस लड़की के भविष्य को देखते हुए और इसे बदनामी से बचाने के लिए मैं दूसरी बार इसके साथ अबार्शन के लिए आई हूं। उसकी यह बात सुनकर मैं सन्न रह गया कि क्या कोई लड़की इतनी भी मूर्ख हो सकती है कि, सेवा के नाम पर यूं ही अपना शरीर किसी को भी सौंप दे। संताषी के बारे में यह जानकर मेरे मन में बेहद उथल-पुथल मची हुई थी। मैं एक दलित लड़की को अपनी आंखों के सामने बर्बाद होता हुआ देख रहा था। ख़ैर बात आई-गई हो गई।
गांव के लोगों को पता नहीं कहां से यह जानकारी हो गई, और वे चटखारे ले-लेकर उसके क़िस्से सुनाने लगे। मन्नू के घर मेरा आना-जाना पूर्ववत लगा हुआ था। उसके बारे में सब कुछ जानते हुए भी मुझे उस लड़की को देखना बडा़ अच्छा लगता था। उसके चेहरे से टपकती हुई मासूमियत उसे पाक़-साफ़ करार देती। मैं इस घटना को उसकी नादानी मानकर भूल जाना चाहता था। मैं मन ही मन उसे चाहने लगा था, पर उसके चेहरे पर किसी क़िस्म का भाव उभरते न देखकर मेरी हिम्मत जवाब दे देती थी। हमारे बीच बातचीत तक नहीं शुरू हुई थी। इस बीच पण्डित की बीवी मायके से आ चुकी थी और उनका दाम्पत्य जीवन पटरी पर था। मैंने सोचा चलो अब सब कुछ ठीक है।
कुछ दिनों बाद मेरा ट्रांसफर कस्बे के नज़दीक के गांव हो गया था। मैं उस गांव को छोड़ कर आ चुका था। पर मेरे जेहन में संतोषी की तस्वीर विद्यमान रही। कस्बे में मनीष के साथ-साथ वहां के दूसरे कर्मचारियों से मेरी मुलाकात गाहे-बगाहे होती ही रहती थी। एक दिन मेरे पास मनीष का फोन आया कि अबे वो गांव के किराने की दुकान वाले बनिये आशीष की वाईफ़ खत्म हो गई है। हो सके तो उसके क्रियाकर्म के लिये आ जाओ। उस गांव मंे मंैने बहुत से लोगों के साथ पारिवारिक संबंध बना रखे थे। वो आशीष भी उनमे से एक था।आशीष हालाँकि मुझसे चार साल बडा़ था, पर हम मित्रवत थे। मैं उसकी बारात में भी गया था। मनीष ने बताया था कि उसकी पत्नी तालाब के किनारे स्थित छुईखदान से छुई निकालने गई थी, और खदान के घसकने से उसी में दबकर मर गई। मुझे यह जानकर बेहद दुःख हुआ था कि हमारा वह मित्र भरी जवानी में विधुर हो चुका था। क्रियाक्रम के बाद मैं वापस लौट आया।
अब धीरे-धीरे मैं अपने नये गांव में रमने लगा था। यहाँ मेरे नये-नये दोस्त बन गये थे। पुराने गाँव के लोगांे से कस्बे में मुलाकत होती रहती थी। मैं गाँव के लोगों से गाँव के हाल-चाल पूछा करता था। हालाँकि मेरे मन में तो सिर्फ़ संतोषी के बारे में ही जानने की ही जिज्ञासा रहती थी। एक दिन गाँव के पटवारी से मुलाकात हो गई। उसने मुझे बताया कि मन्नू की लड़की संतोषी के तो अब बनिया के साथ संबंध बन गये हंै। वह अक्सर उसके घर में ही पाई जाने लगी है। हालाँकि मेरे पास उसकी बातों पर यकीन करने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर मेरा मन कहता था कि वह फिर से इतना मूर्खतापूर्ण काम नहीं करेगी।खै़र मुझे लगा कि अब संतोषी के बारे में सोचना मुझे छोड़ना होगा, पर उसका मासूमियत भरा चेहरा मुझे याद आ ही जाता था। एक दिन गाँव का झोला छाप डाॅक्टर मुझे कस्बे के अस्पताल के सामने नज़र आ गया। वह बड़ा ही परेशान नज़र आ रहा था। चूंकि वह भी मेरा हमउम्र ही था, सो मित्रवत था। मंैने मोटर-सायकल रोककर उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा, तो उसने बताया कि सर मैं उस बनिया के पाप के कारण परेशान हूँ। संतोषी को चार माह का गर्भ उसकी तरफ से है, और मैं उसका एबार्शन कराने आया हूँ। इस बार नर्स मैडम ने साफ़ मना कर दिया है, तो मुझे ही उसे लेकर यहाँ आना पड़ा। चार माह के बच्चे का गर्भपात कराने का रिस्क कोई भी डाॅक्टर नहीं ले रहा था। बडी़ मुश्किल से हाथ-पैर जोड़ने, और मँुहमाँगी रक़म देने की शर्त पर एक डाॅक्टर तैयार हुआ। अन्दर संतोषी का एबार्शन चल रहा है। बनिया ने मुझे पाँच हजार रूपये देकर भेजा है। मेरी भी इच्छा नहीं थी, लेकिन लड़की का भविष्य न बिगड़े सोचकर, और कुछ तो दो-चार पैसा कमाने की नीयत से मैं उसे यहाँ ले आया हूं। अब तो मुझे संतोषी मूर्खता की जीती-जागती प्रतिमा लगने लगी थी। मंैने अब ठान लिया था कि संतोषी के बारे में सोचकर मुझे परेशान नहीं होना है। मैंने दृढ़ता-पूर्वक उसके बारे में सोचना छोड़ दिया। अब तक नये गाँव में मुझे चार साल हो चुके थे। इस बीच हाँलाकि कभी-कभी मेरा पुराने गाँव जाना होता रहता था, पर मैं मन्नू के घर नहीं जाता था।
एक बार मैं अपने पुराने गाँव की मड़ई-मेले के मौके पर वहाँ पहुँचा हुआ था। मैं और मनीष घूम-घूमकर मड़ई का मजा ले रहे थे, तभी मुझे एक औरत अपने दो-ढाई साल के बच्चे के साथ नज़र आई। मुझे उस औरत का चेहरा जाना-पहचना सा लगा। ध्यान से देखने पर पाया वह तो संतोषी थी। मैंने मनीष से पूछा कि संतोषी की शादी कब हो गई? इस पर उसने आश्चर्य जताते हुए बोला-अरे तुझे नहीं मालूम? मेरे अनभिज्ञता ज़ाहिर करने पर उसने बताया कि पुजारी के बाद संतोषी का चक्कर आशीष के साथ चलने लगा था। कुछ महीनों बाद ही आशीष ने दूसरी शादी कर ली और संतोषी को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका। उसके कुछ दिनों बाद हमारे गांव में एक राजपूत सर आये थे। वे तलाक़शुदा थे। कुछ दिनों बाद संतोषी का संबंध राजपूत सर से हो गया, और वह उनकी तरफ़ से प्रेग्नेण्ट हो गई। इस बार झोला छाप डाॅक्टर, और नर्स दोनों ने ही अबाॅर्शन कराने से मना कर दिया, तो संतोषी ने ठान लिया कि अब वह इस बच्चे को जन्म देगी, और कुंवारी माँ की तरह उसका पालन-पोषण करेगी। और उसने इस बच्चे को जन्म दिया भी। इस बार तो मन्नू इसे मारने के लिये कुल्हाडी़ ही निकाल लाया था। गाँव वालों के समझाने-बुझाने पर वह बड़ी मुश्किल से शांत हुआ, लेकिन उसने कह दिया कि मैं ऐसी छिनाल को अपने घर पर नहीं रखूँगा। आजकल ये मंदिर के पास ही एक छोटे से कमरे में अपने बच्चे के साथ रहती है, और आज भी पूजा-पाठ में लगी रहती है। अपना जीवन-यापन करने के लिए दूसरों के खेतों में मजदूरी करने जाती है। हमारी बातचीत के दौरान वह हमारे क़रीब आ गई। उसने अपने बच्चे को गोद में उठा लिया था। वह मुझे देखकर मुस्कुराई साथ ही उसका बच्चा भी खिलखिलाने लगा। थोडी़ देर पहले तक छिनाल संबोधन सुन चुका मैं फिर से उसकी मासूमियत में खो गया। मैंने हाथ बढा़कर उसके बच्चे को अपनी गोद में ले लिया। पता नहीं क्यों, वह अब भी मुझे देवी ही लग रही थी, और उसका बेटा देवपुत्र। मनीष ने मेरे कान में फुसफुसाकर कहा-अबे ये क्या कर रहा है? छोड़ इसे। लेकिन उसके ऐसा कहते-कहते मैंने बच्चे के साथ ही संतोषी का भी हाथ थाम लिया।
2 भूसा कीड़ा
मुझे याद है कि हमारे घर में सेम, तरोई, कद्दू आदि जैसी नार (बेल) वाली सब्जियां लगाई जाती थीं। इन बेलों में एक कीड़ा पाया जाता था, जिसे हम भूसा-कीड़ा कहते थे। वह भूरा-काला मटमैले रंग का होता था। उसको देखकर मुझे अजीब सी लिजलिजेपन की सी अनुभूति होती होती थी, तो भी मुझे उसे देखना न जाने क्यों अच्छा लगता था। शायद उसके बारे में कुछ नया जानने की जिज्ञासा के कारण। मैं एक तरह से उनका अध्ययन किया करता था। उनका अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि उनमें से कुछ कीड़े तो बहुत बडे़ आकार के, कुछ मध्यम आकार और कुछ छोटे-छोटे हुआ करते थे। मुझे उनकी इल्लियों सी चाल बडी़ आकर्षित करती थी। वे प्रायः पत्तियों पर ही नज़र आते। मैं देखता कि वे पत्तियांे को धीरे-धीरे कुतरते रहते। उनमें से कुछ समझदार कीडे़ पत्तियों को एक किनारे से कुतरते चलते, जबकि कुछ पत्तियांे को इस तरह से कुतरते कि पत्तियों के साथ ही नीचे आ गिरते और इधर-उधर घूमते रहते। इन मूर्ख किस्म के कीड़ों से मुझे बेहद चिढ़ थी, क्यांेकि ये घर में अनाधिकृत रूप से प्रवेश कर जाते थे। उनका अध्ययन करते हुए मैंने पाया कि एक निश्चित समय के बाद ये कीडे़ दीवारों या छतों के किनारों पर रूककर धीरे-धीरे अपने उपर सफ़ेद आवरण लपेटने लगते हैं, और उनकी एक समाधि सी बन जाती है।
सरकारी नौकरी में आने के बाद मेरा वह घर मुझसे छूट सा गया था। मैं अपनी नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर की एक काॅलोनी में किराये से रहने लगा। मेरे पड़ो़स में एक बिज़नेसमैन रहा करता था। वह मात्र बारहवीं तक पढा़ था, लेकिन अपनी तिकड़म वाली योग्यता से काफ़ी सम्पन्न हो गया था। वह अपने नाम के आगेे ठाकुर लिखता था। वह बातें भी ठाकुरों जैसी ही किया करता था। वह रोज ही नियमित रूप से दो घण्टे पूजा-पाठ किया करता था। महीने में एकाध बार वह अपने घर में सत्यनारायण की कथा का आयोजन करता ही रहता था। वह ब्राह्मणों के चरण अपने हाथोें से धोता था। उसे मुसलमानों और दलितों से बेहद घृणा थी। उसके बच्चे मेरे बच्चे के साथ ही पढ़ते थे। उनके बीच काॅपी-किताबों का आदान-प्रदान होता ही रहता था। मेरी नज़़रों से उसके बच्चों की स्कूल डायरियां गुजरतीं थीं, जिस पर जाति वाले खण्ड में ठाकुर लिखने के बाद कोष्टक में राजपूत-क्षत्रिय भी लिखा हुआ होता था। हालांकि उस व्यक्ति से मेरा आत्मिक जुडा़व नहीं था, क्योंकि दलितों के प्रति उसकी घृणा से मंै अच्छी तरह से वाकिफ़़ था, पर पडो़सी होने के नाते से उसके साथ औपचारिक बातंे होनी लाज़मी थी। वह दलितों में विशेष तौर पर स्थानीय दलित जाति से बेहद नफ़़रत किया करता था। उसे जब भी मौका मिलता, वह आरक्षण को कोसने लगता। वह आरक्षण खत्म कर देने की वकालत किया करता। वह कई बार मेरे सामने भी दलित आरक्षण को खत्म करने की बात कह चुका था। मैंने उसके जैसा कट्टर हिन्दू तालिबानी कहीं नहीं देखा था। वह कई बार कहता कि जब मुस्लिम देशों में शरीयत का कानून लागू हो सकता है, तो यहां मनुस्मृति क्यांे लागू नहीं हो सकती। पडोसी होने के नाते, और सबसे बडी़ बात उसके बौध्दिक स्तर को देखते हुए मैं उससे किसी भी तरह की बहस नहीं करना चाहता था।
कुछ दिनों बाद मैं दूसरी काॅलोनी में अपने खरीदे हुए मकान में शिफ्ट हो गया। अब उससे मेरी मुलाकात नहीं हो पाती थी। कभी-कभार वही फोन कर लिया करता था। समय गुजरता गया। मेरा बेटा चूंकि पढ़ा़ई में बेहद तेज़़ था, सो आरक्षित वर्ग का होने के बावजूद प्री इंज़ीनियरिंग टेस्ट में उसका चयन सामान्य सीट पर हो गया था। उसे सबसे अच्छे इंजीनियरिंग काॅलेज़़ में एडमिशन मिल गया था। मेरे उस पूर्व पडो़सी के दोनांे ही बच्चे पढ़ाई में बेहद कमज़़ोर थे, और ले-दे के पास बस ही हो पाते थे। मेरे बेटे के माध्यम से मुझे पता चला था कि इस वर्ष तो उसका बेटा बारहवीं भी पास नहीं हो पाया था।
एक दिन मैं किसी काम से कलेक्ट्रेट गया तो पाया कि मेरा वही पड़ोसी जाति प्रमाण-पत्र बनाये जाने वाली खिड़की के सामने लाईन लगाकर खड़ा है। मुझे बडा़ अचरज हुआ। हालांकि उसने मुझे देख लिया था लेकिन वह मुझे देखकर भी अनदेखी करने लगा। मुझे तो अब अच्छा मौका हाथ लगा था। मैंने उसके पास पहंुचकर उससे पूछा-कैसे क्षत्रिय-राजपूत ठाकुर साहब, आप इस लाईन में कैसे नज़़र आ रहे हैं? मेरे इस व्यंग्य को समझकर उसने झंेपते हुए बताया कि हमारा सरनेम ठाकुर है, पर मूल जाति अनुसूचित जाति के अंतर्गत ही आती है। हालांकि हमारे जाति समूह ने अपनी जाति को अनुसूचित से हटाने के लिए लिखा-पढी़ की है, तो भी जब तक वह अनुसूचित जाति की सूची से हट नहीं जाती, मैंने सोचा कि आरक्षण का लाभ ले ही लिया जाये, इसलिए बच्चों का जाति प्रमाण-पत्र बनवा रहा हूं। आज जहां आरक्षित जाति में शामिल होने के लिये बड़े-बड़े आंदोलन हो रहे हैं, ऐसे में उसकी यह बात मुझे हजम नहीं हुई। रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद वह मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहा था। फिर उसने अपने थोथे अहं को तुष्ट करने के लिए बताया कि हमारा रहन-सहन, खान-पान आदि सब क्षत्रिय ठाकुरों जैसा ही है, लेकिन सरकारी दस्तावेज़ों में हम अनूसूचित जाति में आते हैं, यह कहते हुए उसने मुझे सन् 1950 के पहले के अपने जाति सम्बन्धी दस्तावेज़ दिखाना शुरू किया। उसके थोथे अहं से भरी हुई बातें मुझे उसके व्यक्तित्व के विघटन की तस्वीर दिखाने लगी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वह रेत का एक टीला था, जो मेरे सामने ही भरभराकर ढह गया है।
वहां से लौटकर मैं वापस अपने घर पहंुचा। खाना खाने के बाद मैं बिस्तर पर लेटा उसी व्यक्ति के बारे में सोच रहा था। अचानक मेरी नजर छत के कोने पर पडी़। वहां पर मुझे एक भूसा कीडे़ की समाधि नज़र आई। मैंने जाला साफ़ करने वाला झाडू़ उठाया, ओैर उस जगह को साफ़ करके उस समाधि को बाहर फेंक दिया। आज मुझे उस भूसे कीडे़ से इतनी नफ़रत हो रही थी, जितनी पहले कभी भी नहीं हुई थी।
3 चोर दरवाज़ा
केशव चैबे अभी उमेश के सामने से अपनी लग्ज़री गाड़ी में बैठकर निकला था। केशव चैबे को देखकर उमेश के तन-बदन में आग़ सी लग जाती थी। हालांकि केशव एक डिप्टी कलेक्टर था, और उमेश मामूली सा दैनिक वेतन भोगी ड्राइव्हर। दरअसल केशव और उमेश दोनो एक ही गाँव के रहने वाले थे। पहले वे दोनांे ही एक दबंग आइएएस अधिकारी खांडेकर साहब के बगंले पर दैनिक वेतनभोगी के रूप में काम किया करते थे। केशव चपरासी था जबकि उमेश ड्राइव्हर था। खांडेकर साहब दलित जाति के आईएएस अधिकरी थे। वैसे तो सभी आईएएस अधिकारी दबंग होते हैं, पर खांडेकर साहब दलित होने के बावजूद दबंग थे, और सारे राज्य में उनकी तूती बोलती थी। ऐसा कहा जाता था कि वे तो राज्य के मुख्य सचिव से भी ज्यादह पाॅवर-फुल हैं।
बारह साल पहले जब खांडेकर साहब उनकी तहसील के एसडीएम बनकर आये थ,े तभी केशव और उमेश एक साथ उनके बंगले में ड्यूटी किया करते थे। उमेश ने खांडेकर साहब से बडी़ उम्मीदें लगा रखी थी कि वे दलित जाति के हंै, तो किसी तरह उसे रेगुलर करा देंगे। आज भी इसी उम्मीद पे वह उनके साथ काम कर रहा था। केशव मूल रूप से उत्तर-प्रदेश की किसी ऐसी जगह का रहने वाला था, जहाँ बाल-विवाह प्रचलित था। केशव का भी बाल विवाह हुआ था, पर गौना नहीं हुआ था। केशव के पिता उमेश के गांव में पण्डिताई करते थे। केशव और उमेश दोनांे ने साथ-साथ ही बारहवीं पास किया था, और वे दोनों एक साथ ही एसडीएम के बंगले में ड्यूटी करते रहे। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। इस बीच केशव अपनी पत्नी का गौना करा के ले आया था। उसने खांडेकर साहब से निवेदन किया कि सर अब मैं फ़ैमिली वाला हो गया हूँ। आप मुझे बंगले के सर्वेण्ट क्वार्टर में रहने की जगह दे दें, तो बड़ी़ मेहरबानी होगी। केशव ने यह भी कहा था कि सर मेरी जोरू रसोई बनाने में मदद कर दिया करेगी। साहब की अनुमति मिलने के बाद वह अपनी पत्नी के साथ सर्वेण्ट क्र्वाटर में शिफ््ट हो गया था। उसकी पत्नी हमेशा ही एक लंबा सा घंूघट डाले रखती। खांडेकर साहब की अभी शादी नहीं हुई थी। हाँलाकि साहब के घर पर अलग से एक पुरूष कुक भी था। वह भी दैनिक वेतनभोगी ही था। केशव ने बडी़ चालाकी से अपनी बीवी की एण्ट्री साहब की रसोई में करा दी थी। अब साहब के लिए वही खाना बनाने लगी थी। एक दिन अचानक पता चला कि कुक को हटा दिया गया है, और अब कुक की मजदूरी केशव की पत्नी को मिलने लगी है। यूँ तो केशव की पत्नी एक लंबा सा घंूघट डाली होती थी, पर बंगले के अंदर प्रवेश करते और निकलते हुए उसका घूंघट हट जाया करता था। इसी दौरान उमेश ने देख लिया था कि केशव की वाईफ़ तो बहुत ख़ूबसूरत है। हालाँकि उमेश के सामने वह हमेशा ही घंूघट लगाई रखती थी। धीरे-धीरे खांडेकर साहब केशव के साथ मित्रवत व्यवहार करने लगेे थे, जबकि उमेश के साथ अब भी उनका व्यवहार रूखा ही था। कार्यालय के सारे लोग कानाफूसी करने लगे थे कि पेटीकोट का जादू चल रहा है। एक बार तो बंगले के माली ने केशव की पत्नी और खाण्डेकर साहब को आपत्तिजनक स्थिति मेें भी देख लिया था।
ख़ैर साहब के आॅफिस में क्लर्क की नियमित भर्ती होनी थी। पद एक ही था। इस पद के लिये और लोगों के अलावा, केशव और उमेश ने भी आवेदन किया था। उमेश ने सोचा था कि साहब भी दलित जाति के हैं तो वे पक्के तौर पर इस पद पर मुझे ही नियुक्त करा देंगे। सो वह एक दिन वह निवेदन करने उनके पास पहुँच गया। इस पर उन्हांेने उसे फटकारते हुए कहा कि मै किसी के लिए भी एप्रोच नहीं करता। तुम में यदि योग्यता होगी, तभी तुम्हारा सलेक्शन होगा। फिर उन्हांेने बताया कि पद एक ही है इसलिए इसमें आरक्षण लागू नहीं होता है। यदि आरक्षित पद होता तो मै कुछ कर सकता था। ख़ैर हज़ारो लोगो के बीच में से उस पद पर केशव का सलेक्शन हो गया था। पेटीकोट का जादू चला हुआ स्पष्ट नज़र आ रहा था। कुछ महीनों बाद साहब जिला पंचायत के सीईओ बना दिये गये। वे केशव और उमेश को भी अपने साथ जिले में ले गये। क्लर्क होने के बावजूद केशव अब भी साहब के सर्वेण्ट क्वार्टर में ही रहता था। उधर उसकी पत्नी दिन ब दिन निखरती जा रही थी। अब तक तो घूंघट पूरी तरह खत्म हो गया था, और वह बेहद बेलौस हो चली थी। उमेश उससे पूछता अरे भाभी, हमंे चाचा कब बना रही हो। इस पर वह शरारती अंदाज़ में कहती-देवर जी अभी तो हमारे खेलने-खाने के दिन हैं।
इसी बीच साहब ने अपनी ही जाति की एक आईएएस लड़की से शादी कर ली थी। हालाँकि वह पडो़सी राज्य में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ थी। साहब के लिए उसे अपने राज्य में लाना कौन सी बडी़ बात थी। ख़ैर उनकी पत्नी कभी-कभार ही आती थी। इस दौरान केशव की पत्नी पूरे समय लम्बे घंूघट मे ही नज़र आती थी। दो साल के अन्दर खाण्डेकर साहब कलेक्टर बन गये थे। केशव ने प्राईवेट परीक्षार्थी के तौर पर एक रात में पढ़कर पास होने वाली कंुजी पढ़कर अपना ग्रेजुएशन पूरा कर लिया था। साहब ने अब भी दोनांे को अपने साथ ही रखा था। केशव यहां फिर से सर्वेण्ट क्वार्टर में शिफ््ट हो गया था, जबकि उमेश वाचमेन वाले बेहद छोटे से कमरे में रहने लगा था। अब साहब के व्यवहार में यह परिवर्तन आ गया था कि वे उमेश से भी अच्छे से बर्ताव करने लगे थे। एक-दो बार उन्होंने उससे कहा था- तेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है, जो तू रेगुलर नहीं हो पा रहा है। उमेश ने नियमित हो जाने की आस में अब तक शादी नहीं की थी।
साहब की पत्नी को पडो़सी राज्य वाले छोड़ नहीं रहे थे, सो वह कभी-कभार ही यहां आ पाती थी। इस बीच एक नियम के तहत विभागीय परीक्षा लेकर क्लर्क को तहसीलदार बनाने का आदेश आ गया। केशव की तो बांछे खिल गई। विभागीय परीक्षा का आयोेेजन कलेक्टर के द्वारा ही किया जाना था। इस पद के लिये तीन वर्ष का राजस्व विभाग में काम करने का अनुभव अनिवार्य था। साथ ही ग्रेजुएशन भी जरूरी था। केशव के पास ये दोनांे योग्यताएं थीं, और तीसरी तथा सबसे बड़ी योग्यता थी उसकी बेहद ख़ूबसूरत बीबी। अब हर कोई कहने लगा कि यह नियम तो केशव को ध्यान में रखकर ही बनाया गया है। जेैसा कि उम्मीद थी, इन योग्यताओं के बूते पर और साहब की मेहरबानी से केशव तहसीलदार बन गया था। उसका बस चलता तो वह तहसीलदार बनने के बाद भी सर्वेण्ट क्वार्टर में ही रहता, पर अब चंूकि पद प्रतिष्ठापूर्ण हो गया था, और उसकी पोस्टिंग तहसील में हो गई थी, सो उसे जाना ही पड़ा था। लेकिन उसकी बीबी अब भी वहीं सर्वेण्ट क्वार्टर में रहकर कुक का काम करती थी। किसी को कानों-कान ख़बर नहीं हो पाई थी, और उसकी पत्नी दैनिक वेतनभोगी से नियमित कुक हो चुकी थी।
अब साहब वरिष्ठ हो रहे थे, सो उनकी नियुक्ति अलग-अलग विभागांे में विशेष सचिव के रूप में होने लगी थी। उधर विभाग में प्रमोशन पा-पाकर केशव भी डिप्टीकलेक्टर बन चुका था। साहब जिस भी विभाग में जाते, उसे अपने विभाग में ही प्रतिनियुक्ति पर मलाईदार पदों पर रखते। वे अपने प्रभावों का इस्तेमाल करते हुए केशव को अपने बंगले से सटा हुआ बंगला ही दिलाते । और सबसे पहला काम यह होता कि दोनांे बंगलों के बीच की बाउण्ड्रीवाॅल में एक चोर दरवाज़ा बनवाया जाता। अब तक बारह वर्ष हो चुके थे। उमेश अब भी कलेक्टर दर पर साहब के घर पर ड्रायवरी करता था, और उसके साथ का केशव आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया था। हालाँकि साहब उमेश पर पूरा भरोसा करते थे, पर जब भी नियमित करने की बात आती, तो साहब कहते तेरी तो क़िस्मत ही ख़राब है रे। बंगले के गैराज़ में गाडी़ पार्क करते हुए उमेश की नजरें गैराज़ के पीछे बने चोर दरवाज़े पर पड़ती और उसके मुँह से आह निकल जाती।
4 चारे वाली मछली
हितेश को यूँ तो डिस्कवरी चैनल के सभी कार्यक्रम अच्छे लगते थे, पर उसे रिवर माॅन्स्टर नामक कार्यक्रम बहुत अच्छा लगता था। इस कार्यक्रम में जेरेमी नामक एक मछुआरा नदियों में पाई जाने वाली आदमखोर मछलियों को पकड़ता है। ये बडी़-बड़ी मछलियां या तो आदमखोर होती हंै, या फिर किसी न किसी रूप में मनुष्य की मृत्यु का कारण बनती हंै। इसमें गूंच से लेकर इलेक्ट्रिक ईल तक की मछलियां होती हैं। उसे सबसे ज्यादह आकर्षित करता है उसके मछली पकड़ने का तरीका। वह चारे के रूप में छोटी मछलियों का ही प्रयोग करता है। वह इन मछलियों को बडे़ आराम से कांटे में गूंथ देता है, और किनारे पर बैठकर बड़ी मछलियों को फँसाता है। हितेश बचपन से ही सुनता आया था कि बडी़ मछलियाँ छोटी मछलियों को खाती हैं लेकिन यहाँ पर वह इसे प्रत्यक्ष रूप से देखता। उसे मछलियों को फंसाने के लिए मछलियों का चारे के रूप में प्रयोग एक अद्भुत घटना लगती थी।
हितेश राज्य सरकार के मंत्रालय में एक अदना सा बाबू है। वह दूसरे बाबूओं से जरा सा हटकर है। दिन में आठ-दस बार चाय पीने जाने, या फिर पान-गुटका खाकर आॅफ़िस की दीवारों पर थूकने वाले दूसरे बाबूओं से एकदम अलग। चूँकि वह दलित जाति का है, सो उसे आवक-जावक शाखा में बिठा दिया गया है। मलाई वाले सारे पद ऊँची जाति के कर्मचारियों के लिए आरक्षित हैं। वह किसी से कुछ कहता नहीं है, लेकिन वह आब्ज़र्व करता रहता है कि कैसे दूसरे बाबू, जिलों से आने वाले लोगों को फाँसकर बाहर ले जाते हैं, और उन्हे चूतिया बनाते रहते हैं। सारा काम तो मंत्री के बंगले से होता होता है, लेकिन उन्हंे झूठी दिलासा देकर वे उनसे पैसे झटक लेते हंै। बाहर से आये हुए लोगों के लिए इन बाबूओं ने मुर्गा कोडवर्ड बना रखा है। और इन्ही मुर्गो को हलाल करने के लिए वे दस बार चाय-पानी और पान-गुटका के लिए बाहर जाते हंै। आवक-जावक में बैठकर वह चपरासी से लेकर सचिव स्तर के अधिकारियों की गतिविधियों पर नज़र रखता है। अभी वह जूनियर है, इसलिए वह किसी को कुछ बोलता नहीं है। उसकी नियुक्ति विशेष भर्ती अभियान के तहत हुई है सो कार्यालय के सारे लोग उसकी जात जानते हैं, उसे हेय दृष्टि से देखते हैं। वह न सिर्फ़ अपने विभाग, बल्कि सारे मंत्रालय को आब्ज़र्व करता रहता है। अभी उसके विभाग का सेके्रटरी एक ब्राम्हण है। इसके पहले एक दलित था। उसे तो दोनों में कोई अंतर ही नज़र नहीं आया था। इससे पहले वाले दलित बाॅस की मानसिकता भी सवर्णो जैसी ही थी।वह भी दलित चपरासियों और बाबुओं आदि से दुत्कार कर ही बात किया करता था। हितेश सोचता क्या बड़ा पद मिलने पर जातियाँ बदल जाती हैं।
नौकरी में आने के पहले वह अम्बेडकर जयंती पर नियमित रूप से दलित विचारकों के भाषण सुनता रहता था कि दलितांे के असली अपराधी सवर्ण न होकर वे दलित हैं, जो बडे़ पदों पर पहुँचकर अपने-आपको सवर्ण समझने लगते हैं, और दलितों के हित में किसी तरह का कार्य नहीं करते हैं। लेकिन उन्हे समझाये तो समझाये कौन? वह सोचने लगा दलित कर्मचारियों की अपनी खुद की भी तो गलती है कि वे एकजुट नहीं रहते हैं। अम्बेडकरवाद को वे सिर्फ़ महारों का दर्शन समझते हंै और बुध्द धर्म को महारों का धर्म। हर दलित किसी न किसी धर्म-सम्प्रदाय या बाबा का खूंटा पकड़ा हुआ है। भंगी वाल्मिकी को पूज रहे हंै, चमार रैदास को पूज रहे हैं। कोई कबीरपंथ की ढपली बजा रहा है, तो कोई शिर्डी में अपनी ऐसी-तैसी करा रहा है। उधर आदिवासी समुदाय भी अपने आपको सवर्ण मानते हुए दलितों से छुआ मानते हंै। ओबीसी तो मंडल कमीशन के आरक्षण का लाभ लेने के बाद भी बांभनों के पिछलग्गू बने हुए हंै, और अपने-आपको बांभन ही समझते हंै। दलित महिला कर्मचारी तो आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी मिलने के बाद अपने-आपको भूल ही जाती हैं। वे अपने दलित परिचय को पूरी तरह से छुपाना चाहती हैं। और यदि महिला कर्मचारी खूबसूरत हो तो फिर एक तो करेला उपर से नीम चढ़ा वाली स्थिति बन जाती है। वे आईएएस से नीचे का ख्वाब ही नहीं देखती हैं। यदि दूसरी जाति में शादी का अवसर मिल,े तो वे ऐसा मौका कतई नहीं छोड़ना चाहती हैं। यहाँ पर वे अपनी सुविधानुसार अंबेडकर की उक्ति का उदाहरण देती हैं कि इंटर-काॅस्ट मैरिज़ के विषय में तो बाबासाहब ने स्पष्ट कहा है कि इसी तरीके से जातिप्रथा ख़त्म होगी। दलित पुरूष भी इसी उक्ति का सहारा लेकर दूसरी जात की लड़की में शादी कर लेते हैं। यदि कोई दलित महिला दूसरी जाति में शादी का साहस जुटा नहीं पाती है, और मजबूरी में उसे अपनी ही जाति में समझौता करते हुए शादी करना पड़ता है तो फिर वह जीवनभर कुण्ठित रहती हैं और अपना पारिवारिक जीवन तबाह कर लेती हंै।
हितेश को याद आता है कि वह एक बौध्द तीर्थ-स्थल घूमने गया हुआ था। वहाँ पर वह गौतम बुध्द की मूर्ति को निहार रहा था, तभी एक बौध्द उपासक वहाँ पाॅलिथीन लेकर आया और मूर्ति से लगे हुए खूंटे में पाॅलिथीन टांगकर कैण्डल आदि जलाकर उपासना करने बैठ गया। उपासना समाप्त होने के बाद हितेश ने उस उपासक से पूछ ही लिया कि इस पाॅलिथीन में क्या है? इस पर उसने सहजता से उत्तर दिया-इसमें मटन है। हितेश आश्चर्यचकित रह गया कि बौध्द उपासक और मटन! उससे रहा नहीं गया और उसने कह ही दिया कि भाऊ बौध्द धर्म में तो हिंसा के लिये कोई जगह नहीं है, फिर ये बकरे का मांस? इस पर उस व्यक्ति ने अपने मांसाहार को जस्टिफाई करने के लिए कहना शुरू कर दिया कि एक बार गौतम बुध्द और उनके शिष्य भिक्षा माँगने के लिए दरवाज़े-दरवाज़े जा रहे थे, तभी एक शिष्य के भिक्षापात्र में एक महिला ने भिक्षा के रूप में मांस डाल दिया। उस शिष्य ने गौतम बुध्द से पूछा कि इस मांस का क्या किया जाये? क्या इसे फेंक दिया जाय?े इस पर गौतम बुध्द ने उत्तर दिया था कि नहीं भिक्षा में मिली हुई वस्तु को इस तरह फेंका नहीं जा सकता। और फिर उन सबने मिलकर मांस पकाकर खाया। इस तरह गौतम बुध्द ने भी मांस खाया था। और अगर यदि हम मान भी लंे कि हिंसा पाप है तो भी, कसाई ही पापी है, क्योंकि बकरे को तो मारा उसी ने है। हिंसा तो उसने की है। हम तो सिर्फ़ खा रहे हैं। हितेश सोचने लगाा कि लोग वाकई में कैसे-कैसे जस्टिफिकेशन दे देते हंै। वह अपनी तन्द्रा में ही था कि अचानक उसे लगा कि कोई उसके सामने खडा़ हुआ है। उसने अपना सर उठाकर देखा तो सामने तीन-चार लोग खडे़ हुए थे। उनके हाथ में चन्दे की रसीद थी। ये अजाक्स के कर्ताधर्ता थे जो कि दलित-आदिवासी लोगों की पहचान कर लेते थे और उनसे अपने संगठन के लिए चन्दा वसूलते थे। ये संगठन अनुसूचित जाति और जन-जाति के कर्मचारियों का संगठन था, जो कथित तौर पर उनके हित कि लिए लड़ता था। पर हितेश को याद नहीं पड़ता था कि इस संगठन के लोग कभी भी किसी पीड़ित के हक़ में सामने आये हांे। हाँ लेकिन ये लोग चँदा नियमित रूप से वसूलने पहुँच जाते थे। यह संगठन सिर्फ़ मंत्रालयीन चुनावों के समय ही सक्रिय होता था। भले ही यह संगठन मृतप्रायः था, पर यह दूसरी जातियों के लिए एक दबाव समूह का काम करता था। और इससे प्रेरित होकर अन्य पिछड़ा वर्ग ने भी अपना एक संगठन बना लिया था, जिसका नाम उन्हांेने अपाक्स रखा था। और सबसे बडी़ बात तो यह हुई थी कि इन दोनों संगठनों के बन जाने के बाद असुरक्षा की भावना के चलते सवर्णो को भी मजबूरन अपना एक संगठन बनाना पड़ा, जिसका नाम उन्हांेने सपाक्स दिया था। इस तरह तीनों संगठनों के बीच अघोषित तौर पर वर्ग-संघर्ष होता ही रहता था। सवर्णों द्वारा हनुमान जयंती, तुलसीदास जयन्ती और परशुराम जयन्ती मनायी जाती। अजाक्स द्वारा मुख्य रूप से अम्बेडकर जयंती, बुध्द पूर्णिमा और घासीदास जयन्ती मनायी जाती थी। अन्य पिछ़डा़ वर्ग का संगठन बिन पेंदी के लोटे की तरह इधर-उधर होता रहता था, क्योंकि उनके पास उत्सव मनाने का कोई सर्वमान्य आधार नहीं होता था। ओबीसी को आरक्षण मिलने के बाद कुछ जागरूक सदस्य जरूर अजाक्स के करीब आये थे, पर ज़्यादहतर सपाक्स के बैनर तले ही पाये जाते थे। वे अपनी गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पा रहे थे। मंत्रालयीन कर्मचारियों का पृथक से चुनाव होता था। इसमें वोटर्स और प्रत्याशी दोनांे ही इन्हीं तीनों संगठनों से होते थे। प्रत्यक्ष में तो मंत्रालयीन कर्मचारी संघ के चुनाव में जातिगत खींचतान नज़र नहीं आती थी, पर अन्दर से इन तीनों संगठनों द्वारा एक तरीके से व्हिप जारी हो जाती थी कि अपने संगठन के समर्पित उम्मीदवार को ही वोट देना है। यह धमकी भरी चेतावनी ही होती थी।
हितेश को याद पड़ने लगा कि हर वर्ष की भांति पिछले वर्ष हुए मंत्रालयीन संघ के चुनाव में उसके ब्राम्हण स्टाॅफ आफिसर दुबेजी ने अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लडा़। उसे सवर्णो का तो पूरा समर्थन था ही, पिछड़े वर्ग के ढुलमुल लोग भी उसे ही वोट देने का मन बना रहे थे। एक तरह से उसकी जीत तय ही थी कि अचानक अजाक्स से अनुसूचित जाति का एक दबंग उम्मीदवार खड़ा हो गया। ये बड़ा ही लोकप्रिय व्यक्ति था। वह अपने वैचारिक भाषणों से वह दलितों के साथ ही अन्य पिछडा़ वर्ग की जातियों में भी जोश भर देता था। वह उन्हे समझाते हुए कहता कि यदि आप ब्राम्हण, ठाकुर और बनिया इन तीनांे ही जातियों के नहीं हैं तो आप शूद्र हंै और इन शूद्रों का ही हमेशा शोषण होता रहा है। वास्तव में ओबीसी भी दलित ही हंै। आरक्षण के मुद्दे पर भाषण देते हुए वह कहता- हाँ आरक्षण बिल्कुल ख़त्म हो जाना चाहिये, लेकिन शुरूआत मंदिरों से होनी चाहिए। मंदिरों से बांभनों का आरक्षण ख़त्म हो जाये, और पुजारियों की नियुक्ति किसी भी जाति के लोगो से हो। मंदिरों में चमार या भंगी भी पुजारी बनने की पात्रता रखे, तो नौकरियों मंे आरक्षण की जरूरत ही न रहे। भई जब कोई भी मुसलमान मौलवी बन सकता है, कोई भी इसाई पादरी बन सकता है, तो कोई भी हिन्दू पुजारी क्यों नहीं बन सकता? उस उम्मीदवार के तर्क अकाट्य होते थे। अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों में भी उसकी गहरी पैठ थी। लोग उसकी इज़्ज़त करते थे। उसे वैचारिक वक्ता के रूप् में सम्मान देते थे। उसके चुनाव में कूद पड़ने से पांसा पूरी तरह पलट चुका था। ओबीसी वर्ग ने भी उसे ही वोट देने का मन बना लिया था। दुबेजी को भी अपनी हार सामने नज़र आने लगी थी। दुबे ने अपने अण्डर में काम करने वाली एक दलित लड़की का छः माह का वेतन रोक रखा था। वह अजाक्स की सक्रिय सदस्य थी। चूंकि छुट्टी स्वीकृत करना या न करना अधिकारी का विशेषाधिकार था, सो उसने दुर्भावनावश ही उसका वेतन रोक रखा था। उधर लड़की को रूपयों की सख़्त ज़रूरत थी। दुबेजी ही उसकी छुट्टी स्वीकृत कराकर उसका वेतन दिला सकते थे। इधर दुबेजी का विरूध्द खडा़ दलित उम्मीदवार लगातार अपना धुआँधार प्रचार कर रहा था। उसने अपने समर्थकांे की फोटो में उस लड़की की फोटो भी डलवा रखा था, क्योंकि वह लड़की भी सक्रिय कार्यकर्ता थी। अचानक दुबेजी को एक आईडिया सूझा। उसने उस लड़की को बुलवाकार छुट्टियां स्वीकृत कराकर वेतन दिलवाने का प्रलोभन दिया। साथ ही कहा कि भविष्य में भी आपको जब-जब छुट्टियों की ज़रूरत हो, आॅफ द रिकाॅर्ड जितने दिन चाहो, छुट्टी पर रह सकती हो। बस शर्त यह है कि आपको उस उम्मीदवार के खिलाफ़ पुलिस में यह बयान देना होगा कि उसने अनाधिकृत रूप से अपनी प्रचार सामग्री में उसकी फोटो का उपयोग किया है। इसके साथ ही दुष्कर्म के प्रयास का मुआमला भी जोड़ देना है। भले ही चुनाव के बाद अपना बयान वापस ले लेना।
अनाधिकृत रूप से छुट्टी पर जाने की आदी उस लड़की को यह सौदा फ़ायदे का लगा और उसने उस दबंग दलित प्रत्याशी के खिलाफ़ अपनी फोटो के अनाधिकृत इस्तेमाल करने व छेड़छाड़ का मामला दर्ज़ करा दिया। अब वह दबंग दलित उम्मीदवार चारों खाने चित्त हो चुका था। दुबेजी ने अपनी मनुवादी चालांे से अपने प्रतिद्वंद्वी को शिकस्त दे दी थी। चुनाव से पहले उस दलित उम्मीदवार को गिरफ़्तार कर लिया गया था। दुबेजी एक तरह से निर्विरोध ही चुनाव जीत गये थे। अपने किये गये वादे के अनुसार दुबेजी ने उस लड़की का वेतन निकालवा दिया, और उसे अनाधिकृत रूप से छुट्टी पर जाने की छूट भी मिल गई। वह लड़की हितेश के ही बैच की थी और उसी के बगल वाली टेबल में बैठती थी। वह लड़की कभी-कभार ही आॅफ़िस आया करती। उसे देखकर हितेश सोचता कि लोग कैसे अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थों के चलते अपने सारे दलित समाज को कलंकित करते हंै। क्या ये ज़रा भी नहीं सोचते कि उनका क्षुद्र स्वार्थ सारे समाज को खण्डित कर सकता है। वह लड़की जब भी हितेश के सामने से गुजरती, हितेश मन नही मन बोल उठता- चारे वाली मछली।
5 ढूह
मैं एक जंगली क्षेत्र में नौकरी करता था। मेरे कार्य का क्षेत्र लगभग 40 कि.मी. था और वहाँ के गाँव जंगलों के बीच में बसे हुए थे। लगभग 10 गाँवों में मुझे दौरा करना होता था। इन सारे गाँवों में मैं अपनी सायकल से दौरा किया करता था। मैं अपनी सायकल के कैरियर में एक बैग के अन्दर लुंगी, चड्डी और बनियान, साथ लेकर चला करता था। थक जाने पर किसी घने पेड़ के नीचे लुंगी बिछाकर मैं आराम से सो भी जाया करता था। कहीं साफ़ पानी दिखने पर मैं नहा भी लिया करता था। इन जंगलों में ख़तरनाक जंगली जानवर नहीं थे। हां हिरण, खरग़ोश और सियार आदि कभी-कभार नज़र आ जाते थे। मैं अपने पास एक पाॅकेट रिकाॅर्डर रखा करता था और कभी जंगल के वीराने की आवाज़़ें, तो कभी पक्षियों की चहचहाट रिकाॅर्ड किया करता और फिर उसे फुरसत में सुना करता था। मैं अपने साथ एक कैमरा भी रखा करता था, और पेडों़ में, पत्थरों में या फिर दीमकों की काॅलोनियों में उभरी प्राकृतिक आकृतियाँ तलाश कर उनकी फोटोग्राफ़ी किया करता था। मैं रचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए चीज़ों को देखता था। मुझे इन सबमें सबसे ज़्यादह आकर्षित करते थे दीमकों की काॅलोनी रूपी ढूह। जब तक मैंने उन्हें छुआ नहीं था, तब तक मुझे लगता था कि वे किसी किले की तरह ही मजबूत होते होंगे। क्योंकि वे यूरोपीयन शैली के किलों की तरह ही दिखते थे, लेकिन जब मैंने उन्हें छुआ तो पता चला कि ये तो कड़ापन लिये हुए भुरभूरे से होते हैं, और हाथ से धक्का देने पर टूटने लगते हैं। टूटने पर अन्दर बिलबिलाते हुए दीमक नजर आते हैं। हालाँकि दीमकों की नज़रों से देखने पर मनुष्यों के सापेक्ष तो वे किले बेहद ही मजबूत होते होंगे। ख़ैर कुछ सालों बाद मेरा तबादला एक शहर के नज़दीक हो गया था।
इन्हीं गांवों में से एक गांव का बेहद ही गरीब दलित लड़का राधेश्याम पीएससी की परीक्षा में कड़ी मेहनत करके डी.एस.पी. बन चुका था। इन दिनों वह प्रशि़क्षु डीएसपी के तौर पर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा था। उससे मेरी जान-पहचान होने का मुख्य कारण हमारा हम-जात होना ही था। हम दोनांे के बीच बेहद अपनत्व था। एक तरह से वह मेरे परिवार का सदस्य ही था। उसका टेªनिंग सेण्टर भी मेरे घर से ज़्यादह दूर नहीं था, सो वह प्रायः हर सण्डे को मेरे घर आया करता और हम दोनों ही वर्तमान भारत में दलितों की स्थिति, और उसमें दलित आंदोलनों की भूमिका आदि विषयों पर बहस किया करते थे। इधर कुछ महीनों से उसका टेªनिंग शेड्यूल बेहद टाईट हो चला था, और हमारी मुलाकात नहीं हो पा रही थी। एक रविवार अचानक उसका फोन आया कि भैया आज दोपहर दो बजे से शाम के छः बजे तक के लिए मुझे छुट्टी मिली है, और हमें नज़दीक वाले शहर जाकर फिर वापस आना है। आप तैयार रहियेगा। हमें वहाँ क्यों जाना है, यह बात उसने मुझे नहीं बताई थी, और कहा कि मैं रास्ते में आपको सब बताऊँगा। ख़ैर वह गाडी़ लेकर निर्धारित समय पर मेरे घर पहुँच गया। मैं तो तैयार ही बैठा था। मेरी उत्सुकता भाँपते हुए उसने बताना शुरू किया भैया हम लड़की देखने जा रहे हंै। मेरी शादी के लिए। इस पर मैंने उससे कहा अरे भाई शादी-ब्याह पूरी तरह पारिवारिक मामला होता है। तुम्हें अपने माँ-बाप को भी बुलवा लेना चाहिये था। उसने कहा भय्ैया हम एक आईपीएस अधिकारी की बेटी को देखने जा रहे हंै। आप को तो मालूम ही है कि मैं बहुत ग़रीब परिवार से बिलाँग करता हूँ। मेरे माँ-बाप तो एक आईपीएस अधिकारी के बंगले की चकाचैंध को देखकर बेहोश ही हो जायेंगे। मैं भी मनोवैज्ञानिक दबाव में आकर ही लड़की देखने जा रहा हूँ। क्योंकि लड़की का बाप एक आईपीएस अधिकारी है और आज नहीं तो कल वह मेरा बाॅस बन सकता है। मुझे तो शादी न करके अभी यूपीएससी की तैयारी करनी है, पर मैं उन्हें मना नहीं कर पाया कि मुझे अभी शादी नहीं करनी है। मंैने कहा ख़ै़र कोई बात नहीं है। वैसे उनका नाम क्या है? मैंने जिज्ञासावश पूछा। इस पर उसने उनके नाम के साथ एक ब्राम्हण सरनेम बताया। मैं चैंक गया। मंैने सुखद आश्चर्य से कहा-अरे वाह, यह तो गजब हो गया। एक ब्राम्हण व्यक्ति एक दलित को अपनी लड़की देने के लिए तैयार है। इसका मतलब यह हुआ कि दलित आन्दोलन सफल हुए हैं, जो कि पिछले साठ-सत्तर सालों में ब्राम्हणों की मानसिकता में इतना बड़ा बदलाव आ गया है। मैं ज़्यादह खुश होता, इससे पहले ही राधेश्याम ने मेरी खुशी पर ब्रेक लगाते हुए कहा-अरे भैय्या ज्यादह खुश, होने की जरूरत नहीं है। वो लोग हमारी ही जाति के हैं, लेकिन सरनेम ब्राम्हणों सा लिखते हैं। फिर उसने उनका मूल दलित सरनेम बताया, आगे उसने बताया कि वे एक गांव से बिलांग करते हैं, और नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में रहे हैं। चूंकि मंै दलित आन्दोलनों से जुड़ा था, सो मैं अपनी जाति के लगभग सारे प्रष्ठित लोगों को जानता था, और बहुत से लोग मुझे जानते थे। उसी गांव से बिलांग करने वाले और उन्हीं से के सरनेम वाले मेरे एक मित्र भी थे। मैंने उन्हें मोबाईल लगाकर पूछा तो उन्हांेने बताया कि हाँ वे लोग हमारे ही गांव के हैं, लेकिन ब्राम्हण सरनेम लिखते-लिखते अपने-आपको ब्राम्हण ही समझने लगे हैं। जात-समाज में बिल्कुल भी उठना-बैठना नहीं है। फिर उसने उन्हें गाली देते हुए कहा सालों को लड़कियों की शादी के समय ही जात-समाज ऩज़र आता है। जाएं साले, बडे़ बांभन बने फिरते हैं, तो करा लें अपनी बेटी की शादी किसी ब्राम्हण के साथ। उनके बारे में बताते हुए उसके मन की कड़वाहट स्पष्ट झलक रही थी। उनके बारे में इतना जानने के बाद भी मैं अपने उस मित्र से इत्तेफ़ाक नहीें रखा कि वे ब्राम्हण मानसिकता में ढले हुए लोग होंगे। जाति छुपाकर रहना दलितों की मजबूरी हो सकती है, पर रहते तो वे दलित ही हैं और दबे-छुपे रूप में दलित आंदोलन का हिस्सा भी रहते हैं।
ख़ैर हम उस शहर में दाख़िल हुए। औद्योगिक शहर होने के कारण वह बहुत व्यवस्थित बसा हुआ था। हम उनकी बतायी हुई जगह पर पहुंचे तो देखा कि वहाँ तो सभी बंगले एक ही साईज़ के हैं। वास्तव में उस क्षेत्र में स्थित प्लांट ने अपने अधिकारियों के लिए बडे़ बंगले बनाये हुए थे, और राज्य सरकार के कहने पर कुछ बंगले प्रशासनिक अधिकारियों को आंबटित कर दिये थे। चूँकि इतने बडे़ क्षेत्र में, जहाँ सभी बंगले एक से दिखते हों, वहाँ एक घर खोजना बडा़ दिक्कत वाला काम था। काफी भटकने के बाद हमने फोन से उनका लोकेशन लिया। अब तक हमारा ड्राईवर कंझा गया था। फोन पर हमें बताया गया कि उनके गेट पर एक गाॅर्ड खडा़ है, जो आपको रिसीव करके अंदर लायेगा। काफी देर तक इधर-उधर घूमने के बाद आख़िरकार हमें एक गार्ड दिखाई पडा़। गाड़ी बाहर खड़ी कर हम अन्दर पहंुचे। हमें ड्राईंगरूम में बिठाया गया। सारा ड्राईंगरूम हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों और फोटो से सजा हुआ था। मैं सोचने लगा माना कि जाति छुपाना मजबूरी हो सकती है, पर अपने-आपको पूरी तरह पुजारी जैसा शो करना तो किसी भी स्थिति में मजबूरी नहीं हो सकती है। खै़र हमारे समक्ष वो आईपीएस महाराज प्रकट हुए। मैंने जोश में भरकर जय भीम साहब कहा, इस पर उनका उत्तर नमस्कार में आया। फिर उन्होंने आवाज़ लगायी पाण्डेजी जरा पानी तो लेकर आओ। उनके आदेश पर पाण्डे महाराज पानी लेकर अवतरित हुए। हम पानी पीकर सहज हुए। हमारे बीच सामान्य औपचारिक बातें प्रारंभ हुईं। थोडी़ देर बाद उन्होंने आवाज़़ लगाई तिवारीजी, त्रिवेदीजी जरा नाश्ता लेकर आईये। उनका आदेश था कि तिवारीजी और त्रिवेदीजी रेडीमेड नाश्ते की कई सारी प्लेटें हमारे सामने सजाने लगे। काजू-किशमिश, काजू कतली, के अलावा पेडे़-बफ़ऱ्ी आदि न जाने कितनी मिठाईंयाँ एवं नमकीन की ढेर सारी प्लेटें हमारे सामने सजा दी गईं। रेडीमेड नाश्ते को देखकर हमारी तो भूख ही मर गई। तो भी औपचारिकताएं निभाने के लिये हमने धीरे-धीरे खाना शुरू किया। इस बीच जे़वरों से लदी-फदी उनकी धर्मपत्नी भी प्रकट हो गई।
बातचीत के दौरान साहब ने राधेश्याम के परिवार के बारे में पूछना शुरू किया। उसके यह बताने पर कि वह बेहद गरीब परिवार से बिलांग करता है, उन दोनों पति-पत्नियों के चेहरों के भाव बदलने लगे। अब शुरू हुआ साहब और मैडम का अपनी सम्पन्नता की शेखी बघारने का दौर। मैंने उनकी शेखी को और हवा देते हुए कहा कि आपका बंगला तो बहुत बड़ा है। इस पर उनकी मैडम ने कहना शुरू किया-अरे हम लोगों को तो इससे डबल साईज़ के बंगले की पात्रता है, लेकिन बच्चों की पढ़ाई के कारण हमें इस छोटे से बंगले में रहना पड़ रहा है। बातों ही बातों में उन्होंने यह भी जता दिया कि उनकी लड़की को ट्रेन में सफ़र करना पसंद नहीं है। वह हमेशा फ्लाईट से ही आना-जाना करती है। मंैने उनके इगो को और हवा देते हुए कहा-बंगले के बाहर आठ-दस गाड़ियां हैं। इस पर साहब ने बताया कि अरे अभी तो आठ-दस ही दिख रही हैं। मैं तो पन्द्रह-बीस सरकारी गाड़ियाँ अपने बंगले में खड़े रखवाता हूँ। मेरे तीनों बच्चों को अलग-अलग गाड़ियां चलाने का शौक है। अब तक हम समझ चुके थे कि इनकी बेटी बेहद सुविधा-साधनों के बीच पली-बढी़ है, ऐसेे में एक गरीब पति के साथ एडजेस्टमेण्ट में बड़ी दिक्कत हो जायेगी। पर मूल प्रश्न यह था कि आखि़र जिस लडकी को हम देखने आये हंै, वह है कहाँ? इस बीच जींस पैण्ट और टी-शर्ट पहनी हुई एक औसत रंग और कद-काठी की लड़की परदे के पीछे से हमें झाँककर अन्दर जा चुकी थी। मैंने अनुमान लगाया कि शायद वही उनकी सुपुत्री है, पर अब तक उसे बुलाया क्यों नहीं गया है? यह प्रश्न मेरे दिमाग में लगातार घूमने लगा। इस बीच साहब की धर्म-पत्नी उठकर अन्दर चली गई। इस दौरान मुझे मूत्र विसर्जन के लिए जाने की आवश्यकता महसूस होने लगी। मंैने साहब से इशारे से पूछा तो उन्होंने अन्दर का रास्ता बताया। मैं टाॅयलेट के नज़दीक पहंुचा ही था, कि मुझे एक लड़की की आवाज़़ सुनाई पडी़-मम्मी मैं उस काले-कलूटे से गरीब लड़के से शादी नहीं करूंगी और न ही उसके सामने जाऊंगी। अब तक मुझे स्पष्ट समझ आ गया था कि लड़की ने राधेश्याम को नापसंद कर दिया है।
मैं टाॅयलेट से बाहर आया। इस बीच ड्राईंगरूम में चर्चा आरक्षण पर आ गई थी। साहब राज्य सरकार को कोस रहे थे कि उन्होने एससी के 16 प्रतिशत् आरक्षण को कम करके 12 प्रतिशत् कर दिया है। इससे बडी़ तकलीफ़़ हो रही है। उनके दोनों लड़के बेरोजगार हैं। मेरा जी चाहा कि मैं उनसे कहूं कि आपके जैसे लोग रहें तो आरक्षण ख़त्म होने में ज़रा भी समय नहीं लगेगा। मुझे तोे कन्फर्म हो ही गया था कि लड़की ने राधेश्याम को रिजेक्ट कर दिया है। मैंने यह जानने के लिए उनके यह ठाठ कब तक रहने वाले हंै, साहब से एक अप्रिय सा सवाल पूछ लिया कि साहब आपके रिटायरमेंट में कितने साल बचे हुए हैं। साहब के चेहरे से यह प्रकट हो गया था कि वाकई में यह सवाल उनके लिए बेहद अप्रिय है। इस पर अचानक वे जोश में आकर बोले रिटायरमेंट के बाद भी मेरी पेंशन इतनी रहेगी कि मैं अपने और अपने बच्चों के ठाठ-बाट को बरकरार रख सकूं। थोडी़ देर बाद उन्होंने फिर आवाज़ लगाई-चैबेजी चाय-काफी लेते हुए आना। हम चाय की चुस्कियाँ ले ही रहे थे कि उनकी धर्मपत्नी ने आकर हमसे कहा कि हमारी बेटी तो दोपहर की फ्लाॅइट से दिल्ली चली गई है। अब हम वापस आने के लिये उठ खडे़ हुए। साहब ने वहीं से हमें विदा कर गाॅर्ड को आवाज लगाई-शर्मा इन साहब लोगों को ज़रा गेट तक छोड़ आओ।
वापसी में हमारे बीच जंगल के वीराने सी खामोशी बिखरी पड़ी हुई थी, और विद्यमान था तो एक किलेनुमा दीमकों का ढूह उस साहब के अस्तित्व के रूप में। मैं सोच रहा था कि रिटायरमेण्ट के बाद ठाठ से तो वे रह लेंगे, लेकिन वे इन तिवारी, त्रिपाठी, चैबे और शर्मा जैसे लोगों को अपने नौकरों की भाँति कैसे रख पायेंगे।
6 केंचुए
हमारा पुराना मोहल्ला तालाबों से घिरा हुआ था। हांडी तरिया, आमा तरिया घोरई तरिया, धोबी तरिया आदि बहुत से तालाब हमारे घर के आस-पास थे। इन तालाबों में हांडी तरिया सबसे बड़ा था। इसमें मछली पकड़ने का ठेका होता था, सो यहाँ मछली पकड़ने की सख़्त मनाही थी। हम किराने की दुकान से दस पैसे में मछली पकड़ने वाली गरी (काँटा) लेकर आते, और उसे पतंग उडा़ने वाले माँझे से बाँधकर और कांटे में चारा फंसाकर दूसरे तालाबों या डबरियों में जाकर मछलियां पकड़ा करते थे। हम पाँच दोस्तों की टोली थी। मेरे शेष चार दोस्त नम जगहों पर बडे़-बडे़ पत्थरों को उठाकर देखते। इन पत्थर के नीचे बिना रीढ़ वाले केंचुए बिलबिलाते रहते। कई एकदम मोटे, कई मध्यम तो कई एकदम पतले होते थे। उनकी बिलबिलाहट मुझमें घिन पैदा कर देती थी, और मुझे उबकाई सी आने लगती थी। मेरे दोस्तोें को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। वे बडे़ आराम से मोटे-मोटे केंचुओं को उठाते और बडे़ ही ध्यान से उन्हंे अपने-अपने काँटों में गूंथ देते। मैं ऐसा कर पाने की कल्पना भी नहीं कर पाता था। मैं घर से आटे की लेई लेकर जाता, और उसे अपने काँटे पर जैसे-तैसे लगाता। हम सभी गरी डालकर आराम से बैठ जाते। उनके काँटे में धडा़धड़ मछलियाँ फँसती जातीं, जबकि मेरे काँटे में लगा आटे वाला चारा धीरे-धीरे काँटे से छूट जाता, और मेरा काँटा खाली हो जाता। कभी बाईचाँस एकाध मछली पकड़ में आती भी तो मैं उसकी छटपटाहट देखकर घबरा जाता। मैं उसे काँटे से निकाल ही नहीं पाता। काँटे से बाहर निकालने में मेरे दोस्त मेरी मदद करते। काँटे से निकलकर मछलियाँ बुरी तरह छटपटातीं, तो मैं उन्हें वापस पानी में छोड़ देता। मेरे दोस्त मेरा खूब मजाक बनाते और मुझे फट्टू-फट्टू कहकर चिढ़ाते। दरअसल हम दलित वर्ग के लोग भी नम पत्थरों के नीचे पाये जाने वाले रीढ़-विहीन केंचुए की तरह ही हो जाते हैं, जो अपनी-अपनी जातियों और उपजातियों में फँसे हुए बिलबिलाते रहते हैं, और दूसरे लोग बडे़ आराम से हमें चारे की तरह अपने कांटे में गूंथकर इस्तेमाल करते हैं।
मेरी काॅलोनी शहर के आउटर में स्थित है। मैंने अपना वो पुराना वाला मोहल्ला छोड़ दिया है। एक छुट्टी वाले दिन मैं अपने घर पर बैठा टी.वी.देख रहा था। पत्नी मायके गई हुई थी। अचानक मुझे अपने घर के लोहे के गेट पर हल्की सी खटखटाहट सुनाई पडी़। मैंने बाहर निकलकर देखा तो पाया कि गेट पर मैले-कुचैले कपडे़ पहनी हुई एक कुपोषित सी दिखने वाली महिला अपने कुपोषित से बच्चे के साथ खड़ी़ हुई है। मुझे लगा वह भीख मांगने के लिए खड़ी़ हुई है, तो भी मैंने उससे पूछ ही लिया-क्या चाहिये ? इस पर उसने कहा कि उसे काम चाहिए। मैंने उससे फिर पूछा- कहाँ से आई हो? तो उसने बताया कि वह उडी़सा के कालाहांडी ज़िले की रहने वाली है। कालाहांडी जिले का नाम सुनते ही मेरे सामने भीषण अकाल की तस्वीर आ गई। क्योंकि उडी़सा के कालाहांडी जिले में अकाल से संबंधित हमने इतनी सारी बातें सुन रखी थी कि वह एक तरह से अकाल का पर्याय ही बन गया था। अचानक मुझे उससे सहानुभूति सी होने लगी, और मैंने उसे अन्दर बुला लिया। मेरे द्वारा सोफ़े पर बैठने को कहने पर वह संकोच करने लगी। मेरे ज़ोर देने पर वह सकुचाती हुई सी सोफ़े पर बैठ गई। मैंने देखा वह एकदम सूखी सी थी। उसके दांत बडे़-बडे़ से थे। मैले-कुचैले कपडांे़ में वह बेहद ही बदसूरत लग रही थी। उसकी बच्ची भी पिनपिनी सी थी। हमें वैसे भी घर के काम के लिए एक बाई की जरूरत थी। हमारी अच्छी आर्थिक स्थिति के बावजूद और ज़्यादह पैसे देने पर भी लोकल बाइयाँ हमारी छोटी जात के कारण हमारे घर काम नहीं करना चाहती थीं। मेरी पत्नी खीझती-झींकती सी घर का काम किया करती थी। सामने बैठी महिला हमारे घर का काम कर सकती थी। मैंने उससे उसका नाम पूछा और उसने अपने सरनेम के साथ पूरा नाम बताया। उसका सरनेम सुनकर मेरी बांछंे खिल उठीं। दलित आंदोलनों से जुडे़ मेरे कुछ मित्र उडी़सा के थे, सो मैं उडीसा के दलित सरनेमों के बारे में जानता था। उस महिला का दलित सरनेम जानकर मुझे बडा़ अच्छा लगा, और मुझे उसके साथ अचानक एक अपनापन सा महसूस होने लगा। मैंने उससे पूछा कि अभी तुम कहां रहती हो? तो उसने बताया कि यहीं नजदीक की एक नाले से लगी हुई बस्ती में किसी दूर के रिश्तेदार के यहां हम लोग ठहरे हुए हैं। मंैने उससे कहा कि मेरी पत्नी का मायका नज़दीक ही है। वह शाम को वापस आ जायेगी। तुम कल आना। हाँ बोलकर वह चली गई। शाम को पत्नी के आने पर मैंने उसे उस बाई के बारे में बताया। पत्नी ने आश्ंाकित होकर कहा कि किसी को भी कैसे काम पर रख लें। वह तो हमारे प्रदेश की भी नहीं है। कल को कुछ उल्टा-सीधा करके भाग गई तो हम उसे कहाँ-कहाँ ढूंढते फिरेंगे। मंैने उससे कहा कि मैं अपने उडी़सा के मित्रों से कहकर उसके पते का सत्यापन करा लंूगा। फिर हमें बाई की जरूरत भी तो है। तुम दिन भर खटती रहती हो, मुझसे देखा नहीं जाता कहकर मैंने अपनी पत्नी को भावनात्मक रूप से छेड़ा। मेरा दलित मन कह रहा था कि मुझे हर हाल में उस बाई की मदद करना ही है। फिर मैंने अपनी पत्नी को दलित आंदोलन की दुहाई देते हुए कहा कि हमें अपने दलित समाज के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए। अगर वह बाई ठीक-ठाक रही, तो हम उसकी बच्ची का स्कूल में एडमिशन भी करा देंगे। इस पर पत्नी ने कहा-कल जब वह आयेगी, तो देखेंगे कि उसे रखना है, या नहीं। अगले दिन वह आई। मेरी पत्नी ने उससे दो चार-बातें की। पत्नी के यह पूछने पर कि वह महीने के कितने रूपये लेगी? वह एकदम निरीह सी होकर बोली-आप जितना दे दो, मुझे तो काम की बहुत ज़रूरत है। हमने उसे लोकल बाइयों को दिये जाने वाले रेट से कुछ ज़्यादह ही देना तय किया, और वह बेहद प्रसन्न होकर चली गई। हम उसकी बच्ची को रोज ही खाने-पीने की बहुत सी चीजें़ दे दिया करते थे। हमने उसे सिर्फ़ झाड़ू-पोछा और बर्तन के लिए रखा थी, और उसका ये सारा काम डेढ़ घण्टे में निपट जाता था, तो भी हम उसकी परिस्थिति को देखते हुए उसे सुबह का खाना खिला देते थे। हमने कभी भी उसे बासी खाना नहीं खिलाया। हमेशा ताज़ा और गर्म खाना ही खिलाया।
अब उस बाई के चेहरे पर रौनक सी रहने लगी, और वह गुनगुनाती हुई सी अपना काम करती। हम पति-पत्नी को एक दलित महिला के लिए कुछ करने का आत्मसंतोष था। कुछ दिनों बाद उसने बताया कि जिस रिश्तेदार के घर पर वे लोग रूके हुए हैं, वह अब उन्हंे अलग रहनेे के लिए कह रहा है। चूँकि हमारी काॅलोनी आउटर पर बसी हुई थी और शहर के नज़दीक होने के बावजूद हमारी काॅलोनी के चारों तरफ खेत थे। इन खेतों का मालिक मेरा मित्र था। खेतों के बीच में उसका एक पंपहाउस था, जहां से नलकूप द्वारा वह खेतों की ंिसचाई किया करता था। उसका पंपहाउस काफ़ी बड़ा था। उसमें दो कमरे थे। मेरे कहने पर उसने मेरी बाई के परिवार को यूँ ही बिना किसी किराये के अपना पंप हाऊस रहने को दे दिया। उन कमरों में दो खाटें पहले से थीं। वहाँ गृहस्थी का भी कुछ सामान पहले से था। मतलब मेरी बाई को सिर्फ़ वहां जाकर रहना ही था। अब मेरी उस बाई का परिवार आराम से रहने लगा। एक दिन मेरी बाई ने मुझसे कहा भैया मेरा आदमी सायकल-रिक्शा चलाना चाहता है, लेकिन जान-पहचान नहीं होने के कारण उसे कोई भी स्टोर्स वाला रिक्शा नहीं देता है। उसके ऐसा कहने पर मैंने अपनी गारण्टी पर उसके आदमी को रिक्शा दिला दिया। अब पति-पत्नी दोनों ही अच्छा कमाने-खाने लगे थे। अब मुझे लगने लगा कि वे लोग अच्छे से सेट हो चुके हैं। कुछ दिनों बाद बरसात का मौसम आ गया। एक दिन वह बाई मुझसे कहने लगी-भैय्या वो घर तो खेतों के बीच में है। वहां पर हमेशा ही साँप-बिच्छू का ख़तरा बना रहता है। मेरी छोटी बच्ची है। हमें तो हमेशा ही डर बना रहता है। भैय्या कहीं दूसरी जगह रहने की व्यवस्था करा दीजिए ना।
मैंने अपने घर की छत पर एक कमरा बना रखा था, जिसे हम स्टोर के रूप में उपयोग करते थे। उस कमरे में अटैच्ड लेट-बाथ भी था। मैंने वह कमरा उन्हें देने के लिये अपनी पत्नी से बात की। थोडी़ ना-नुकुर के बाद उसने भी हामी भर दी, और फिर वे लोग हमारे घर पर ही उपर वाले कमरे में रहने लगे। अब तक साल भर हो चुका था। एक दिन बाई ने मुझसे कहा कि भैया मैंने सुना है कि गरीब लोगांे को सरकार रहने के लिये मकान देती है। मेरे हाँ कहने पर उसने कहा भैय्या हमें भी कहीं एक मकान दिलवा दीजिए ना। अब तक मुझे लगने लगा था कि उसकी माँगंे दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, पर मेरे दलित मन से हमेशा आवाज़ आती कि इन गरीब दलितों की मदद हम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा। हालांकि उसे मकान दिलाना आसान नहीं था। कई तरह से पापड़ बेलने पड़ते। बहुत ज़्यादह भागदौड़ करनी पड़ती। साम-दाम-दण्ड-भेद सभी का समान रूप से प्रयोग करना पड़ता, सो मंैने उस वक़्त तो देखता हूँ कहकर बात टाल दी। इस दौरान काम करते-करते वह कई बार हमसे कहती-भैया लोगोे के पास तीन-तीन, चार-चार घर होते हंै, हमारे पास एक भी नहीं है। ऐसा कहते हुए बेघर होने की कसक उसके चेहरे से स्पष्ट झलकती थी। मुझे भी लगता कि घर तो एक बुनियादी जरूरत है। इसे घर दिलाना ही होगा। मंैने खूब भागदौड़ की। तमाम तरह के उपाय अपनाये और भारी उठा-पटक करके आख़िरकार गरीबांे को मकान दिलाने वाली योजना में उसे मकान दिलवा ही दिया। बहुत ही मामूली किस्तांे में वह मकान उन्हें मिल गया था। वे लोग खुशी-खुशी अपने घर पर रहने चले गये। उनका घर हमारे घर से बहुत ज़्यादह दूर नहीं था। वह हमारे घर काम पर आती रही। वह बेहद खुश लगती थी। उसको खुश देखकर हमें भी खुशी होती थी।
एक दिन वह किसी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल का दो सौ रूपये का फार्म लेकर आई और मुझसे कहने लगी भैय्या मैं और मेरा आदमी तो अंगूठा छाप हैं। आप ये फारम भर दीजिए। मैं अपनी बच्ची को अंगरेज़ी स्कूल में पढा़ना चाहती हूँ। अब मेरा माथा ठनका। माना कि शिक्षा बुनियादी अधिकार है, पर अंगरेज़ी स्कूल में पढा़ना तो बिल्कुल ही अव्यावहारिक है, विशेषकर उन परिस्थितियों में, जबकि मां-बाप दोनांे ही निरक्षर हांे। मंैने उससे कहा कि स्कूल में होमवर्क भी मिलता है। तुम दोनों तो पढ़ना-लिखना जानते नहीं हो, तो तुम्हारी बच्ची को तो बहुत दिक्कत हो जाएगी। इस पर उसने बडे़ आराम से कह दिया कि होमवर्क के लिए मैं ट्यूशन लगवा दूंगी। मेरी पत्नी ने भी उसे समझाने की कोशिश की कि सरकारी हिन्दी मीडियम की स्कूल में भरती करा दे, तो बारहवीं क्ॅलास तक कोई फ़ीस नहीं लगेगी। बल्कि स्कूल में दोपहर का खाना भी मिलेगा। इस पर उसने पलटकर कह दिया कि आप लोग तो अपने बच्चों को प्राॅयवेट अंग्रेज़ी मीडियम में पढा़ते हंै, और हमसे सरकारी हिन्दी मीडियम में पढ़ाने को कहते हैं। मध्यान्ह भोजन पर उसने कहा हम लोग कोई भूखे-नंगे थोडे़ ही हैं। अब जब उसने ठान ही रखा था, तो हम कुछ नहीं कर सकते थे। उसने अपनी बच्ची का दाखिला अंग्रेज़ी मीडियम की स्कूल में करा दिया।
कुछ दिनों बाद मेरी इच्छा हुई कि जरा उस बाई के घर जाकर देखा जाये कि वे लोग किस तरह से रह रहे हैं। मै उनके घर पहुंचा और दरवाज़ा खटखटाया, तो एक एकदम ही अपरिचित चेहरा बाहर निकला। मुझे लगा कि मैंने कोई ग़लत दरवाज़ा तो नहीं खटखटा दिया है। मैंने अपनी बाई का नाम लेते हुए पूछा कि भइया ये लोग किस मकान में रहते हैं। इस पर उस आदमी ने बताया कि ये मकान उन्हीं के नाम पर था, लेकिन उन्हांेने मुझे एक लाख रूपये में यह मकान बेच दिया है, और खुद नज़दीक ही किराये से रहते हैं। इतना सुनते ही मेरा पारा गरम हो गया। मैं तुरंत ही उस आदमी के बताये पते पर पहंुचा। वहां देखा बाई और उसका आदमी दोनांे ही बाहर खाट पर बैठकर दारू पी रहे हैं। यह देखकर मेरा गुस्सा और भड़क गया। मंैने तमतमाते हुए कहा-ये क्या तरीका है, मंैने तुम लोगों को इतनी मुश्किल से मकान दिलाया और तुमने उसे दूसरे को बेच दिया। इस पर बाई का जवाब सुनकर मै दंग रह गया। उसने कहा बेचते नहीं तो और क्या करते। उस बिल्ंिडग में सारे चमार और भंगी जाति के लोग ही रहते थे। हम उन नीच जात के बीच में भला कैसे रहते। आपको भी वही मकान मिला था, हमें दिलाने को। अब तक मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। मैंने कहा-साले तो तुम लोग बांभन-ठाकुर हो क्या। इस पर उसने कहा भले ही हमारी जाति छोटी है, पर हम इतने गये-गुजरे नहीं हैं कि भंगियों के साथ रहंे। उसके इस उत्तर से मेरे दलित आंदोलन के फुग्गे में सुई चुभ गई थी और सारे फुग्गे की हवा बाहर निकल गई थी। घर पहंुचकर मैंने अपनी पत्नी को सारा किस्सा बताया इस पर उसने अपना निर्णय सुना दिया कि आज चार तारीख़ है। यह महीना खत्म होते ही उस बाई को हम अपना निर्णय सुना देंगे कि अब हम उसे नहीं रखेंगे। उस दिन के बाद बाई आती रही, लेकिन हम उससे सिर्फ़ औपचारिक बातें ही करते थे। मन खट्टा सा हो गया था। कुछ दिनों बाद मेरे साले की सगाई का कार्यक्रम मेरे ही घर से संपन्न होना था। सगाई वाले दिन आम्बेडकर और बुध्द की फोटो के सामने परित्राण पाठ का आयोजन भी था। सगाई कार्यक्रम दिन का था। शाम तक जूठे बर्तनों का ढे़र लग चुका था। शाम को बाई आई और हमसे कहने लगी- आप लोगों ने हमें धोखा दिया है। उसके इस वाक्य से हम हतप्रभ रह गये। मैंने पूछा-कैसे? तो उसने कहा कि आप लोगांे ने हमें बताया नहीं कि आप अंबेडकर की जात के हैं। हमारी जाति छोटी जरूर है, पर अम्बेडकर की जात से बडी़ है। मुझे यहां की कई सारी बाइयों ने बताया था कि आप लोग छोटी जाति के हैं। अब मैं नीच जाति के घर पर जूठे बर्तन नहीं मांजूगी, कहकर वह झटके के साथ चली गई। हम दोनो पति-पत्नी को ऐसा महसूस हुआ, मानों किसी ने हमें पुरस्कार के बदले झनाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया हो।
7 पिटपिटी
हम जब प्रायमरी स्कूल में पढ़ते थे, उस वक़्त हमारा शहर, शहर न होकर कस्बे की तरह ही था। हमारे मुहल्ले से लगकर ही खेत शुरू हो जाते थे। फिर थोडा़ और आगे जाने पर रेलवे-लाईन आ जाती थी। रेलवे-लाईन की दूसरी तरफ एक गंदी बस्ती थी, और फिर उसके बाद जहां तक देखो, खेत ही खेत नज़र आते थे। हमारे मुहल्ले में हमारा ही घर बडा़ और पक्का था, जबकि बाकी सारे घर कच्चे खपरैल वाले हुआ करते थे। हमारे यहां शौचालय था, जबकि मेरे किसी भी दोस्त के घर में शौचालय नहीं था। वे दिशा-मैदान के लिए खेतों की तरफ़़ जाते थे। मुझे भी उनके साथ बाहर दिशा-मैदान के लिए जाना अच्छा लगता था। हम बातें करते-करते अक्सर रेलवे-लाईन के आस-पास पहंुच जाते। उस रेलवे- लाइन की दोनांे तरफ़़ रेलवे की जमीनें थीं। वहां हमेशा ही पानी भरा हुआ होता था। वहां कुछ लोग कमल के फूलों की खेती किया करते थे। वहां पर कुछ भागों में कोमल-कोमल दूब के मैदान जैसे क्षेत्र भी थे। उस सारे क्षेत्र में सांपों की भरमार थी। वहां सभी तरह के सांप पाये जाते थे। हमें सबसे ज़्यादह आकर्षित करते थे पिटपिटी सांप। ये सांप हरे रंग के पतले से होते थे, जो कि गुच्छों की शक्ल में हज़ारों की तादाद में होते थे। इन सांपों के बारे में यह भी किवंदती थी कि ये बारिश के साथ ही बादलों से करोडो़ं की संख्या में, गुच्छों की शक्ल में धरती पर बरसते हंै। कई लोग बादलों से इन सांपों की बारिश देखने का दावा भी करते थे। ख़ैर हमें वहीं एक पुलिया पर बैठकर इन सांपों की गतिविधियांे को देखना बडा़ ही अच्छा लगता था। हम प्रायः देखते कि पानी वाले दूसरे बड़े सांप जैसे ढोड़िया-असोढ़िया आदि उन्हें ज़ि़न्दा ही निगल जाते थे। पानी वाले ढोड़िया सांपों से हमे बिल्कुल भी डर नहीं लगता था क्योंकि ढोड़िया सांप के बारे में यह कहा जाता था कि उसके काटने से एक गांजे जितना नशा होता है। असोढ़िया सांप के बारे में यह बात प्रचलित थी कि वह बेहद लंबा होने के बावजूद काटता नहीं है, बल्कि कई मौकों पर मनुष्यों की मदद भी करता है। कुछ तो यहां तक कहते कि तुलसीदास रत्ना से मिलने जाते समय इसी सांप को रस्सी समझ बैठे थे। ढोड़िया-असोढ़िया तक तो बात ठीक थी, पर धीरे-धीरे हम देखते कि दूसरे बडे़-बडे़ ज़हरीले सांप भी बाहर निकल कर उन पिटपिटी सांपों का शिकार कर रहे हंै। कई बार तो हमने देखा कि बडे़ साईज के मेंढक भी उन निरीह पिटपिटी सांपों का शिकार कर लेते हैं। दूसरे ज़हरीले सांपांे की उपस्थिति के कारण वह जगह धीरे-धीरे ख़तरनाक होती जा रही थी, सो हमने उधर जाना छोड़ दिया।
प्रायमरी से लेकर मिडिल स्कूल तक पिछडी़ जाति का एक लड़का मेरे साथ पढ़ता था। वह हमारे शहर से 15 कि.मी. की दूरी पर हाईवे के किनारे स्थित एक गांव से रोज सायकल से स्कूल आता-जाता था। उसका गांव दूसरे गांवों की तुलना में ज़्यादह ही चहल-पहल वाला हुआ करता था। हाईवे के किनारे स्थित होने के कारण उसके गांव तक उस समय के हिसाब से आने-जाने के पर्याप्त साधन थे, तो भी वह सायकल से ही स्कूल आया-जाया करता था। उस वक़्त हालांकि लोग अभावग्रस्त होते थे, तो भी उनका दिल बडा़ होता था। लोगों का परस्पर एक दूसरे के घरांे मे आना-जाना लगा रहता था। वे एक दूसरे को देखकर खुश हो जाया करते थे। हमारा वह साथी हमें ज़िद करके हमें अपने घर ले जाता था। हम पांच दोस्त थे। वह छुट्टी के दिन सुबह से ही हमारे घर पर आ जाता, और हमें अपने साथ ले जाता। हम अपनी-अपनी सायकलें लेकर उसके साथ ही हो लेते। हम दिनभर उसके घर में रहते, खाते-पीते और शाम होने के पहले मस्ती करते हुए वापस घर लौट आते।
हमारे शहर और उसके गांव को एक नदी विभाजित करती थी। हम दोपहर में नदी के किनारे बैठकर मछलियों को चारा डालते रहते थे। हमारा समय कैसे बीत जाता है, हमें पता ही नहीं चल पाता था। वहां पर उसके दो-तीन दोस्त और मिल जाते, और हमारी एक वानर सेना सी बन जाती थी। मेरे उस मित्र के पिता बडे़ ही धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। उन्हांेने अपने घर के आंगन मेे एक देवी का मंदिर स्थापित कर रखा था, और वे नियमित रूप से उस देवी की पूजा किया करते थे। उस देवी के मंदिर का मुख मुख्यमार्ग की तरफ होने से वह मंदिर निजी न होकर, सार्वजनिक जैसा ही था। चूंकि वह मंदिर मुख्य सड़क से पचास-साठ फीट दूर था और एक पेड़ की आड़ में था, सो वह हाईवे से गुजरने वालों की नज़रों में एकाएक नहीं आ पाता था, इसलिए कुछ राहगीर ही वहां पूजा-पाठ करते और थोडा़-बहुत चढा़वा और नारियल चढ़ाकर आगे बढ़ जाते। हमंे वहां हमेशा नारियल खाने को मिलता था। एक तरह से हमारी नारियल पार्टी ही हो जाया करती थी। दोस्त के घर से लगकर ही उनके खेत भी थे। उनके घर से लगी हुई बाड़ी़ में तरह-तरह की सब्जियां लगी होती थीं। हम वहां कई दिनों तक जाते रहे। इस बीच उस सड़क पर आवाजाही बढ़ने लगी, और आये दिन हम वहां एक्सीडेंट की ख़बरें पढा़ करते थे, इसलिए हमारे घर में उस ख़तरनाक हाईवे पर जाने के लिए सख़्त मनाही हो गई थी। धीरे-धीरे हमारा वहां जाना कम होते-होते खत्म सा हो गया था। हमारा वह मित्र भी मिडिल स्कूल के बाद पढा़ई छोड़ चुका था। हालांकि हमारा वहां जाना ख़त्म सा हो गया था, पर चंूकि हम शहर में रहते थे और उसके गांव की निर्भरता हमारे शहर पर थी, इसलिये वह हमारे शहर आता-जाता रहता और हमसे उसकी मुलाकात गाहे-बगाहे होती ही रहती थी। उसने बताया था कि वह अपने पिता के साथ खेती का काम करने लगा है। चूंकि वह उन्नत तरीके से खेती करने में यक़ीन रखता था, सो वह उन्नत खेती से संबंधित साजो-सामान खरीदने शहर आया करता था। समय तेज़ गति से दौड़ता रहा। इस बीच मेरी काॅलेज़ की पढा़ई पूरी हो चुकी थी, और मैं नौकरी की तलाश में था। मुझे इंटरव्यू के सिलसिले में दूसरे शहर जाना होता, तो अकसर उसके गांव से होकर ही गुजरना होता था। टू लेन वाला वह हाईवे अब फोरलेन में तब्दील हो गया था। और वह गांव नगर पालिका में बदल गया था। उधर से गुजरते हुए मेरी दृष्टि अनायास ही अपने उस दोस्त के घर की तरफ़़ चली जाती थी। मैं देखता कि अब मेरे उस मित्र का घर बिल्कुल ही सड़क के किनारे आ गया है। मंदिर भी अब बडा़ हो गया है, और वहां पर दर्शन करने के लिये ट्रकों की लाईनें लगी रहती हैं। वहां नारियल-अगरबत्ती बेचने वालों ने भी अपनी दुकानें खोल ली हैं। वहां पूजा-पाठ करने वालांे का रेला सा लगा रहता है। मैंने एक बार बस के कण्डक्टर से पूछा था कि यहां इतनी भीड़ क्यों रहती है, तो उसने बताया था कि यहां के देवी मंदिर की बहुत मान्यता है। यह वरदानी देवी है।
कुछ दिनों बाद मुझे अपने नजदीक के जिले के कलेक्ट्रेट में सरकारी नौकरी लग गई। मेरा आॅफ़िस कोर्ट के ठीक सामने ही था। मेरे दोस्त का गांव भी उसी जिले में आता था। एक दिन मैंने देखा कि मेरा वह दोस्त कोर्ट से हैरान-परेशान सा बाहर निकल रहा है। मैं दौड़कर उसके नज़दीक पहुंचा। मैं उसके मनोभाव से नितांत अनभिज्ञ चहकता हुआ सा बोल पडा़- अबे अपनी देवी की तो बहुत मान्यता हो गई है। सब लोग उसे वरदानी देवी बोलते हैं। बेटा चढा़वा भी खूब आता होगा। इस पर वह रूआंसा होकर बोला-यार वह मंदिर ही हमारे जी का जंजाल बन गया है। हमारे गांव के एक ब्राह्मण बिल्डर की नज़र हमारी ज़मीन पर गड़ी़ हुई थी। हाईवे के फोरलेन हो जाने के बाद हमारी जमीन करोडांे़ रूपये की हो गई है। वह हम पर हमारी जमीन औने-पौने दाम पर बेच देने के लिए दबाव बनाता रहा। इसमें कामयाब नहीं हो पाने पर उसने दूसरी चाल चली। उसने सार्वजनिक तौर पर यह बात सिध्द कर दी कि एक पिछड़ी जाति का व्यक्ति किसी देवी के मंदिर का पुजारी नहीं हो सकता। उसने हमसे हमारा मंदिर छीन लिया है। और दूसरे प्रदेश से अपने भाई-भतीजों को लाकर उन्हें मंदिर का पुजारी बना दिया है। मंदिर के पूरे चढा़वे पर उसके गुर्गों का ही कब्जा है। वहां पर नारियल-अगरबत्ती की जो दुकानें हैं, वे भी उसके गुर्गाे की ही हंै। यार सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारे अपने आदिवासी और पिछडे़ भाई भी उसकी इस बात पर सहमत हो गये हैं कि किसी देवी मंदिर का पुजारी तो एक ब्राम्हण ही हो सकता है। उसने वहां के पटवारी से मिलकर हमारे रिकार्ड में हेराफेरी कर दी है और हम पर मारपीट का झूठा मुकदमा भी दायर कर रखा है। बस इसी सिलसिले में मेरा कोर्ट आना-जाना लगा रहता है।
अपने उस दोस्त की यह कहानी सुनकर मैं हैरान रह गया। मुझे लगने लगा हम अजा, अजजा और ओबीसी की हैसियत बिल्कुल ही पिटपिटी सांपांे की भांति ही हैं, जो संख्या में तो बहुत होते हैं, पर सामूहिक रूप से किसी बडे़ सांप का मुकाबला नहीं कर पाते हंै। और बडे़ सांप धीरे-धीरे हमें निगलते जाते हंै। यही हमारी नियति है।
8 सीलन
विवेक की नियुक्ति एक कस्बे में ग्रामीण अधिकारी के रूप में हुई थी। उसके साथ ही उससेे एक रेंक नीचे के पदांे पर भी भर्तियां हुई थीं। विवेक ने ज्वाइनिंग दे दी थी। उसे ब्लाॅक मुख्यालय से तीस कि.मी. दूर जाना था। वहाँ जाने के लिए उसे अगले ही दिन बस मिल सकती थी। सो उसे वहीं पर रात रूकना था। विवेक के पिता ने अपने एक दलित मित्र के बेटे अनिल का पता दे रखा था। वह भी उसी कस्बे में काम करता था, और विवेक की रैंक से एक रैंक नीचे था। वह राज्य की प्रमुख दलित जाति से था। उसने उसके घर पर रात रूकने की सोची। वह उसका पता साथ लेकर ही चला था। उसने दरवाज़ा खटखटाया। अनिल ने दरवाज़ा खोला और उसे बेमन से अंदर आने को कहा। विवेक ने उससे कहा कि उसे आज वहीं रात रूकना है, तो उसके चेहरे पर बेहद उपेक्षा के से भाव आ गये। वह कहने लगा यहाँ तो जगह नहीं है, लेकिन जब तुम आ ही गये हो, तो यहीं नीचे ज़मीन में सो जाना।
वह बरसात का मौसम था, और उस सारे कमरे में सीलन थी। छत में, दीवारों में और यहाँ तक की जमीन में भी सीलन भरी हुई थी। अनिल के पास डबलबेड का पलंग था, फिर भी वह उसे नीचे सोने को कह रहा था। फिर अनिल ने विवेक से औपचारिकतावश पूछा-खाना खाये हो, या नहीं? उसके यह बताने पर कि उसने खाना नहीं खाया है, उसने कहा-वहाँ पर सुबह का बासी चावल रखा हुआ है, अचार के साथ खा लेना। और हाँ अपने जूठे बर्तनों को धो भी देना। हम लोग महार लोगों से छुआ मानते हैं। उसके ये शब्द विवेक को अंदर तक हिला गये। उसके तन-बदन में आग़ सी लग गई। साले जिस अंबेडकर ने तुम्हें आरक्षण का लाभ दिलाकर इस स्थिति तक पहुँचाया, उसकी ही जाति से छुआ हालांकि विवेक का तो जी चाहा कि उसी समय उसको यह सब बोलकर और जी भरके गालियाँ देकर वहाँ से निकल जाये, पर रात बहुत हो जाने के कारण उसने सोचा कि जैसे-तैसे रात काट ली जाये। इसके अलावा उसे यह भी जानना जरूरी था कि एक दलित का दूसरे दलित के प्रति कितना घृणा भरा नज़रिया हो सकता है। यह उसके लिए एकदम नई बात थी। उसने सोचा कि चलो पता तो चले कि उसके अंदर कितना ज़़हर भरा हुआ है। सुबह का बासी खाना खिलाने के बाद उसने वहीं पर दरी डाल दी और विवेक उस पर लेट गया।
अब अनिल ने अपनी जाति और पंथ के बारे में गर्व से बताना शुरू किया कि हमारे इस पंथ में ऊँची जातियों से लेकर नीची जातियों के सभी लोग शामिल थे। सबसे पहले इसमें ऊँची जाति के सम्पन्न लोग शामिल हुए। चूँकि इस पंथ में सभी मनुष्यों के एक समान होने की बातें कही गई थीं सो इससे प्रभावित होकर बाद में नीची जाति के लोग इस पंथ को मानने लगे। सबसे ज़़्यादह चमार जाति के लोगांे ने हमारे पंथ को स्वीकार कर लिया। यहाँ के स्थानीय चमारांे ने इतनी ज़्यादह संख्या में हमारे पंथ को स्वीकार कर लिया कि हमारे पंथ की पहचान इन्ही जातियों के कारण होने लगी और बाद में हमारा पंथ नीच जाति के रूप में चिन्हित हो गया, और उसी रूप में अनुसूचित जाति के रूप में शामिल हो गया। हम लोग इस पंथ को मानने वाले ऊँची जाति के शुरूआती लोग हैं, जो ऊँची जाति के जमींदार वर्ग के हैं। इसी कारण आज भी हमारे पास 300 एकड़ खेत हंै।
विवेक नेे दलितों में इस तरह के सवर्णों की कभी कल्पना नहीं की थी, और अनिल तो पूरे तथ्यों के साथ अपने आपको सवर्ण साबित कर रहा था। और तो और दूसरी दलित जातियांे से छुआ मानने को अपना स्वाभाविक अधिकार भी मान रहा था। उसके तथ्यों को इस तरह उद्घाटित करने पर विवेक बुरी तरह तिलमिला गया। यह स्पष्ट था कि अनिल का उद्देश्य अपने आपको ऊँची जाति का बताते हुए विवेक में हीनता का बोध पैदा करना था। पर इससे विवेक में तिलमिलाहट पैदा हो गई और उसके मुँह से निकल गया-तब तो तुम लोगांे को आरक्षण का लाभ नहीं लेना चाहिए। उसकेे इस कथन से उसे साँप सूंघ गया और फिर उसके बाद उनके बीच ख़ामोशी पसर गयी।
थोड़ी देर बाद विवेक को दरी में भी सीलन का अहसास होने लगा। कमरे में लाईट जल रही थी। दीवारों पर भी चारों तरफ सीलन थी। उसे लगने लगा कि सीलन दरी से होते हुए उसके शरीर तक पहुँच रही है, और उसे बेहद लिजलिजी सी अनुभूति करा रही है। धीरे-धीरे उसेे ऐसा लगने लगा कि चारांे दीवारंे और छत भी अपनी-अपनी सीलन को समेटे हुए उसकी ओर झुक रही हैं। चारों ओर सीलन के लिजलिजेपन के अहसास के साथ उसने वहाँ रात गुजारी और सुबह होते ही बस स्टैण्ड की ओर चल दिया।
अनिल की भी फील्ड वाली नौकरी थी, और विवेक की भी। साप्ताहिक बैठकों के दौरान ही उनका आमना-सामना होता था। विवेक हमेशा ही उससे बचकर निकलने की कोशिश किया करता था। मीटिंग के खत्म होने और बस आने के दौरान विवेक के पास दो-तीन घण्टे का समय रहता था, तो वह उस कस्बे की एक लाॅयबे्ररी में बैठकर साहित्यिक पत्रिकाएँ पढ़ा करता था। एक दिन अनिल भी उसेे उसी लाॅयब्रेरी में मिल गया, और उसे साहित्यिक पत्रिका पढ़ता हुआ देखकर उसके करीब आकर कहने लगा-अरे यार आपको साहित्य पढ़ने में बड़ा इंटरेस्ट है, ऐसा लगता है। उसके हामी भरने पर उसने अपनी एक बेहद मोटी सी डायरी निकाली और यह कहते हुए कि मैं कविताएं भी लिखता हूँ, उसने अपनी पहाडा़ें नदियों और फूल-पत्तियों पर लिखी हुई कविताएँ सुनानी शुरू कर दी। उस दिन के बाद से तो वह हमेशा ही विवेक को अपनी कविताएँ सुनाने की फिराक़ में रहने लगा, जबकि वह उससे बचने की कोशिशें करने लगा। क्योंकि उसकी कविताएँ बेहद उबाऊ किस्म की होती थीं और वैचारिक तो किंचित भी नहीं होती थी। वह जब फंस ही जाता, तो उसकी कुछ कविताएँ सुन लेता। विवेक को अच्छा श्रोता जानकर अनिल ने उसके साथ संबंध बढ़ा़ने शुरू कर दिये, पर विवेक बेहद सतर्क होकर उससे औपचारिक सम्बन्ध मात्र ही बनाये रखना चाहता था। उसे तो ऐसा साहित्य पसंद था, जो दलित समाज को दिशा देता हो। एक सवर्ण छाप दलित द्वारा लिखी गई बकवास कविताएँ झेलने के लिए वह कतई तैयार नहीं था। ख़ै़र अनिल का पाॅलिटिकल बैकग्राउण्ड बडा़ तगडा़ था, सो कुछ ही महीनों बाद वह काॅलेज़ में हिन्दी का प्रोफेसर बन गया, और वह उस कस्बे से लगभग तीन सौ कि.मी. दूर एक दूसरे कस्बे में नियुक्त हो गया। बात आई-गइ्र्र हो गई। इधर विवेक भी अपने कामांे में व्यस्त हो गया था। कुछ वर्षो बाद परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी कि विवेक की बदली भी उसी कस्बे में हो गयी,जहां अनिल था। हालांकि उसे मालूम था कि अनिल भी उसी कस्बे के काॅलेज़ में नियुक्त है, तो भी उसने कभी उससे मिलने का उपक्रम नहीं किया। एक दिन एक सार्वजनिक उत्सव के दौरान उसका अनजाने में उसका उससे सामना हो गया। विवेक ने पाया कि जहाँ पहले वह उससे कन्नी काटा करता था, वहीं अब अनिल उससे कन्नी काट रहा है। अनिल अपने काॅलेज़ के दूसरे प्रोफ़ेसरो के साथ था। उनके बीच औपाचारिक बातें ही र्हुइं। उसने विवेक का परिचय अपने किसी भी साथी से नहीं कराया। इसके बाद उसका और विवेक का विभिन्न अवसरांे पर तीन-चार बार सामना और हुआ, पर अनिल के व्यवहार में बेरूखी ही नज़र आती थी। चूँकि वह छोटा कस्बा था, सो प्रायः सभी सरकारी कर्मचारी एक दूसरे को जानते थे। एक दिन सुबह-सुबह अनिल, विवेक के घर आया और उससे कहने लगा कि यार मैं तेरे पास एक काम से आया हूँ। फिर उसने कहना शुरू किया-यार यहाँ पर मेरी रेपुटेशन बहुत अच्छी है। यार देख अब तेरे और मेरे रैंक में जमीन-आसमान का अंतर है। मैं तेरे से किसी भी क़िस्म का संबंध नहीं रखना चाहता। तो तू सार्वजनिक जगहों पर मुझसे बात मत किया कर। मुझे अब तुझे अपना दोस्त कहने में शर्म आती है। और हाँ यार, तू इस कस्बे में किसी से भी मत बताना कि पहले मैंएक छोटी नौकरी में था। उसकी इस बात से विवेक को उसके खोखले व्यक्तित्व की सीलन बेहद शिद्दत से महसूस होने लगी, और उसे लगने लगा कि यह आदमी सीलन से भरा हुआ एक चलता-फिरता कमरा है, जो सामने वाले को हमेशा ही लिजलिजी सी अनुभूति कराता है। ख़़ैर उसे उसकी उस बकवास का कोई ज़्यादह फ़र्क़ नहीं पडा़, क्यांेेकि अब विवेक दलित साहित्य के क्षेत्र में एक लेखक के तौर पर स्थापित हो चुका था, और देश के ऐसे कितने ही प्रोफ़ेसर उसके मित्र थे, जो ससम्मान उसे दलित साहित्य पर व्याख्यान के लिये प्लेन का किराया देकर बुलाते थे और कई मुद्दों पर उससे फोन में लम्बी-लम्बी बातंे किया करते थे। वह बडी़ साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार छप रहा था। अनिल के द्वारा मना किये जाने के बाद उसने कभी भी उससे मिलने का प्रयास नहीं किया। कुछ सालों बाद सामाजिक मुद्दों को लेकर विवेक की आठ-दस उपन्यास बडे़ प्रकाशन समूहों से प्रकाशित हो चुकी थी। उसकी इन उपन्यासों पर बडे़-बडे़ फिल्म निर्माता फिल्म बनाने लगे थे। विवेक ने अपनी वह नौकरी छोड़ दी थी, और वह मुंबई में जाकर बस गया था। अब वह पूरी तरह से प्रोफेशनल रूप से राइटिंग करने लगा था। उसे मुंबई में रहते अब तक दस बरस हो चुके थे। अनिल को तो वह पूरी तरह भूल ही चुका था। विवेक की उपन्यासों पर आधारित फिल्में लगातार हिट हो रही थीं, और अब उसके पास नाम और दाम की बिल्कुल कमी नहीं थी।
एक दिन विवेक के फ्ैलट की काॅलबेल बजी। दरवाज़ा खोलकर देखा तो सामने हैरान-परेशान सा अनिल खड़ा हुआ था। उसने उसे ससम्मान अंदर बुलाया। चाय-नाश्ता कराने के बाद उसने उससे मुंबई आने का प्रयोजन पूछा। इस पर उसने फिर से अपनी वही मोटी वाली डायरी निकाल ली और कहना शुरू किया-यार आप तो बहुत बडे़ राईटर हो गये हो। अपने संपर्कों का मुझे भी फ़़ायदा दिलाओ और मेरी कम से कम एक कविता को तो किसी फिल्म में जगह दिलवाओ। अरे भाई हम दलित लोग यदि एक दूसरे के काम नहीं आयेंगे, तो क्या साले ये उँची जाति के सवर्ण हमारे काम आयेंगे। यार दलितों में जो आगे बढ़ चुके हंै, उन्हे अपने लोगों को आगे बढा़ना ही चाहिए। दलित आंदोलनों का उद्देश्य भी यही है। उस लिजलिजे आदमी के सीलन भरे व्यक्तित्व से उठती दुर्गंध के बावजूद विवेक ने उससे कहा कि पड़ो़स वाले फ्ैलट में मेरे एक संगीतकार दोस्त रहते हंै। मैं उन्हें बुलवा देता हूँ। यदि उन्हंे पसंद आयेगी, तो तुम्हारी एकाध कविता इस्तेमाल हो सकती है। विवेक ने यह भी कहा कि तुम्हारी कविता का निष्पक्ष मूल्यांकन हो जाये इसके लिए यह जरूरी है कि तुम सामने वाले कमरे में जाकर परदे के पीछे से हमारी बातंे सुनना। फिर विवेक ने अपने नौकर को भेजकर अपने उस संगीतकार मित्र को बुलवा लिया। तय योजना के अनुसार अनिल पर्दे के पीछे चला गया। विवेक ने अपने संगीतकार मित्र को उसकी डायरी देते हुए कहा कि ये हमारे एक मित्र की कविताएँ हंै। जरा पढ़कर बतायें कि क्या इन्हंे आपके संगीत के साथ कंपोज़ कराया जा सकता है? डायरी की सारी कविताएँ पलटने के बाद उस संगीतकार मित्र ने कहा-मुझे यकीन नहीं होता कि क्या कोई आदमी इतनी बकवास कविताएँ भी लिख सकता है। थोड़ी़ देर बाद वह संगीतकार मित्र चला गया। विवेक को लगा कि अब तक अनिल को अपनी कविताओं का मूल्य समझ में आ गया होगा। संगीतकार मित्र के जाने के बाद अनिल परदे के बाहर आकर कहने लगा-यार तेरे इस मित्र को उँचे दर्जे के साहित्य की समझ ही नहीं है। निहायत ही चलताऊ किस्म का आदमी है। भाई तू तो मुझे किसी और का पता बता दे। मंै तेरे रिफ्रेंस में उनसे मिलकर अपना काम करा लूँगा। विवेक ने उसे अपने तीन-चार संपर्को के पते दे दिये। वह उन सभी से संपर्क करने के बाद मायूस होकर लौटा और कहने लगा कि यार ये लोग ऐसे तो मेरी कविताएँ लेंगे नहीं। भाई अब तू उनपर दबाव बनाकर मेरी इन कविताओं को फिल्मों में जगह दिलवा दे। इस पर विवेक ने उसे समझाने की कोशिश की कि यार मैं फ़िलहाल लोगों पर दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हूँ। इस पर वह हताश होकर कहने लगा कुछ लोग थोडे़ सफल क्या हो जाते हैं, अपनी जात और औकात भूल जाते हंै। वह विवेक को ही यह कह रहा था। विवेक ने कुछ नहीं कहा। थोडी़ देर बाद वह उसके फ्ैलट से चला गया। अब विवेक को अचानक से अपने साफ़-सुथरे फ्ैलट में सीलन का अहसास होने लगा क्योंकि अनिल का वजूद ही सीलन का पर्याय बन चुका था। उसने अपना सर झटका और उस सीलन का भूलने का प्रयास करने लगा।
9 शार्टकट
टी.वी. पर केन्दीय मंत्रिमण्डल का शपथ ग्रहण समारोह का सीधा प्रसारण चल रहा था। प्रमोद और उसकी पत्नी करूणा यह जानने को उत्सुक थे कि उनके राज्य से किसी को मंत्री बनाया जा रहा है, या नहीं। हालांकि अख़बारों में उनके राज्य से सबसे कम उम्र की महिला कमली तिवारी को महिला विकास मंत्री बनाये जाने की ख़बर पिछले कुछ दिनों से चल रही थी, पर अंतिम समय तक सब कुछ अनिश्चित ही था। उनके साथ उनकी पेईंग गेस्ट रेखा भी बडे़ ध्यान से शपथ ग्रहण समारोह देख रही थी। करूणा को इस बात की भी खुशी थी कि यदि कमली को मंत्री बनाया जाता है, तो वह सबसे कम उम्र की महिला मंत्री बनने का रिकार्ड बना लेगी। कमली तिवारी एक बेहद ही ख़ूबसूरत लड़की थी। वह किसी फिल्म की हीरोईन की तरह ही दिखती थी। पूरे राज्य में उसकी ख़़ूबसूरती के चर्चे होते रहते थे। उसके बारे में कहा जाता था कि वह एक सेलिब्रेटी लीडर है। राज्य का युवा वर्ग तो उसका दीवाना ही था। उसके संसदीय क्षेत्र मे तो युवा वर्ग ने उसकी ख़ूबसूरती को ही देखकर ही वोट दिया था। यह इस बात से प्रमाणित होता था कि उसने पहली बार ही लोकसभा का चुनाव लड़ा था और उसके प्रतिद्वंद्वी की जमानत तक जब्त हो गई थी। कमली के बारे में पढ़ने को मिलता रहता था कि वह काॅलेज़ के दिनों से ही लीडरशिप कर रही है। जो भी हो, राज्य की महिलाओं को उससे बड़ी उम्मीदें थीं कि महिला विकास मंत्री का पद मिलने के बाद वह निश्चित तौर पर महिला सशक्तिकरण की दिशा में कार्य करेगी।
शपथ ग्रहण के लिए उसका नाम पुकारा गया। उसने बडे़ ही आत्म-विश्वास के साथ अंग्रेज़ी में शपथ ली। शाम होते-होते उसका विभाग भी पता चल चुका था। आशानुरूप उसे महिला विकास मंत्रालय ही मिला था। वह राज्य मंत्री न बनाकर सीधे केबिनेट मंत्री बनाई गयी थी। यह उनके राज्य के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। रात होते-होते अलग-अलग चैनलों में उसका अंग्रेजी में इंटरव्यू भी चलने लगा था। इन सारे कार्यक्रमों को उनकी पेईंग गेस्ट रेखा भी उनके साथ ही बड़े ध्यान से देख रही थी। रेखा एक दलित जाति की लड़की थी और एक सरकारी आॅफ़िस में क्लर्क थी। वह शहर से पांच सौ कि.मी. दूर जंगल के बीच बसे एक छोटे से कस्बे की रहने वाली थी। आमतौर पर अपने कमरे में ही घुसे रहने वाली रेखा आज दिनभर उनके साथ ही ये सारे कार्यक्रम देखती रही। आज उसने आफ़िस से छुट्टी ली हुई थी। अचानक रेखा ने करूण से कहा-दीदी ये कमली हमारे ही कस्बे की रहने वाली है।यह सुनकर पति-पत्नी दोनें को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्यांेकि वे कमली के बारे में जितना कुछ जानते थे, उसके हिसाब से तो वह उनकेे अपने ही शहर की थी। वे तो कमली के बारे में अपने शहर की छात्र राजनीति के दौर से पढ़-सुन रहे थे। वे उसके विश्वविद्यालय प्रतिनिधि चुने जाने से लेकर उसके महापौर बन जाने और फिर इस्तीफ़ा देकर विधायक बनने और फिर तुरंत ही इस्तीफ़ा देकर लोकसभा चुनाव लड़ने तक के सारे घटनाक्रम से वाकिफ़ थे। कमली का कम उम्र में ही बड़े-बड़े पदों पर सुशोभित होना, जहाँ एक ओर महिलाओं के लिए गर्व की बात थी, तो दूसरी ओर कुछ महिलाओं को उससे ईष्र्या भी होती थी। ख़ैर रेखा के यह बताने पर कि कमली किसी छोटे से कस्बे की रहने वाली है, उन्हे यक़ीन ही नहीं हुआ और उन्होंने रेखा की बातों को कोई तवज्जो नहीं दी। फिर अचानक रेखा ने धमाका करते हुए उन्हें बताया कि कमली पहली कक्षा से लेकर काॅलेज़ के फस्र्ट ईयर तक हमारे ही कस्बे में पढ़ी है। पूरी तरह हिन्दी मीडियम की सरकारी स्कूल और काॅलेज़ में। प्रमोद को लगा कि रेखा को कोई ग़लतफ़हमी हो गई है, क्योंकि उन्हांेने तो हमेशा कमली को एक सेलीब्रेटी की तरह ही आत्मविश्वास से पूर्ण फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हुए ही सुुना था। ऐसे में यह मानना कठिन था कि वह किसी हिन्दी मीडियम की सरकारी स्कूल में पढ़ी हुई है। उसने रेखा को समझाते हुए कहा-अरे तुम्हे कोई ग़लतफ़हमी हो रही है। हम तो इसे काॅलेज़ के जमाने से जान रहे हैं, जब ये छात्र नेता हुआ करती थी। इस पर रेखा ने कहा- नहीं, मुझे कोई ग़लतफ़हमी नही्र हो रही है। वह मेरे ही कस्बे के सरकारी काॅलेज़ में मेरे ही साथ फस्र्ट ईयर तक पढी़ है। हम दोनांे किसी जमाने में पक्की सहेलियाँ रह चुकी हैं। अच्छा-अच्छा ठीक है कहकर उन्हांेने बात ख़त्म कर दी। उन्हंे रेखा की बातों पर बिल्कुल ही यकीन नहीं हुआ। करूणा सोचने लगी कि कहाँ यह रेखा, जो कि हिन्दी भी शुध्द तरीके से नहीं बोल पाती है। क्षेत्रीय बोली मिश्रित हिन्दी बोलने वाली लड़की, और कहां फर्राटेदार अंगरेज़ी बोलने वाली कमली। थोड़ी देर के बाद रेखा अपने कमरे में सोने चली गई। अगले दिन के अख़बारों में कमली के शपथ लेने से लेकर उससे संबंधित सारी ख़बरें प्रमुखता से छपी थीं। साथ ही छपा था उसका जीवन परिचय, जिसमें स्पष्ट लिखा हुआ था कि वह पहली कक्षा से लेकर काॅलेज के फस्र्ट ईयर तक एक छोटे से कस्बे में ही पढ़ी हुई है। वह रेखा का बताया हुआ कस्बा ही था। यह पढ़ने के बाद करूणा का खुशी का ठिकाना ना रहा। आज रेखा अचानक ही वीआईपी हो गई थी। वह कमली के बारे में रेखा से और ज़्यादह जानना चाहती थी। उसने रेखा के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। अलसाई हुई सी रेखा ने दरवाज़ा खोला। करूणा ने चहकते हुए कहा- अरे तू सही कह रही थी। ये कमली तो तेरे ही कस्बे की रहने वाली तेरी पक्की सहेली ही है। हां, दीदी मैंने तो आपको कल ही बताया था, रेखा ने कहा।
सुन ना, मुझे कमली के बारे में ज़्यादह से ज़्यादह जानने की उत्सुकता हो रही है।मैं यह भी जानना चाह रही थी कि कि एक छोटे से कस्बे से उसने दिल्ली तक का सफ़र कैसे पूरा किया। आ ना बैठते हंै मुझे कमली के बारे में तुझसे पूरी जानकारी चाहिये। करूणा ने उत्साहित होकर कहा। मैं तैयार होकर आती हूँ दीदी, कहकर रेखा ने दरवाज़ा लगा दिया। आज सण्डे था। थोडी़ देर बाद रेखा तैयार होकर बाहर निकल आई। करूणा ने रेखा से कहा- यार रेखा, अब तोे तुम्हारी पक्की सहेली केबिनेट मंत्री बन गई है। मंत्री लोगों के पास यह पाॅवर होता है कि वह अपने किसी भी परिचित सरकारी कर्मचारी को अपने स्टाॅफ़ में रख सकता हैं। मुझे तो लग रहा है कि दो-चार दिनों में वह तुम्हंे अपने स्टाॅफ़ में बुलवा ही लेगी। अब तुम दिल्ली जाने के लिए तैयार रहो। अगर तुम दिल्ली न भी जाओ, तो केन्द्रीय मंत्रियों का उनके अपने राज्य में भी एक कार्यालय होता है। वह यहाँ वाले आॅफ़िस में तो तुम्हें जरूर बुलवा ही लेगी। तब तो यार, तुम भी वीआईपी हो जाओगी। यार, हमारा छोटा-मोटा काम करा दिया करना। उसने उत्तेजना के साथ एक ही सांस में सारी बातें कह दी थी। उसकी बातें सुनकर रेखा के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई और उसने कहा-दीदी आपने उस दिन मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया था। मैंने यह कहा था कि वह किसी जमाने में मेरी पक्की सहेली रही है। चार-पाँच सालों से तो मेरी उससे बातचीत भी नहीं हो रही है। वह किसी भी अपरिचित को अपने स्टाॅफ़ में रख लेगी, पर मुझे कतई नहीं रखेगी। इस पर करूणा ने आश्चर्य से पूछा-क्यों? इस पर उसने बेहद गंभीर लहज़े में कहा कि मेरे पास उसके डर्टी सीक्रेट्स हंै। यह कहते हुए उसका मन विषाद से भर उठा।
रेखा पिछले दो सालों से उनके यहाँ पेईंग गेस्ट के रूप में रह रही थी। चूंकि प्रमोद लोग भी दलित जाति से ही थे, सो रेखा उनसे एकदम घनिष्ठ हो गई थी। उनके बीच एक अनजाना सा अपनापन बन गया था। करूणा उसे अपनी छोटी बहन ही मानती थी। थोड़ी देर बाद रेखा ने कहना शुरू किया गया -आज तक मैंने कभी किसी को उसके बारे में बताया नहीं है, लेकिन चूंकि आप मेरी अपनी हैं, इसलिए मैं आपको कमली के डर्टी सीक्रेट्स के बारे में बता रही हूँ। वरना तो यह राज़ मेरे सीने में दफ़्न सा हो चुका था। थोड़ा रूककर उसने बताना शुरू किया-दीदी कमली एक बेहद ग़रीब परिवार की लड़की है। उसके पिता की मृत्यु बहुत पहले ही चुकी थी। उसकी माँ हमारे कस्बे के अमीर लोगों के घरों में खाना बनाने का काम करती थी। काम छोटा होने के बावजूद सम्मानजनक था। लोग उसे महाराजिन-महाराजिन कहते थे। फाॅरेस्ट विभाग के एक ठेकेदार ने उसे अपनी रखैल की तरह ही रखा था। कमली की माँ कमली की तरफ़ ध्यान नहीं देती थी। अभावों में रहने के बावज़ूद उसमें गरीबी से उत्पन्न हीनता के भाव बिल्कुल भी नहीं थे। ब्राम्हण होने के कारण उसमें आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा हुआ था। मेरे अलावा उसकी दो-तीन और दलित सहेलियाँ थीं। वह कभी मेरे घर, तो कभी दूसरी सहेलियों के घर खाना खाती, और बडे़ अधिकार के साथ मांगकर खाती थी। वह कहती देखो मैं ब्राम्हण होने के बावजूद छुआछूत नहीं मानती हूँ। मै दलितों के घर भी खाना खा लेती हूं। ऐसा कहकर वह ऐसा जताती थी मानांे वह हमारे घर खाना खाकर अहसान जता रही हो। वह दिन भर इधर-उधर घूमती रहती और सिर्फ़ रात में ही अपने घर जाती थी। वह शुरू से ही बडी़ ही महत्वाकांक्षी लड़की थी। उसमें लीडरशीप का गुण कूट-कूटकर भरा हुआ था। प्रायमरी स्कूल से लेकर हाॅयर सेकण्डरी तक वह अपनी कक्षा की कप्तान रही, और बड़ी दबंगई से कप्तानी करती रही। कस्बे में होने वाले नेताओं के कार्यक्रमों में वह हमेशा ही यह कोशिश करती थी कि किसी भी तरह उसे मंच पर जाने का मौका मिल जाये। चूंकि वह एक दबंग लड़की थी, और हम सब लोग दब्बू थीं, इसलिए हम एक तरह से उसके पीछे-पीछे ही रहती थीं। वो मुझसे हमेशा ही कहती थी-रेखा देखना एक दिन मैं मंत्री बनूंगी। मुझे याद है जब हम बारहवीं कक्षा में थे, तभी यह घोषणा हो गई थी हमारे क्षेत्र के सारे राजनैतिक पद, दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षित हो गये हैं। उसने जब पेपर में यह ख़बर पढ़ी, तो बेहद उदास हो गई, लेकिन अगले ही दिन वह वापस अपने रंग में आ गई। उसने मुझसे कहा था-रेखा, यह तो अच्छी बात है कि यहाँ के सारे पद दलितों-आदिवासियों के लिए आरक्षित हो गये हंै। यदि मैं लीडर नहीं बन पाई तो कोई बात नहीं, तुम ही लीडर बन जाना, और मुझे अपनी असिस्टेण्ट बना लेना। फिर तो हम दोनों ही पाॅवरफुल हो जायेंगे। मैं तुझे राजनीति सीखा दूंगी। मैंने उससे कहा कि यार ये लीडरी-वीडरी मुझसे नहीं होगी। मुझे तो बस छोटी-मोटी क्लर्क वग़ैरह की नौक़री भी मिल जाये, तो ही मेरे लिये बहुत है। इस पर उसने नाराज़ होकर कहा था-यार, तुम छोटे लोग छोटा ही सोचोगे। अरे यार बडा़ सोचो। बडा़ सोचोगे तो ही तो कुछ बडा़ कर पाओगे।
एक बार हम स्कूल की तरफ़ से पडो़सी राज्य की राजधानी घूमने के लिए गये। कमली ने पता लगा लिया था कि वहां पर महिला विकास विभाग की मंत्री गंगादेवी नाम की एक ब्राम्हण महिला है। बस फिर क्या था। उसने मंत्री से मिलने का समय ले लिया। वह मुझे भी ज़िद करके अपने साथ ले गई। हम दोनांे उस मंत्री बंगले की भव्यता को देखकर दंग रह गये। निर्धारित समय पर हमारा बुलावा हुआ। बंगले की भव्यता देखकर मैंने कमली से कहा जा तू ही अंदर जा, पर कमली ने बडे़ आत्मविश्वास से कहा-रेखा देखना एक दिन मेरा भी ऐसा ही बंगला होगा। तो क्या तू उस समय भी मुझसे मिलने के लिए झिझकेगी। यार अपने अंदर की हीनभावना को दूर कर और चल मेरे साथ। वह मुझे ज़बरदस्ती अंदर ले गई। अन्दर अपने चेम्बर में धीर-गंभीर मुद्रा में गंगादेवी बैठी हुई थी। कमली ने बे-झिझक कहा कि मैडम हम लोग आपसे बेहद प्रभावित हैं। आपके कामों के बारे में हम लोग अपने राज्य के अख़बारों में पढ़ते ही रहते हैं। आप हमारी प्रेरणास्त्रोत हैं। हम लोग भी आप जैसी ही नेता बनना चाहती हंै। इस पर गंगादेवी ने हमे उपर से लेकर नीचे तक तौलते हुए-कहा पता नहीं तुम लोग समझोगे या नहीं, पर मैं तुम्हें यह बात बता रही हूं कि राजनीति में सफलता का रास्ता बेडरूम से होकर ही गुजरता है। इतनी बड़ी मंत्री के मुँह से इतनी छोटी बात सुनकर मुझे उसकी भव्यता थोथी जान पड़ने लगी। उसका व्यक्तित्व का खोखलापन मेरे सामने ज़ाहिर हो चुका था। मुझे उस औरत पे घिन सी आने लगी थी, लेकिन कमली तो बेहद खुश थी। उसे सफलता पाने का शाटर्कट रास्ता मिल चुका था।
वहां से बाहर निकलकर उसने मुझमें कहा था रेखा मैं सफलता पाने के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। खै़र ये बात आई-गई हो गई। वह प्रायः कहती-यार इस छोटे से कस्बे में कुछ नहीं रखा है। मुझे तो बडे़ शहर जाना है। यहाँ पर तो मेरा दम घुटता है। चूँकि बडे़ शहर जाने और हाॅस्टल आदि में रहकर पढा़ई करने की उसकी हैसियत नहीं थी, सो उसने बडे़ ही बेमन से वहाँ के काॅलेज़ में फस्र्ट इयर में एडमिशन ले लिया था, लेकिन फस्र्ट ईयर के बाद उस फाॅरेस्ट ठेकेदार ने उसे इस शहर में पढ़ने के लिए भेज दिया। चूँकि ठेकेदार का यहां पर भी एक घर था, सो वह उसी के घर में रहते हुए काॅलेज़ की पढा़ई करने लगी। और जल्द ही छात्र राजनीति मे सक्रिय होकर एक बड़ी नेता बन गयी। और दीदी उसके बाद की कहानी तो आप सभी जानते ही हंै। हाँ वह मुझसे अपने सभी डर्टी सीक्रेट्स शेयर करती रही। उसने बताया था कि उसने छात्र राजनीति के दौरान ही एक बडी़ पार्टी के संगठन में संेध लगा दी थी, और संगठन के सबसे बडे़ नेता के साथ हमबिस्तर होकर महापौर बन गई थी। बाद मंे वह उसकी रैखल बन गई। धीरे-धीरे वह आवश्यकतानुसार बिस्तर बदलती रही, और फिर विधानसभा और लोकसभा तक पहुंच गई। धीरे-धीरे मेरी उसके कामों में मेरी अरूचि और उसकी व्यस्तता के कारण हमारे बीच बातचीत बंद हो गई। कमली की सफलता के पाने के शार्टकट रास्ते के बारे में जानने के बाद करूणा को चिन्ता होने लगी कि देश के महिला विकास विभाग का भगवान ही मालिक है।
10 औरंगज़ेब
यूँ तो स्कूल-काॅलेज़ में मेरा विषय विज्ञान और वाणिज्य ही रहा पर मुझे इतिहास शुरू से ही बडा़ रोचक लगता रहा है। मैं इतिहास पढ़ते-पढ़ते उसे जीने भी लगता हूँ। मैं टाईम मशीन में बैठकर उस काल में पहुँच जाता हूँ। ऐतिहासिक घटनाएँ मेरे सामने किसी फिल्म की तरह चलने लगती हंै। मैं स्वयं भी अपने आपको इतिहास का एक पात्र मानने लगता हूँ। लोगों को अशोक और अकबर अपनी महानता के कारण पसंद आते होंगे, पर मुझे इतिहास का सबसे प्रिय चरित्र औरगंज़ेब लगता रहा है। अपने मज़हब के प्रति वह जिस तरह से कमिटेड था, उसकी मिसाल मुझे किसी में भी नज़र नहीं आती है। वास्तव में उसकी कट्टरता ही उसके चरित्र का सबसे बडा़ आकर्षण थी। कई किताबों में मैंने पढ़ा था कि उसने अपनी कट्टरता का प्रयोग दूसरों के दमन मंे न करके, स्वयं के विकास में ही किया था। दक्षिण विजय उसके विकास की जीती-जागती मिसाल थी। उसके बारे में मैंने पढ़ा था कि वह ज़िन्दा पीर आलमगीर था। वह महलों में रहकर भी संन्यासियों की तरह ही जीवन-यापन किया करता था। वर्तमान में जहाँ शासक वर्ग टोपी पहनाकर जीविकोपार्जन करते हंै, वहीं वह टोपियाँ सीकर और उसे बाज़ार में बेचकर जीवन निर्वाह किया करता था। हो सकता है कि कला-संस्कृति को ज़मीन में दफ़्न करने की उसकी चाह धर्मान्धता की पराकाष्ठा रही हो, पर फिर भी वह एक यूनिक चरित्र तो था ही।
एक बार मैं थियेटर में औरंगज़ेब नामक नाटक देख रहा था। नाटक में वह जेल में बंद था। पर चूँकि वह एक राजा था, और उसकी ख़्वाहिश थी कि उसकी कोठरी में राजसी वस्त्र उपलब्ध रहें, सो उसकी इस मामूली सी ख़्वाहिश पूरी कर दी गई थी। कैद में वह जब भी हताश निराश होता वह अपने उन राजसी वस्त्रों को पहन लेता था, और वह बादशाह की अकड़ के साथ सिंहासन पर बैठने की एक्ंिटग किया करता था। उन वस्त्रों को पहनने के बाद वह अपने आपको कैदी न मानते हुए बादशाह ही समझने लगता था। यह कुछ क्षणों का भ्र्र्र्रम उसे कुछ क्षणों की खुशियाँ प्रदान करता था। उस नाटक में उस औरंगजे़ब के पात्र का उस वक़्त खुद के बादहशाह होने का भ्रम और उसकी अकड़ मुझे हमेशा के लिए याद रह गये।
मेरा एक मित्र था भास्कर त्रिवेदी। मेरी उससे जब से मित्रता हुई मैंने उसे अय्याश के तौर पर ही पाया। मुझे जब अपना हाॅफ-पैण्ट संभालना भी नहंीं आता था, वह तभी से औरतों और मर्दांे के रिश्तों के बारे में सारी जानकारियाँ रखता था। मैं उसे एक बेहद गंदा लड़का मानते था, तो भी उसकी बातंे सुनने के लिए मैं लालायित रहा करता था। एक अज़ीब किस्म का मजा देने वाली सिरहन सी पैदा होती थी उसकी बातें सुनकर। कॅालेज़ पहुँचते-पहुँचते वह एक बड़ा खिलाड़ी बन गया था। चंूकि वह बेहद स्मॅार्ट था, और किसी हीरो की तरह दिखता था, सो लड़कियाँ उसकी तरफ़ बेहद आकर्षित होती थीं। उसके साथ सबसे बडी़ बात यह थी वह एक ब्राम्हण जाति का लड़का था, सो उसका आत्मविश्वास भी गज़ब का था। मैंने अपने मुहल्लें के कई बडे़-बुजुर्गो को उसे महाराज पाय लागी कहकर संबोधित करते हुए सुना था।
मैं एक दलित जात का निरीह सा दिखने वाला, जातिगत हीन भावना से ग्रस्त लड़का था। मैं सोशल फोबिया से ग्रस्त था। मुझे भीड़ से बेहद डर सा लगता था। मैं हमेशा सशंकित रहता था कि कहीं से कोई मेरी जाति से मुझे संबोधित न कर दे। हालांकि अपनी कुण्ठा के चलते मैं उस पर कभी भी भरोसा नहीं कर पाया। ख़ैर वह अपनी अय्याशियों के क़िस्से मुझे ही सुनाता और मैं अपना मन-मसोसकर रह जाता। मैं उसकी अय्याशियों के क़िस्से सुनने और उसकी मर्दागनी का लोहा मानने वाला एकमात्र श्रोता था। चूंकि मैं कभी भी उस पर संदेह व्यक्त नहीं करता था, या संदेह उत्पन्न करने वाले प्रतिप्रश्न भी नहीं किया करता था, सो वह मुझे अपना सबसे भरोसेमंद साथी मानता था। ख़ैर मुझे उसकी क़िस्मत पर रश्क होता था। मैं तो अपनी जातिगत हीनता के कारण लड़कियों से बातें करना तो दूर सर उठाकर उनकी तरफ देख भी नहीं पाता था। खैर हम दोनो ने साथ-साथ काॅलेज़ पास किया और एक प्रतियोगी परीक्षा दिलाकर साथ-साथ ही नौकरी में लगे। संयोगवश हमें एक ही गांव में नौकरी लगी। हम दोनो की फील्ड वाली नौकरी थी और हमे एक लम्बे-चैडे़ क्षेत्र का भ्रमण करना होता था। उसके पास मोटर सायकल थी, जबकि मेरे पास सायकल ही थी। जल्द ही भास्कर पूरे क्षेत्र में महाराज के नाम से प्रसिध्द हो गया था। जब कभी हम साथ होते, वह रास्ता चलती हुई लड़कियों और औरतों को इशारों ही इशारों में पटा लेता और मुझे पता भी नहीं चल पाता था। वह जब बताता कि यह लड़की या औरत मुझसे सैट हो गई है, तो मुझे सहसा यकीन ही नहीं हो पाता, लेकिन फिर लड़कियों के हाव-भाव से मुझे यकीन करना ही पड़ता। वह बडी़ से बड़ी सभ्य औरत को सैट कर फतह कर लेता था।
शहरों में तो फिर भी उसे मर्यादित रहना होता था, गाँव पहुँचकर तो वह पूरी तरह से उश्रृंखल हो गया था। वह लगातार सफलता के झण्डे गाड़ने लगा। लड़कियाँ और औरतें तो मानों उसकी दीवानी सी थीं। कई बार तो ऐसा होता कि वह किसी लड़की को पटाना चाहता और लड़की के साथ-साथ उसकी माँ भी पट जाती। उस गांव में राजपूत और बनिया परिवार एक-एक ही थे, बाकी सारे या तो ओबीसी क्लास के या फिर दलित वर्ग के थे। उस गांव में एकमात्र भास्कर ही ब्राह्मण था। सभी लोग उसे महाराज-महाराज कह इज्जत देते थे। वह मुझे ज़्यादहतर अपने साथ ही रखता था। वह कहता था कि अबे लड़कियांे को लेकर मुझे तेरी झिझक मिटानी है। पर लगभग बदसूरती की हद तक औसत दर्जे का मेरा चेहरा तिस पर मेरी दलित जाति से उपजी हीन भावना मेरी झिझक मिटाने की राह में सबसे बडे़ रोडे़ थे। फिर भी उस गाँव के माहौल को देखते हुए मुझे लगने लगा कि जब भास्कर इतनी सारी लड़कियां पटा सकता है, तो मैं एककाध तो पटा ही सकता हूँ।
वहाँ पर मेरा कमरा दो तरफ़ से खुलता था। एक तो घर के भीतर की ओर, दूसरा बाहर गली की ओर से। मेरे कमरे के सामने से एक साधारण सी दिखने वाली लड़की रोज ही दोपहर के लगभग एक बजे सार्वजनिक नल पर पानी भरने जाया करती थी। वह लड़की वहां के दलित कोटवार की लड़की थी, और मेरी ही जात की थी। उसका रंग-रूप भी बेहद साधारण था। मुझे लगा सजातीय होने के कारण सहानुभूतिवश ही सही वह मुझसे पट जायेगी। और मैं भी कोई ऐरा-गैरा तो हूं नहीं। एक सरकारी कर्मचारी हूं। और कुछ नहीं तो लालच में आकर ही पट जायेगी। एक दिन मौका देखकर मैंने उससे कह ही दिया कि तुम मुझे अच्छी लगती हो। इस पर वह भड़क गई और हमारी क्षेत्रीय भाषा में मुझे ग़ालियां देने लगी। यह तो मेरे लिए एक झटका सा था। कहां भास्कर अपने फील्ड के बीस गांवों में से हर गांव में कई-कइ्र्र लड़कियां पटा रखा था। और मेरा एक प्रयास भी असफल साबित हो चुका था। अब मुझ पर हताशा निराशा हावी होती जा रही थी।मेरा आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगा गया था। अगले कुछ दिनों तक मैं विचित्र सी मनः स्थिति में रहा, फिर मैंने अपने कमरे का गली की तरफ़ खुलने वाला दरवाज़ा लगभग बंद ही कर दिया। उधर भास्कर का मुझे अपनी अय्याशियों के क़िस्से सुनाना बढ़ता ही जा रहा था।
कुछ दिनों बाद मैंने अपने साथ घटी उस घटना के बारे में भास्कर को बताया। भास्कर ने मेरी मनःस्थिति भाँप ली। वह तिलमिलाता हुआ सा कहने लगाा उस साली की इतनी हिम्मत कि वह मेरे दोस्त को ग़ाली दे। फिर उसने मुझसे कहा अबे मेरे पास तो एक से एक आईटम हंै। तू जिसे कहे, मैं तेरे हवाले कर दूं। लेकिन मैं उस घमण्डी लड़की का घमण्ड जरूर तोड़ूंगा। चल उस लड़की को मैं तेरे लिए पटाकर दूंगा। यह तो एक अजीबोगरीब बात थी कि कोई और किसी के लिए लड़की पटाकर सौंप दें। उस लड़की के प्रति मेरा आकर्षण तो ख़त्म ही हो चुका था। सो मैंने भास्कर से कहा कि भाई इस मामलें में मुझे तेरी मदद की जरूरत नहीं है। मैं अपने दम पर पटा लूँगा। खै़र उसने मुझसे पूछा बस तू इतना बता दे कि वह पानी भरने कितने बजे निकलती है? मैंने उसे समय बता दिया। उसी दिन शाम को भास्कर ने मुझे चहकते हुए बताया कि अबे वो तेरे सामने नखरे दिखाने वाली लड़की मेरे लिये तो पलकें बिछाये बैठी थी। मैंने सिर्फ़ इशारा किया और वह सीधे मेरे कमरे में ही पहंुच गई। हमने खूब मजे किये, कहते हुए वह अपनी रासलीला के किस्से सुनाने लगा। लेकिन पता नहीं क्यों आज मुझे उसकी रसीली बातों को सुनकर अच्छा नहीं लग रहा था। एक दलित लड़की के साथ भास्कर की रासलीला से मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उसने मेरा हक़ छीन लिया है। मैं अपने में ही खोया हुआ था कि अचानक उसने कहा तेरे काम की एक बात है। मंैने उस लड़की से अपने ज्वाईंट अकाउण्ट की बात की है। मतलब यह कि वह तुझे भी मजे देगी। देखना कल से तेरे प्रति उसका व्यवहार बदल जायेगा। वाकई मे अगले दिन से वह एकदम से बदल चुकी थी। अब वह बेझिझक मेरे कमरे में दाख़िल हो जाती थी, और मुझे छेड़ने लगती थी। हालाँकि वह मेरे लिए एक जूठन के समान ही थी, पर थी तो आख़िर लड़की ही। पर चूँकि मेरे अंदर वर्षो का हीनता-बोध था, सो मैं कभी भी आगे नहीं बढ़ पाया। मैं उत्तेजना के मारे काँपता सा रह जाता था, पर उससे संबंध बनाने का उपक्रम कभी भी नहीं कर पाता था। जबकि मैं जानता था कि लड़की पूरी तरह से तैयार है।
उस लड़की का भास्कर के घर जाने का सिलसिला जारी रहा। वह अक्सर दोपहर में ही जाती, जब वह गली सुनसान हो जाती। एक दिन भास्कर ने मुझसे कहा कि अबे तू एक नंबरी डरपोक है। आज दोपहर को तू मेरे घर पर आना। सेक्स को लेकर तेरा डर मैं पूरी तरह दूर कर दूँगा। आज दोपहर को वह मेरे घर पर आयेगी, उस वक़्त तू मेरे साथ ही रहना। चल आज मैं तेरी हिम्मत बढा़ता हूँ। मेरे लिए यह अकल्पनीय था कि दो लोग एक ही लड़की के साथ...अरे बाप रे ये तो रेप होगा। और उसके बाद मैं अपनी कल्पनाओं में पुलिस, जेल और फाँसी तक पहुँच गया। खै़र मैंने थोडी़ हिम्मत बटोरी, और भास्कर के घर पहँुच गया। हमने उसी के घर पर दोपहर का खाना खाया और फिर बेसब्री से उस लड़की का इंतज़ार करने लगे। कुछ ही देर में दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई पड़ी, और मेरा दिल तेज़ी से धड़क गया। उसने मुझे दरवाजे़ के पीछे छिपने को कहा और फिर दरवाज़ा खोल दिया। लड़की अंदर आई और फिर बिना किसी औपचारिकता के उनके बीच काम-लीलाएँ शुरू हो गईं। इधर मैं विचित्र से झंझावातों में फँसा रहा। मंैने पहली बार यह सब देखा था। उत्तेजना के मारे मेरा बुरा हाल था, पर रेप, पुलिस, ज़ेल और फाँसी के विचार अचानक से मेरे सामने फिर से प्रकट हो गये, और मेरी उत्तेजना की हवा निकल गई।उधर उस लड़की की नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी।उसे किसी क़िस्म का ऐतराज़ और आश्चर्य नहीं हुआ था। शायद भास्कर ने उसे बताकर रखा था। खै़र अब मैं वहाँ से तेज़ी से बाहर निकल गया। शाम को मिलने पर भास्कर ने कहा भाई तेरा कुछ नहीं हो सकता। इधर मुझे अब अज़ीब क़िस्म का वैराग्य हो गया था। इस बीच भास्कर ने कई बार मुझे दूसरों के साथ भी शेयरिंग के लिए कहा, पर वह एक अजीब क़िस्म का वैराग्य मेरे व्यक्तिव पर हावी रहा और मैं इस मामले में कभी कुछ नहीं कर पाया।
कुछ महीनों बाद मेरी बदली शहर में हो गई और फिर भास्कर के साथ औपचारिक संबंध भर रह गये, जो धीरे-धीरे ख़त्म से होने लगे। इस बीच मेरी शादी हो गई। कुछ महीनों बाद भास्कर की भी शादी हो गई थी। हम अपने-अपने परिवार में व्यस्त हो चुके थे। भास्कर के बारे में इधर-उधर से पता चलता रहता था कि शादी के बाद भी उसकी अय्याशियों में कोई कमी नहीं आई है। वर्ष बीतते गये और हम युवास्था से अधेड़ावस्था के आख़िर तक जा पहुँचे थे। हमारे बच्चे भी बडे़ हो गये थे। उसके बच्चों की उम्र भी मेरे बच्चों के बराबर ही थी। अब उसने भी बच्चों की पढा़ई के कारण अपना तबादला मेरे ही शहर में करा लिया था, पर शहर में हमारी मुलाक़ात नहीं हो पाई थी। एक दिन मैं बस स्टॅाप पर खडा़ बस का इंतज़ार कर था कि मैंने देखा कि भास्कर अपनी मोटर-सायकल पर किसी महिला को बिठाकर ले जा रहा है। मैं उसकी पत्नी से मिल चुका था। पर ये औरत तो उसकी पत्नी नहीं थी। मुझे खटका सा हुआ। मंैने आवाज़ देकर उसे पुकारा। उसने मुझे देख लिया था। वह लौटकर आया, और कहने लगा भाई मै जरा जल्दी में हूँ। तू बस पकड़कर चैथे स्टाॅप पर आ जा, फिर फुरसत से बातें करते हैं। आना जरूर...तुझसे अर्जेण्ट काम है, कहकर वह निकल गया। भास्कर से काफ़ी अर्से के बाद मेरी मुलाकात हो रही थी। मैं भी उसके साथ फुरसत से बैठकर बातें करना चाह रहा था। और फिर उसने मुझसे अर्जेण्ट काम है कहा भी है। मैंने सोचा चलो आज छुट्टी का दिन है। भास्कर के साथ बैठकर पुरानी यादें ही ताजा करते हंै। बस में बैठकर मैं चैथे स्टाॅप पर पहुंचा। वहाँ भास्कर बस स्टाॅप पर ही मेरे इंतज़ार में खड़ा था। उसके साथ वह महिला नहीं थी। उसने मुझे अपनी मोटर-सायकल के पीछे बैठने को कहा। हम चलने लगे, तो मैंने पूछा हम कहाँ जा रहे हंै? इस पर उसने बताया कि आगे थोडी़ ही दूर पर एक गली में मेरा घर है। हम वहीं जा रहे हैं। मैंने कहा यार तो पहले बताना था ना। पहली बार तेरे यहां वाले घर जा रहा हूं। तेरे बच्चों के लिये कुछ उपहार ले लिया होता। इस पर उसने बताया कि तेरी भाभी मायके गई है, और बच्चों को भी अपने साथ ले गई है। मैं घर पर अकेला ही हूँ। आज हम अपनी पुरानी जिन्दगी जियेंगे। इतना कहते-कहते हम उसके घर पहुंच गये। उसके घर के सामने ही वाले कमरे में वही महिला बैठी हुई थी। अब मुझे समझ आ गया था कि उसकी अय्याशियों की आदत आज भी नहीं छूटी है। और मुझमें आज भी कुण्ठा अपने मूल स्वरूप में विद्यमान है। जिसे मैंने अपनी प्रतिष्ठा खोने के डर से जोड़ रखा है।
वह एक प्रोफेशनल सेक्स वर्कर थी। उसे मेरे सामने किसी क़िस्म की शर्म नहीं थी। फिर बिना किसी औपचारिकता के उनके बीच वह सब कुछ शुरू हो गया। पर इस बार मैंने स्पष्ट सुना। वह कह रही थी-महाराज अब आप बूढे़ हो गये हो। आपसे कुछ नहीं हो पायेगा। ऐसा कहती हुई उस औरत का अतृप्त चेहरा मुझे स्पष्ट नज़र आ गया था। लेकिन भास्कर उससे कह रहा था कि होगा ना। होगा कैसे नहीं। मंैने उत्तेजना बढा़ने वाली दवाई ली है। उस औरत की अतृप्त आंखें अब मुझ पर ही टिक गयी थीं। उधर हाँफता हुआ थका-थका सा भास्कर उसके उपर से उठ चुका था, और उस महिला से कह रहा था- थोड़ा रूको। लगता है दवाई का असर नहीं हो रहा है। उधर मैं फिर पहले की ही भाँति अपनी कुण्ठा रूपी प्रतिष्ठा की सलीब टांगे हुए झटके से वहाँ से निकल गया।
आज मुझे भास्कर में औरंगजे़ब का कैरेेक्टर साफ़ नज़र आया था। कैदी होने के बावजूद स्वयं को बादशाह होने का भ्रम पाला हुआ औरगंज़ेब।
11 बांभन मामा
मेरी काॅलोनी में एक बांभन महाराज रहते थेे। वे एक क्लर्क थे, और चपरासी से पदोन्नति पाकर क्लर्क बने थे, पर वे इस बात को कभी स्वीकारते नहीं थे। वे अपने-आपको हमेशा एक अधिकारी ही बताते थे। वैसे भी हमारे देश में बांभन होना ही अपने आप में अधिकारी हो जाना होता है। ख़ै़र शुरू में मुझे उनके बारे में कुछ भी नहीं मालूम था, और मैं उन्हें एक बड़ा अधिकारी ही मानता रहा। एक दिन सामान्य बातचीत के दौरान मैंने उनसे अपने एक मित्र का जिक्र किया। मेरा वह मित्र उन्हीं के विभाग में अफ़़सर था। मेरे उस दोस्त का जिक्र छिड़ते ही उन्होंने कहा-अरे हां, मैं तो उन्हंे अच्छी तरह से जानता हूँ। वह तो मेरे अण्डर में चपरासी था, और मुझे गर्मागर्म राेिटयाँ बनाकर खिलाया करता था। महाराज-महाराज कहते हुए वह मेरे पैर छूता रहता था। आपका वह दोस्त जात का चमार जरूर है, पर है बड़ा़ ही सज्जन आदमी। मुझे अपने उस मित्र के बारे में नई जानकारी मिली थी कि वह किसी समय चपरासी हुआ करता था। खै़र रहा होगा, मुझे क्या? मुझे तो प्राॅब्लम थी उसके पैर छूने वाली बात से क्योंकि मेरा वह मित्र बडा़ ही प्रोग्रेसिव बनता था। वह दलित आंदोलनों से जुड़ा हुआ था, और बड़ी ही क्रांतिकारी प्रगतिशील कविताएँ लिखा करता था। ऐसे में उसका महाराज-महाराज कहकर पैर छूने की बात उसके दोगलेपन को उजागर कर रही थी। मैंने अब ठान लिया कि मेरे उस मित्र के चेहरे से मुझे प्रगतिशीलता की नक़ाब उतारनी है। एक दिन मेरी उस मित्र से मुलाकात हो गई। मैंने उससे उन बांभन महाराज का जिक्र करते हुए कहा कि कैसे बे तू बडा़ प्रोग्रेसिव बनता है, और महाराज-महाराज करते हुए उसका पैर छूता रहता है। क्या यही तेरी प्रगतिशीलता है? इस पर उसने जोर से ठहाका लगाया और बताना शुरू किया-अबे मैं उसका नहीं, बल्कि वो मेरा चपरासी था और मुझे गर्मागर्म रोटियां वो बनाकर खिलाया करता था। जब चपरासी से क्लर्क में उसके प्रमोशन की फ़ाईल मेरे पास आई, तो एक दिन अकेले में उसने मेरा पैर छुते हुए कहा था कि महाराज आप मेरे माई-बाप हो। आपकी कृपा हुई तो, मैं चपरासी से क्लर्क बन जाऊंगा और मैं आपका जीवनभर अहसानमंद रहूँगा। मैं जीवन भर आपका चरण धोकर पियूंगा। अबे वो तो चपरासी से क्लर्क भी मेरी कृपा से ही बना है । वो साला तो अब नमस्ते तक नहीं करता है। उसके खुलासे के बाद ही मुझे पता चला था कि वो बांभन महाराज दोहरे चरित्र के स्वामी हंै।
इसी कडी़ में मुझे अपने एक मामा याद आते हैं। मुझे अपने बचपन की बहुत सी बातें याद हैं। वे हमारी ही जाति के थे। हम बचपन से ही उनसे परिचित थे। मुझे यह भी याद है कि हमें प्रायः सभी रिश्तेदारों से प्यार मिलता था, बस वेे ही हमसे दुत्कार कर बात करते थे। उन दिनों हम दाने-दाने को मोहताज़़ थे। उन्होंने दो बडे़-बडे़ कुत्ते पाल रखे थे। वे उन्हें बडे़े ही जतन से रखते थे। वे जानबूझकर हमारे सामने ही उन्हें खाने को देते। उन कुत्तों को खाता देख कर हमारे मंुह में पानी भर आता था। वे उन कुत्तों को अपने साथ सुलाते भी थे। वे बड़े ही दंभी क़िस्म के व्यक्ति थे। उनकी बडी-बडी़ मूंछें थी। उनका पहला इंपे्रशन पुरानी फिल्मों के ठाकुरों-जमींदारों का सा था। चँूकि दूर की रिश्तेदारी थी, सो माँ के कहने पर हमें उनके घर जाना ही पड़ता था। हम कोई भी भाई-बहन उनके घर नहीं जाना चाहते थे। हमारी नासमझी की उम्र होने पर भी हमें उनकी जली-कटी बातें पूरी तरह समझ में आती थीं।दुत्कार की भाषा तो जानवर भी समझ जाते हैं।
बांभन मामा एक सरकारी काॅलेज़़ में प्रोफेसर थे। वे हर दृष्टि से एलिट क्लाॅस के थे। यूँ तो आम-तौर पर वे हमें चाय के लिये पूछते नहीं थे, पर कभी-कभार जब चाय के वक़्त हम उनके घर पहुँच जाते तो हमें चाय मिल जाया करती। मैं अक्सर ध्यान देता था कि मामा के लिए चाय अलग कप में आती थी, और हमें टूटे-फूटे कप में चाय दी जाती थी। मामा के नौकर का लड़का मेरे ही साथ मेरी ही क्लाॅस में पढ़ता था। उसने बताया था कि अबे तेरे मामा तो अपने-आपको ऊँची जात वाला समझते हंै। वे नौकरों और दूसरी नीची जात के लोगों को चाय देने के लिए टूटे-फूंटे कप अलग ही रखते हैं।हमें जिस दिन से ये जानकारी मिली,उसी दिन से हमनें उन्हें बांभन मामा कहना शुरू किया था। हम सभी भाई-बहन उन्हें बांभन मामा कहा करते थे। मामी तो उनसे भी एक कदम आगे थी। वह तो हमारे जाने पर बाहर भी नहीं निकलती थी।
हमारे उस बांभन मामा के दो बच्चे थे। एक लड़का और एक लड़की। वे दोनांे ही कान्वेण्ट स्कूल में पढ़ते थे, और टाई पहनकर रिक्शे में बैठकर किसी राजकुमार-राजकुमारी की तरह ही स्कूल जाया करते थे। हम नगर-निगम की प्रायमरी स्कूल में पढ़ते थे। उन्हें देखकर हमारे मन में एक अज़ीब तरह की हीन-भावना पनपने लगती थी। उनके दोनों बच्चे मेरी ही उम्र के आस-पास की उम्र के थे, पर वे दोनांे बच्चे हमें देखकर मुंह बनाया करते थे। वे अपने दोस्तों के साथ हमारी ग़रीबी का मजाक उडा़या करते थे। वे मुझे बेहद अपमानित भी किया करते थे।
हम धीरे-धीरे बडे़ होते जा रहे थे, और मामा के घर हमें अपनी उपेक्षा बड़ी शिद्दत से महसूस होने लगी थी। दलित जाति के व्यक्ति का इस तरह का ब्राहमणों सा व्यवहार बडा़ अजीब था। हमने उनके घर जाना लगभग बंद सा कर दिया था। अब हम माँ को स्पष्ट मना कर देते थे कि हमें उसे बांभन के घर नही जाना है।
बांभन मामा की लड़की प्रायवेट काॅलेज़ में पढ़कर डाॅक्टर बन चुकी थी।और उनका लड़का भी प्राईवेट काॅलेज मे पढ़कर इंजीनियर बन गया था। उनके बच्चों में भी श्रेष्ठता की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। मामा ने एक अच्छा सा रिश्ता देखकर अपनी बेटी की शादी करा दी थी। लड़का ग़रीब घर से था, पर सरकारी डाक्टर था। वह एक गाँव से बिलांग करता था। लड़के की माँ अंगूठा छाप थी। मामा की लड़की ने अपनी श्रेष्ठता के अहंकार में आकर अपने पति और सास को अपमानित करना शुरू कर दिया था। उनके दाम्पत्य जीवन में बढ़ती खटास तलाक़ की सीमा तक पहुँच गई। और आख़ि़करकार उनका तलाक़ हो गया। बाद में मामा की सुपुत्री ने एक बेरोज़गार बांभन लड़के से शादी कर ली, जो बात-बात पर उसे उसकी नीच जात का उलाहना दिया करता था। वह उसे अपने चरणों की दासी बनाकर रखना चाहता था। ख़ै़र मामा की सुपुत्री का दूसरी बार भी तलाक़ हो गया।
बांभन मामा का लड़का अमेरिका में सैटल हो गया था। ग्रीन कार्ड हासिल करने के चक्कर में उसने अपने से दस वर्ष बड़ी तीन बच्चों की अम्मा एक अमेरिकन महिला से शादी कर ली थी। अपने मां-बाप को वह भूल ही चुका था। मामा और मामी अब भी भ्रम पाले बैठे थे कि उनकी प्रतिष्ठा में तनिक भी आँच नहीं आई है। जात-समाज में तो वे कभी रहे नहीं थे। वे हमेशा ही श्रेिष्ठ वर्ग के भ्रम में रहे, सो उन्हंे लगता रहा कि चूँकि उनकी बेटी महानगर में रहती है, इसलिये उसके तलाक़ों के बारे में लोगों को कुछ भी पता नहीं होगा। पर ऐसी बातें छुपती कहां है? हम कभी-कभार उन्हें टटोलने के लिए पूछते कि आपकी सुपुत्री कहां है? इस पर वे कहते वो तो अपने ससुराल में मजे से है। लड़के के बारे में वे बताते कि वह तो श्रवण कुमार जैसा बेटा है। हमें रोज सुबह-शाम फ़ोन करता है। वहाँ पर तो वो बहुत बढ़ियां से रहता है। उसे तो महीने की दो लाख रू. सैलरी मिलती है। फिर वे हमें अपने बेटे द्वारा भेजी गई शुरूआती वीडियो फिल्म दिखाते। फिल्म में उसके फ्लैट के एक-एक कमरे की रिकार्डिंग और उसकी कार की विशेषताओं का बखान था। बेटा भी बाप जैसा ही डींगें मारने में उस्ताद था। ख़़ैर उनकी बेटी का दोबारा तलाक़ हो जाना या उनके बेटे का किसी तीन बच्चों की अम्मा से शादी कर लेने में कोई बुराई नही थी। ये तो व्यक्ति का नितांत ही व्यक्तिगत मामला होता है, पर इसके पीछे के सामाजिक और आर्थिक कारणों के अलावा नीयत की बात करें तो उनके पुत्र और पुत्री की ख़राब मानसिकता स्पष्ट होती थी। चूंकि उनकी लड़की के पहली ससुराल वाले हमारे परिचित में से थे, सो हमें तो उसके तलाक़ लेने की मंशा स्पष्ट ज्ञात थी।
अब बाभंन मामा रिटायर हो चुके थे। हम सभी भाई-बहन अच्छी-अच्छी नौकरियों में आ चुके थे। हम सभी भाई-बहन पढा़ई में अच्छे थे, सो आरक्षित वर्ग के होने के बावजूद हमारा चयन सामान्य सीटों पर होता रहा, और हम दलित जाति के लिये सीटंे बचाते रहे। सो दलित समाज में हमारी प्रतिष्ठा स्वतः ही निर्मित हो गई थी। समाज में हमें बेहद सम्मान की नज़रों से देखा जाता था। वैसे भी हम उगते हुए और मामा ढलते हुए सूरज थे। रिटायरमेण्ट के बाद मामा की समाज मंे पूछ-परख खत्म हो चुकी थी। पहले जो कुछ थोड़ी बहुत थी भी, तो वह उनके पद के कारण थी। रही-सही कसर उनके बच्चों ने पूरी कर दी थी। रिटायरमेण्ट के बाद मामा को धीरे-धीरे अपनी वास्तविक स्थिति का अहसास होने लगा था। पर उनके अन्दर के श्रेष्ठि वर्ग को को यह कतई स्वीकार नहीं था कि समाज में उनकी उपेक्षा हो। पैसों की तो उनके पास कभी कमी नहीं रही, सो उन्हांेने अब समाज में अपने पैसों के दम पर जुड़ने का निश्चय किया। वैसे भी मामा-मामी अब अकेले से रह गये थे। बेटा-बेटी होने का कोई मतलब नहीं रह गया था। बेटा अब तक पूरी तरह अमेरिकन हो चुका था, और बेटी इन दिनों किसी तीसरे व्यक्ति के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही थी। उसे अपनी सामाजिक हैसियत का अहसास हो चुका था, सो वह हमारे शहर नहीं आती थी। हमारे बड़े भाई-बहन प्रतिष्ठत नौकरियों में आ चुके थे सिर्फ़ मैं और मेरी छोटी बहन ही शिक्षक थे, और बड़ी नौकरी के लिए तैयारियों में लगे हुए थे। हम दोनों भाई-बहन बडी़ लगन से तैयारी कर रहे थे। कुछ दिनों बाद हमारा चयन राज्य प्रशासनिक सेवा के सर्वोच्च पद डिप्टी कलेक्टर के लिए हो गया था। इस उपलक्ष्य में हमारे समाज ने हमारा सम्मान समारोह आयोजित किया था। बांभन मामा ने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए समाज के नेताओं को चंदे के रूप में भरपूर पैसा देना शुरू कर दिया था। हमारे दलित समाज के लोग आज भी दारू और मुर्गे में बिक जाने वाले होते हंै, सो उन्हांेने नियमित चंदा देने वाले बांभन मामा को अपने समाज में संरक्षक का पद दे दिया था। समाज का ‘स‘ नहीं जानने वाले हमारे बांभन मामा अब हमारे समाज के संरक्षक बन चुके थ,े और स्थापित तौर पर समाज सेवक घोषित हो चुके थे।
हाँ तो हम दोनांे भाई-बहन का सम्मान समारोह आयोजित था।चंदे के नियमित स्त्रोत हमारे बांभन मामा मुख्य अतिथि थे, सो उन्हें पहले बोलने का अवसर दिया गया। उन्हांेने बोलना शुरू किया कि ये मेरे भानजे और भानजी आज इतने बडे़ पद पर पहुंच गये हैं। यह मेरे लिये गर्व की बात है। ये सारे दलित समाज के लिये गर्व की बात है। मैं इनके यहां तक पहुंचने का गवाह हूंँ। मैंने इनकी गरीबी देखी है। ये लोग जब दाने-दाने के मोहताज थे, तब मैंने इन्हंे अपने बच्चों के साथ बिठाकर खाना खिलाया था। ये दोनों तो दिनभर हमारे यहाँ ही रहते थे। मैंने तो एक तरह से इन्हें गोद ही ले रखा था। मेरी पत्नी ने भी इन्हे माँ का प्यार दिया। मेरे बच्चे तो इनके साथ इतने घुल-मिल गये थे कि वे कई सालों तक इन्हें अपने सगे भाई-बहन ही मानते रहे। वे अपने सारे खिलौने इन्हें दे देते रहे। आज ये भले ही इस बात को न स्वीकारें, पर ये अपने दिल से पूछे कि इनके यहाँ तक पहुँचने में मेरा कितना बड़ा योगदान रहा है। मेरा आशीर्वाद तो बचपन से इनके साथ ही रहा है.... इसके बाद वे और भी कुछ-कुछ कहते रहे, और लोग तालियाँ बजाते रहे, पर हम भाई-बहन के कानांे में तो उनके अब तक कहे गये शब्द पिघले सीसे की तरह ही पड़ चुके थे, और हमारे कान बंद हो गये थे।
हमारी बोलने की बारी आने पर हम सिर्फ़ इतना ही कह पाये कि हमारे बारे में तो सारी बातें हमारे मामा पहले ही कह चुके हैं, सो अब उन बातों को दुहराने का कोई मतलब नहीं रह जाता।
12 नरभक्षी
उस गाँव में तहलका मचा हुआ था। गांव के बांभन पुजारी मिश्राजी को दान में मिले हुए खेतों में खडी़ फ़सलों को दलित सरपंच की गाय ने चर लिया था। और इसी बात से नाराज़ होकर मिश्रा जी ने अपने घर के सामने वाले कमरे में गाय को बंद कर दिया था, और साँकल लगाकर ताला भी मार दिया। फिर वे बाहर धरने पर बैठ गये थे। बांभन महाराज की मांग थी कि वह दलित सरपंच अपनी गाय की ग़लती के लिए उनके पैरों में गिरकर मुआफ़ी माँगे, और उन्हंे मुंहमांगा हर्जाना दे। उधर दलित सरपंच भी आस-पास के क्षे़त्रो में अपनी जाति का बडा़ प्रतिष्ठित नेता माना जाता था। वह बडा़ ही प्रोेेगे्रसिव आदमी था, सो आज के जमाने में भला वह किसी बांभन के चरणों में गिरकर माफ़ी कैसे मांग सकता था, और वो आख़िर माफ़ी मांगे भी तो क्यों मांगे। वह वाज़िब हर्जाना देने के लिए राजी था, पर बांभन अडा़ हुआ था। और तो और उस बांभन के पूर्वजों को वह खेती वाली जमीन भी उस दलित सरपंच के पूर्वजों ने ही दान की थी। हालत बिगड़ते देखकर गाँव के कुछ बुजुर्गों ने मध्यास्थता करानी चाही, पर बांभन अडा़ ही रहा। लोगों ने सोचा कि गुस्सा उतरने पर वह खुद ही समझ जायेगा, और गोमाता को छोड़ देगा, पर बांभन अडा़ ही रहा। बांभन ने गाय को कुछ खाने को भी नहीं दिया। एक दिन हो गया, दो दिन फिर तीन दिन हो गये। यह ख़बर आसपास के सारे गांवों में आग़ की तरह फैल गई। आस-पास के सारे लोग दलित सरपंच को ही दोषी ठहराने लगे। लोगों की यह आम धारणा थी कि बांभन जो कहता है, और करता है, ठीक ही कहता-करता है। आखिर वह बांभन महाराज है और साथ ही पुजारी भी है।दिनभर भक्तिभाव में डूबे रहने वाला। लोग उस सरपंच पर दबाव डालने लगे कि बांभन की बात मान जाओ।अनावश्यक विवाद बढ़ता देखकर सरपंच ने प्रस्ताव रखा कि वह बांभन को मुँहमांगा हर्जाना देने को तैयार है। कुछ लोगों ने बांभन को समझाया कि अपनी थोडी सी फ़सल के नुकसान के एवज़ में सरपंच से बीस-पच्चीस हज़ार रूपये का हर्जाना मांग लो, और विवाद खत्म कर दो। पर बांभन ने तो ठान रखा था कि वह इस प्रगतिशील दलित को गिड़गिडा़ने के लिए मज़बूर करके ही छोड़ेगा।
भारतीय संदर्भो में आर्थिक आधार उतना मायने नहीं रखता है। यहां मुख्य मुद्दा है सामाजिक हैसियत। संभवतः भारत में दलित इसी वजह से वामपंथ के साथ पूरी तरह सहज नहीं हो पाते हैं। क्यांेकि वामपंथ आर्थिक समानता की बात कहता है। भारत में सामाजिक असमानता मुख्य चिन्ता का विषय है।वास्तव में बांभन द्वारा यह कार्य पूरी तरह बदले की भावना से किया जा रहा था क्योंकि पंचायत के चुनाव में इस सरपंच ने बांभन समर्थित उम्मीदवार को पटकनी देकर जीत हासिल की थी। जाहिर सी बात थी कि दलित सरपंच ने वर्चस्व की लडा़ई में बांभन को मात दे दी थी। यह बात उस बांभन को खटक गई थी, और वह वह हमेशा ही उससे बदला लेने की फिराक़ में रहता था।और इस बार उसे अच्छा मौका मिल गया था। गाय वाली बात दिनों-दिन तनाव का कारण बनती जा रही थी। हिन्दूवादी संगठन लामबंद होने लगे थे। सड़कों पर वाहनों से टकराकर मर जाने वाली गोमाताओं की तरफ़ से आंखें मंूद लेने लोग भी अचानक सक्र्रिय हो गये थे। रातोंरात न जाने कितने ही गोरक्षा दल बन गये। वे दलितों को सबक सिखाने के लिए ललायित थे। सबसे ज़्यादह आश्चर्य की बात यह थी कि इन हिन्दूवादी संगठनों में दलित और पिछडे़ ही ज़्यादह थे। इन्हें मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। उधर दलित सरपंच ने भी लामबंदी करने की कोशिश की, पर उसने पाया कि बा्रम्हण के पास धर्म-रूपी जो शस्त्र है, उसका तो कोई मुकाबला ही नहीं है। कल तक सरपंच के जो साथी थे, वे आज जाति और धर्म के नाम पर बाँट दिये गये थे। धीरे-धीरे वह अकेला पड़ता जा रहा था। हमारी हज़ारों-हज़ार साल पुरानी मानसिकता ही बांभनांे के लिए टाॅनिक का काम कर रही थी। कल तक समझौता कराने के लिए आगे आने वाले लोग अब दलित सरपंच को धमकाने लगे थे कि यदि गाय भूख-प्यास से मर गई तो उसकी सारी जिम्मेदारी ब्राम्हण की नहीं, तुम्हारी होगी, क्योंकि तुम दलित हो। इसलिए फालतू ज़िद छोड़ो़ और बांभन महाराज के पैरों मंे गिरकर माफ़ी माँग लो।
अब उस बांभन के इस धरने को अलग ही रूप दिया जाने लगा था। सरपंच के पास अब आखि़री विकल्प बचा था कि वह सीधे कलेक्टर के पास जाकर शिक़ायत दर्ज कराये, और गाय को बांभन के चंगुल से किसी तरह मुक्त कराये। दुर्भाग्य से उस जिले का कलेक्टर मुसलमान था। पर चँूकि लाॅ एण्ड आॅर्डर बनाये रखने की जिम्मेदारी उसी की थी, सो सरपंच की शिकायत पर वह दल-बल के साथ गांव पहुँचा। बांभन को शांति भंग करने के जुर्म मंे गिरफ़्तार कर लिया गया। पर जैसे ही पुलिस उसे ले जाने लगी, आसपास खडी़ भीड़ ने, पुलिस गाड़ियों पर पथराव शुरू कर दिया और नारे लगाने शुरू कर दिये। पठानों का राज नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। हिन्दू धर्म ज़िन्दाबाद, हर-हर महादेव। आखिरकार भीड़ पर लाठी-चार्ज करके बांभन को ले जाया गया। इसके बाद तो तनाव बेहद बढ़ गया, और पूरे जिले में कफ़्र्यू लगा दिया गया। कफ़्र्यू के साये में बांभन महाराज के घर के ताले को तोडा़ गया। तब तक गोमाता मर चुकी थी।
इसके बाद तो बांभन महाराज को अनावश्यक रूप से गिरफ़्तार करने के जुर्म में कलेक्टर को वहां से हटाकर दण्ड-स्वरूप नक्सल प्रभावित ज़िले मंे भेज दिया गया। दलित सरपंच को उसकी औक़ात बताने के लिए अविश्वास प्रस्ताव पारित कराकर उसे पद से हटा दिया गया और उसे भ्रष्टाचार के झूठे मामले में फंसाकर जेल में डलवा दिया गया। पंचायत उपचुनाव में गोभक्षी बांभन समर्थित उम्मीदवार जीत गया। बांभन अपनी मूछांे पर ताव देता फिरता रहा। जेल में बंद सरपंच, अपनी जाति और समाज के लोगों को कोसता है। जेल से छूटकर अब वह दूसरे गांव में बसने के बारे में सोच रहा है, लेकिन देश के सभी गांव तो एक से है, जहाँ इन गोभक्षियों रूपी नरभक्षियों का ही राज है, सोचकर वह काँप सा जाता है।
13 हारा हुआ योध्दा
आम-तौर पर फिल्मों और टीवी सीरियलों में हम जीते हुए राजा के सामने हारे हुए राजा को जब भी देखते हंै,वह बेड़ियों में जकडा़ हुआ नज़र आता है उसकी गर्दन झुकी हुई होती है। भले ही वह पराजित होता है, पर एक योध्दा तो होता ही है, सो उसके प्रति सम्मान का भाव तो स्वाभाविक रूप से पनपने ही लगता है।
रंजन एक हिन्दी दलित साहित्यकार था। उसकी रचनाएँ बडी़ पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रहीं थीं। एक दिन उसे एक पत्र मिला। वह रणवीर नाम के किसी मराठी अनुवादक का था। उसने रंजन की रचनाओं के मराठी अनुवाद करने की और उसे मराठी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने की अनुमति माँगी थी। वह पत्र बडे़ ही सलीके से सुव्यवस्थित ढंग से लिखा गया था। पत्र लिखने का तरीका बेहद विद्वतापूर्ण था। रंजन की दिली ख़्वाहिश थी कि उसकी रचनाओं का मराठी और बंगाली में ज़रूर अनुवाद हो। क्योंकि महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में क़िताबें पढ़ने का कल्चर आज भी अपने पूरे शबाब पर है। लोग उपहार के रूप में क़िताबों का सैट देते हैं। वैसे भी महाराष्ट्र का दलित आंदोलन और साहित्य बेहद संपन्न है। ऐसे में किसी मराठी अनुवादक की पहल ने उसमें पंख लगा दिये, और उसने तत्काल ही अपनी सहमति भेज दी। अनुवादक ने उसकी कुछ रचनाओं का अनुवाद करके मराठी दलित आन्दोलन की पत्रिकाओं में भेजना शुरू कर दिया।
रंजन अपने इस अनुवादक मित्र से मिलने को बेताब था। रंजन पहली बार भोपाल जाते हुए उससे नागपुर के रेलवे स्टेशन पर थोड़ी देर के लिये ही मिल पाये था। हालाँकि उसका वह मित्र उससे 25 वर्ष बडा़ था, पर साहित्यिक मित्रता में उम्र कोई मायने नहीं रखती है। वे दोनों ही साहित्यिकार थे इसलिये वैचारिक रूप से वे हमउम्र ही थे। इधर रंजन के दलित मुद्दो पर लिखे गये आलेख बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार छप रहे थे। इन आलेखों का रणवीर द्वारा किया गया मराठी अनुवाद भी मराठी दलित साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छप रहा था। कुछ दिनो बाद रंजन को नागपुर जाने का अवसर मिला। वह रणवीर से मिलने उसके घर पहुंचा। उनका छः कमरों वाला घर था। वे लोग तीन कमरों में रहते थे, और उन कमरों के समानान्तर तीन कमरे और थे। इन तीनों कमरों मे हिन्दी, मराठी और अंग्रेज़ी की किताबें भरी हुई थीं। वहाँ एक स्टडी टेबल और एक डबलबेड का पलंग भी था। रणवीर की किताबों की लाॅयब्रेरी बहुत सम्मपन्न थी।उसने अपनी क़िताबों के बारे में बडे़ गर्व से बताया कि कौन सी क़िताब उसने कहाँ से और किन परिस्थियों में ली, और किस क़िताब को उसने मुँहमाँगी कीमत पर खरीदा। तकरीबन 20 से पच्चीस हज़ार क़िताबें रही होंगी उसके पास। वाकई में वह ज्ञान के खज़ाने का मालिक था। वह गर्व से बताने लगा कि पूरे महाराष्ट्र में उनकी जितनी बड़ी निजी लायबे्ररी किसी के पास नहीं है।
समय बीतता गया। इस दौरान रंजन का कई बार रणवीर के घर आना-जाना हुआ। उनके घर जाने पर रंजन को वापस लौटने की इच्छा नहीं होती थी। आज के दौर में किसी के यहाँ एक दिन भी रूकना मुश्किल है, वहीं पर रंजन उनके घर चार-पांच दिनों तक रूक जाता, और क़िताबें पढ़ता रहता। वे दोनों किताबों में ही मगन रहते, और सिर्फ़ खाना खाने के लिए ही बगल के तीन कमरों में जहाँ पर रणवीर का परिवार रहता था, उस ओर जाया करते थे। पहली बार तो रंजन को कुछ अहसास ही नहीं हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उसेे समझ में आने लगा कि रणवीर के घर में अजीब क़स्म की मुर्दनगी पसरी हुई रहती है। उसकी पत्नी अंधेरे कोने में बैठकर रोती रहती है। उनकी एक सत्रह-अठ्ारह साल की बेटी सुबह के दस बजे तक सोती रहती है। उसकी एक शादीशुदा बेटी भी है, जो कभी-कभी ही आती है, और उस दौरान वह अपने पिता से ऊँची आवाज़ में कुछ-कुछ कहती है। हालाँकि यह सब उनका बिल्कुल ही निजी मामला था, पर रंजन अक्सर अपने उस मित्र को परेशान होते हुये देखता था।रंजन को लगा कि शायद वह रणवीर की कुछ मदद कर सकता है। यह सोचकर एक दिन उसने उससे उसके परिवार के बारे में पूछा। अब तक वे लोग एकदम क्लोज़ हो चुके थे। इस पर रणवीर ने बताया कि उसके तीन बच्चे हैैं। सबसे बडा़ लड़का है।वह अपराधी किस्म का है। वह लोगों से नौकरी दिलाने के नाम पर पैसा ठग लेता है, और उन पैसो से अय्याशी करता है। लोग उसका पता पूछते हुए मेरे पास आते, और मुझ पर पैसा देने के लिए दबाव बनाते थे, सो मैंने पूरी कानूनी प्रक्रिया करके अपने उस बेटे के साथ अपने सारे संबंध खत्म कर लिये। मैंने अख़बारों में विज्ञापन भी ज़ारी करा दिया कि मेरा अपने उस पुत्र से कोई संबंध नहीं रह गया है। मैं तो उसे अपने घर में घुसनें भी नही देता हूँ। मेरी अनुपस्थिति में जरूर वह गुपचुप तरीके से आता है, और अपनी मां से मिलता रहता है। चूंकि उसकी माँ उसकी अंधभक्त है, सो वह मेरे सामने उसका रोना लेकर बैठ जाती है, और रूपयों-पैसों से उसकी मदद करने को कहती है। उसके बाद की मेरी बड़ी बेटी है। मंैने बडे़ अरमानों से उसे पढ़ाया-लिखाया, उसकी शादी की, लेकिन अपनी मां के ख़राब संस्कारों की वजह से वह अपनी ससुराल मे तीन माह भी नहीं रह पाई और उसने अपने पति से तलाक़ ले लिया। मुझे अपनी बड़ी लड़की से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन वह भी नालायक़ निकली। तलाक़ लेकर वह मेरे ही घर में रहना चाह रही थी, लेकिन मैंने उसे भगा दिया। मैंने उससे स्पष्ट कह दिया है कि मैं तुम्हें पालने वाला नहीं हूं। खुद कमाओ और अलग रहो। आजकल वह एक प्रायवेट स्कूल में टीचर का काम करती है, और वहीं कहीं रहती है। वह भी अपनी मां से ही मिलने आती है, और मैं सामने पड़ जाता हूँ, तो मुझसे लड़ने लगती है कि मैंने उनकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी हैं। छोटी लड़की तो पूरी बिगडै़ल है। वह तो कई-कई दिनों तक घर से ग़ायब ही रहती है। हमें बताती है कि काॅलेज़ टूर में जा रही हूं, लेकिन वह आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती थी। दो चार-बार तो महिला पुलिस इसे घर तक छोड़ गई है। वह ड्रग भी लेने लगी थी। है तो मात्र सत्रह साल की, लेकिन इसके रंग-ढंग बेहद ख़तरनाक हैं। मैं तो अब उसे घर से बाहर ही नहीं निकलने देता। मैंने उसकी पढा़ई छुडा़ दी है। वो जैसे ही अट्ठारह की होगी, उसकी शादी करा दूंगा। यार रंजन मैं इतना प्रतिष्ठित व्यक्ति हूँ। महाराष्ट्र के तमाम दलित संगठनों को मैं नियमित रूप् से चंदा देता रहता हँू। तमाम तरह के दलित आंदोलनों में मैं बढ़-चढ़कर भाग लेता रहता हूँ। लोग मुझे एक बडे़ आन्दोलनकारी के रूप में जानते हैं, लेकिन मेरे अपने परिवार ने ही मेरी नाक कटा दी हैं। खै़र मैं किसी की परवाह नही करता हूँ। मेरा लक्ष्य है आन्दोलन, आंदोलन और सिर्फ़ आंदोलन। लड़ाई, लड़ाई और सिर्फ़ लड़ाई। संघर्ष, संघर्ष और सिर्फ़ संघर्ष। ये सारी बातें बताते बताते गणवीर उत्तेजित हो गया था। बात निकल ही गई थी तो रंजन को लगा कि लगे हाथ उनकी पत्नी के कोने में बैठकर रोने का कारण भी पूछ ही लेता हूँ। उसके पूछने पर रणवीर ने बताया कि शादी के पहले वह एक सरकारी स्कूल में टीचर थी। चूंकि मैं दलित आंदोलनों में बिज़ी रहता था, सो मेरे पीछे घर की देखभाल करने के लिए अपनी पत्नी को नौकरी नहीं कराना चाहता था, और इसलिये मैंने उसकी नौकरी छुड़वा दी।
रंजन ने उनकी पुरूषवादी सोच को पुष्ट करते हुए कहा हां भाई, आप इतने बडे़े पद पर हंै। लगभग एक लाख रूपये आपकी सैलरी है, तो आपको भला अपनी पत्नी को नौकरी कराने की जरूरत ही नहीं है। इस पर उन्हांेने मुझे फुसफुसाते हुए बताया- अरे यार मैं तो अपनी तनख्वाह का लगभग 50 प्रतिशत् तो क़िताबंे खरीदने में निकाल देता हूँ। और लगभग तीस प्रतिशत् तो विभिन्न दलित आंदोलन से जुडे़ हुए संगठनों को दान में दे देता हूं। मैं अपनी पत्नी को घर खर्च के लिए दस से बीस प्रतिशत् के बीच ही देता हूँ। ऐसा मैं शुरू से कर रहा हूं। मेरी औरत मुझसे कहती है, तुमने हमें बर्बाद कर दिया है। अब रंजन तुम्हीं बताओ यार कि हम जैसे प्रबुध्द लोग आंदोलनों में खर्च नहीं करेंगे, तो कौन करेगा।
रणवीर की अव्यावहारिक सोच, और उनके घर की परिस्थ्तिियों के बारे में जानने के बाद रंजन का उनसे मोह भंग होनेे लगा था। अब उसने उनके घर जाना बहुत कम कर दिया था। कुछ महीनों बाद रणवीर रिटायर हो गया। रिटायरमेण्ट के वक़्त उसे लगभग पचास लाख रूपये मिले थे। वह रंजन को अपना बेेहद भरोसेमंद साथी मानता था। लेकिन सारे हालात जानने के बाद रंजन उन पर भरोसा नहीं कर पाता था। एक बार रणवीर,रंजन के घर पर आया। वह बेहद डरा हुआ था। उसने बताया कि रिटायरमेण्ट के बाद मुझे मिले हुए रूपयों को हड़पने के लिए मेरी औरत और मेरे तीनों बच्चें एक हो गये हैं। और वे मुझे मार डालना चाहते हैं। अब मैं उनके साथ नहीं रह सकता। मैं सोच रहा हूं कि अपनी पत्नी से तलाक़ ले लूँ, क्योंकि मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता कि मेरे जीते जी या मेरे मरने के बाद मेरा पैसा इन नालायक़ों के हाथ लगे। पहले मैंने सोचा कि वकील बुलवाकर अपनी एक वसीयत बनवा लूं जिसमें अपनी सारी क़िताबों और नगद राशि दलित आंदोलन से जुडे़ संगठनों को दान कर दूं। पर वकील ने कानूनी समस्या बताई,
रंजन, रणवीर को बेहद ज्ञानी मानता था, लेकिन उनकी यह बात उसे बेहद मूर्खतापूर्ण लग रही थी। उम्र में उससे बहुत छोटा होने के बावजूद उसने रणवीर को उसके परिवार के करीब लाने की कोशिश की, पर परिवार का जिक्र आते ही वह बेहद भड़क जाता था। और भड़कर कहता था कि आंदोलनकारी यूं ही हार थोडे़ मानता है। अरे मैैं आंदोलन से जुड़ा हुआ आदमी हूँ। ऐसे कैसे किसी से भी समझौता कर लूँ। यदि मेरी पत्नी शोषक है, तो मैं उसके खिलाफ़ लडूंगा, यदि मेरे बच्चे मेरे साथ अन्याय करते हैं तो मै उनके खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करूंगा। हांलाकि रंजन अब तक यह जान चुका था, कि अपने परिवार की वर्तमान हालत के लिए रणवीर खुद जिम्मेदार था। वह खुद एक शोषक था, वह खुद अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अन्याय कर रहा था। चूंकि परिवार का जिक्र करने पर रणवीर बेहद उत्तेजित हो जाता था, और उसका बीपी हाॅई हो जाता था, सो अब रंजन ने उसके सामने उसके परिवार के बारे में बातें करनी छोड़ दी थी।पर चूंकि रणवीर तलाक़ और वसीयत के बारे में रंजन की राय जानना चाह रहा था, सो उसने उसेे टालने के उद्देश्य से कह दिया कि आपका अपना विवेक जो कहता है, वो करिये। वैसे भी वह रणवीर को समझा-समझाकर थक गया था कि आपका परिवार आपका दुश्मन नहीं है। आप अपने रूख में थोड़ा परिवर्तन तो लाओ। कुछ दिनों बाद रणवीर ने रंजन को फोन पर बताया कि उसने अपनी पत्नी से तलाक़ लेने के लिए केस दायर कर दिया है। अब वह अपने घर से अलग अकेला रहता है। इसके अलावा उसने रंजन को यह भी बताया कि उन्हांनेे एक दलित आंदोलनकारी संगठन को दान करने के लिए तीन लाख रू. बैक से निकाल कर रखे थे, वो चोरी हो गये। और उसे पक्का पता है कि इस चोरी में मेरे लड़के और छोटी लड़की का हाथ है, इसलिए मैने उनके खिलाफ़ भी पुलिस में चोरी की रिपोर्ट लिखा दी है।
रंजन को अब णवीर बातों से ऊब सी होने लगी थी, सो उसने अपनी तरफ़ से उसे फोन करना बंद कर दिया था। हां रणवीर की तरफ़ से नियमित फोन आता रहता था। और रणवीर कल ही रंजन के घर आया था। वह बेहद हताश और निराश था। रंजन उसकी मनःस्थिति से पूरी तरह परिचित था। वह अभी ही उसे एक मनोचिकित्सक के पास लेकर गया था। डाॅक्टर ने उसे नींद की दवाइयां दी थीं, जिसके प्रभाव में वह गहरी नींद सो रहा था। रणवीर के बारे में सोचते हुए रंजन को उसमें बरबस ही हारे हुए योध्दा की झलक दिखाई दे गई थी।
14 शिकारी
विजय को याद है उसे कि उसे बचपन से ही किताबों मंे शिकार कथाएँ पढ़ने का शौक था। वह भी साहित्य की एक विधा मानी जाती थी। शिकार कथा में बडी़-बडी़ मूछांे वाले हैट पहने हुए शिकारी की फोटो होती थी, जिसमे वह शिकारी किसी मरे हुए शेर के सर पर पैर रखा होता था। उसके साथ उसकी रायफल भी हुआ करती थी। वह अक्सर सोचता कि वह भी किसी दिन ऐसा ही शिकारी बनेगा। वह भी बड़े-बडे़ शेर और शेरनियों का शिकार करेगा। धीरे-धीरे शिकार कथाएँ छपनी बंद हो गई, क्योंकि वन्य प्राणियों को संरक्षण दिया जाने लगा था। तब तक शिकार कथाएँ उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव छोड़ चुकी थीं। उसके जेहन में शिकारियों की फोटो स्थाई तौर पर घर कर चुकी थी। वह दलित जाति का था इसलिये वह ऐसा ही कोई काम करना चाहता था, जिससे वह भी लोगांे के सामने सीना तान कर खड़ा हो सकें। वह अकड़ कर रहना चाहता था।
विजय को अपने दलित होने का अहसास बचपन से ही था। वह कस्बे की जिस स्लम बस्ती में रहता था, वहाँ जाति ही व्यक्ति की पहचान होती थी। वास्तव में स्लम बस्तियाँ नहीं होती है, स्लम तो एक मानसिकता का नाम है। आस-पास के बच्चे उसे उसकी जाति का नाम लेकर चिढ़ाते थे। उसमें जातिगत हीनता की भावना बचपन से ही घर कर गई थी। हालांकि वह एक तीक्ष्ण बुध्दि का मालिक था, तो भी जातिगत हीनता ने उसे कुण्ठित करना शुरू कर दिया था। उसके साथ मीना क्षत्रीय नाम की एक लड़की और उसका भाई जीतू पढा़ करता था। जीतू गुण्डे-मवालियों जैसे ही ग़ाली गलौज़ करता रहता था, और बात-बात पर कहता हम लोग क्षत्रीय हैं, और युध्द करना हमारी आदत है। ऐसा कहते हुए कक्षा में वह बेमतलब किसी को भी पीट देता। वह लडा़ई करने के लिए हमेशा ही उद्यत रहा करता था। विजय की क्लास में भारती पाण्डे नाम की एक ब्राहम्ण लड़की भी पढ़ा करती थी। वह एकदम गोरी-चिट्टी थी।
उस प्रायमरी स्कूल में शहर के तो कम लेकिन आस-पास के गाँव के लोग ही ज्यादह पढ़ने आते थे। वे अपने उस परिवेश से पूरी तरह प्रभावित होते थे, जिसमें लोग कैसे बे तेली? क्या है बे चमरा जैसे जाति सूचक संबोधनों से ही संबोधित किया करते थे। ख़ैर विजय किसी गांव का रहनेे वाला न होकर, उसी कस्बे के एक स्लम का मूल निवासी था। उसके मोहल्ले में भी लोग आस-पास के गाँव से ही आकर बसे हुए थे, सो वहाँ भी जाति का ज़हर बचपन से ही दिमाग में घोल दिया जाता था। या यह कह सकते हंै कि घुट्टी में पिलाया जाता था। विजय की तीक्ष्ण बुध्दि से और लोगांे की भाँति ही मीना और भारती भी बेहद प्रभावित थीं। वे उसके मोतियों जैसे अक्षरों पर फ़ि़दा थीं, और नोट्स बनाने में उसकी मद्द लिया करती थीं। चूंकि विजय हीनता के बोध का मारा था, सो वह ऐसी ऊँची जात की लड़कियों को नज़र उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर पाता था। उसे मीना के भाई से बेहद डर लगता था, कि कहीं वह उसकी ठुकाई ना कर दे। इधर भारती के पिताजी उसी स्कूल में टीचर थे, सो वह इस बात से डरता रहता था कि कहींें उसे स्कूल से ही न निकाल दिया जाये। वैसे भी दलितों को बिना किसी कारण के स्कूल से निकालना एकदम आसान था। ख़ै़र नोट्स के आदान-प्रदान के बीच वे दोनों ही लड़कियाँ उसे पसंद करने लगी थीं। वे दोनों ही नज़दीक के गांव की रहने वाली थीं। गांव के बच्चे तो बचपन में ही सयाने हो जाते है, सो उन्हे स्त्री-पुरूष संबंधांे के बारे में बहुत सी जानकारियां हो जाती हंै। गांवो में दी जाने वाली सेक्स आधारित ग़ालियांे से भी उन्हें शरीर के अंगांे की जानकारियां हो जाती हंै। ख़ैर रिसेस में वे दोनों विजय के साथ ही खेलना पसंद करती थीं। विजय पढ़ाई के अलावा किसी भी भागने-दौड़ने वाले खेल में होशियार नहीं था। वह कैरम, लूडो, सांप-सीढ़ी, और शतरंज़ जैसे खेल ही अच्छे से खेल पाता था। एक बार दोनों ही लड़कियांे ने उससे लुकाछिपी खेलने के लिए मना लिया, और वे लोग खेलने लगे। लुकाछिपी खेलने के दौरान वह पाता कि दोनों ही लड़कियाँ एकान्त में उसे चुम्बन जड़ देती हैं, और कई बार तो उससे लिपट भी जाती हैं। पहली-पहली बार तो वह बुरी तरह शरमा और घबरा गया, पर छुटपन होने के बावजूद उसे समझ मंे आने लगा कि ऊँची जात की कम से कम दो लड़कियाँ तो उसे पसंद करती हैं, और वह भी किसी से कम नहीं है। ऐसा सोचकर उसका आत्मविश्वास दुगना हो जाता। जैसे-जैसे वह बडी़ क्लाॅस में पहंुचता गया, वह उँची जात की लड़कियों से ही दोस्ती करने लगा। इनसे दोस्ती करने पर उसे भीतर से गर्व की अनुभूति होती। अब वह सोचने लगा कि धीरे-धीरे वह उँची जात में तब्दील होता जा रहा है। अब उसे एक क़िस्म की लत सी लग गई थी। पूरी तरह समझ विकसित होने तक वह महसूस करने करने लगा था कि इन लड़कियों में गजब का नशा होता है, जो आदमी को उसकी जात तक भुला देता है। काॅलेज़ पहुँचने तक वह दीवानगी की हद तक इनका दीवाना हो चुका था। वह किसी शिकारी की भांति ही टोह लेता रहता और चुन-चुनकर इन्हीं उंची जात की लड़कियों से दोस्ती करता। अब तक उसका कस्बा शहर का आकार ले चुका था, और शहरी चकाचैंध के तमाम साधन वहाँ मौजूद थे। उसकी प्रतिभा की कायल उँची जाति की सम्पन्न लड़कियाँ उसे खुद ही होटलिंग करातीं और फिल्में दिखातीं। इतना होने पर भी अब तक उसका आत्मविश्वास स्थाई नहीं था। वह ऊँची जाति की लड़कियों के अलावा सभी के साथ असहज महसूस करने लगता। धीरे-धीरे उसने पाया कि वह इन लड़कियों का आदी सा हो चुका है। इन लड़कियांे का नशा उसके वजूद पर बुुरी तरह से तारी होता जा रहा था। वह इन लड़कियों के साथ संसर्ग करते हुए उसे हमेशा ऐसा लगता मानों वह एक विजेता है। कुछ वर्षांे बाद उसे एक घोर देहाती क्षेत्र में नौकरी मिल गई।अब ऊँची जाति की लडकियों के संसर्ग के कारण बना उसका आत्मविश्वास ढहने लगा था। वह आसमान से नीचे जमीन पर आ गिरा था, क्योंकि यहां पर उसकी जाति ही उसकी सबसे पहली पहचान थी। दलित जाति का होनेे के कारण उसे उंची जाति की कोई भी लड़की लिफ्ट नहीं देती थी। उलटे उसे देखकर मुँह बनाकर निकल जाया करती थीं। अब उसके अंदर की हीन-भावना बेहद शिद्दत से अपने पैर पसारने लगी थी। अच्छी सरकारी नौकरी होने के कारण उस क्षेत्र की दलित लड़िकयाँ तो उसकी तरफ़ आकर्षित होती थीं, पर विजय की भूख तो अलग ही क़ि़स्म की थी, सो वह उनकी तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं देता था। उसे लगता था कि अपने अस्तित्व को बनाये और बचाये रखने के लिए उसे उँची जांति के लड़की के साथ संसर्ग करना ही होगा। उसे अपने-आपको विजेता मानना ही था। अब इससे पहले कि वह हीन भावना से भरकर कुण्ठाग्रस्त हो, उसे किसी न किसी उँची जाति की लड़की के साथ जल्द से जल्द सम्बन्ध बनाना जरूरी था, वरना उसके निराशा और हताशा के गर्त में डूबने का खतरा था। उसने अपने ध्यान को केन्द्रित किया और पाया कि गाँव में एक ऊँची जाति के शिक्षक हैं, ठाकुर सर। उसकी एक बिन ब्याही बेटी थी। उसकी शादी की उम्र निकलती जा रही थी। हालांकि वह विजय से बडी़ थी, पर थी तो ठाकुर परिवार की। विजय ने कई बार महसूस किया था कि वह लड़की उसकी तरफ आकर्षित है, और उसे देखकर मुस्कुराती है। अब तक विजय को अहसास हो गया था कि उसे जल्द ही कुछ करना होगा। अब तक तो वह बेहद कमसिन लड़कियों को ही पटाता आया था, पर यह लड़की तो थोड़ी मोटी और औसत रंगरूप वाली थी। उपर से उससे दो-तीन साल बडी़ थी, लेकिन इससे उसे क्या फ़र्क़ पड़ना था। थी तो ऊँची जात वाली ही ना। विजय के लिए इतना ही पर्याप्त था। कौन सा उसे उससे शादी करना है, मुफ़्त में मजे लेने के लिए क्या बुरी है, और अपने-आपको विजेता मानने के लिए वैसे भी कुछ न कुछ तो करना ही है। अब विजय भी उसे देखकर मुस्कुराने लगा था और कुछ दिनों बाद ही वह एक बेहद आसान-शिकार साबित हो गई। वह विजय से पूरी तरह पट गई। कुछ ही दिनांे में उनके बीच शारीरिक सम्बन्ध बनने भी शुरू हो गये। विजय के भीतर यह डर था कि उसका बाप और भाई बेहद खतरनाक हांेगे। उसे अपने बचपन के साथी जीतेन्द्र की याद आ जाती और पिटाई के अहसास से उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ जाती थी। वह अक्सर देखता कि ठाकुर सर के घर की दीवार पर रायफलें टंगी रखी रहती थी। इसके अलावा उन्होंने जंगली जानवरों की खालें भी सजा कर के रखीं हुईं थी। कुछ जानवरों की खालों में उन्होंने भूसा भरवा कर रखा हुआ था। वे एकदम जीवंत लगते थे।उन्हे देखकर विजय बेहद डर जाता था। उसे याद आता कि बचपन में जीतेन्द्र अपने साथियों को पीटता हुआ कहता-अबे मेरी बहन को कुछ बोला तो तेरी खाल में भूसा भर दूंगा। वह यह सोचकर पसीने-पसीने हो जाता कि कहीं लड़की के बाप और भाई मिलकर सच में तो उसकी खाल में भूसा नहीं भर देंगे। पर उसकी आशंका निर्मूल साबित हुई। कुछ ही दिनांे बाद उसने महसूस किया कि अब वो ठाकुर सर उसके साथ बेहद आत्मीय होकर बातें करने लगे हैं और उस लड़की का भाई भी उसके साथ दोस्ताना संबंध रखने लगा है। अब उसके घर जाने पर बेहद आत्मीयता भरा व्यवहार होने लगा था। इस बीच उसने उस लड़की से तीन-चार बार सम्बन्ध बना लिये थे, और उसे अब अपने आपको विजेता मानने का अहसास होने लगा था। उसका खोया हुआ कान्फिडेंस वापस लौटने लगा था। उस घर में अब उसे वीआईपी ट्रीटमेंट मिलने लगा था।
एक दिन संसर्ग के दौरान ही लड़की ने उससे पूछ लिया कि हम शादी कब कर रहे हैं? विजय यह प्रश्न सुनकर चैंैक सा गया। फिर उसने अपने-आपको संभालते हुए शातिराना अंदाज़ में कहा कि हमारी तो शादी नहीं हो सकती। कहाँ तुम राजपूत जात की लड़की और मैं सबसे नीची जात का अछूत लड़का हूँ।भला हम दोनों का ब्याह कैसे हो सकता है। इस पर उस लड़की ने हंसते हुए खुलासा किया कि हम लोग भी पड़ोसी राज्य से आप ही की जाति के हैं। हम छुआछूत के डर से ठाकुर लिखते हंै। और तो और हमनंे ठाकुरों जैसी दबंगई दिखाने के लिए हर उपाय कर लिए हंै। दीवारों पर टंगी रायफलें भी असली नहीं हैं। जानवरों की खालें भी कपडो़ं से ही बनी हुई हंै। इस गाँव में सभी हमें ऊँची जाति का मानते हंै, पर वास्तव में हम भी दलित ही हैं। मंैने घर में सबको बता दिया है कि हम शादी करने वाले हंै। हमें भागकर शादी करनी होगी, और तुम्हें अपनी बदली कहीं और करानी होगी। ताकि मेरे परिवार के लोग यह कह दें कि हमारी लड़की एक दलित के साथ भाग गई। इससे उनकी ठकुराई भी सुरक्षित रहेगी और हमारी शादी भी हो जायेगी।
उस लड़की की बात सुनकर विजय सकते में आ गया। उसका आत्मविश्वास भरभराकर ढहने लगा। अब तक खुद को शिकारी मानने वाले विजय को लगने लगा मानों उसका खुद का ही शिकार कर लिया गया हो।
15 कसाई
बचपन में गोपी मांसाहारी था और एक तरह से मांसाहार का दीवाना ही था। वह प्रायमरी स्कूल में पढ़ता था तो कभी-कभी अपने पिता के साथ मटन खरीदने जाया करता था। कसाई किसी भी रूप में कसाई नहीं लगता था। वह बडे़ अच्छे से बातें किया करता था। लेकिन उसके हाथ मे जो छुरा होता था वह बेहद डरावना था। और गोपी को वही डराता था। हालांकि उसने कभी बकरे को कटते हुए नहीं देखा था। उसके पिताजी के पास जब पैसे होते तो वे पुट्ठे का मांस लिया करते थे। चूंकि उस दौर में मांसाहार एक बहुत मंहगा शौक होता था, सो चार-पांच महीने मे एक-आध बार ही उन्हें मांस खाने का मौका लग पाता था। उस दिन वे सारे भाई-बहन बेहद खुश रहते थे। उसके पिता मांसाहारी भोजन बनाने में दक्ष थे। वैसे उन्हे मांसल हिस्सा खरीदने के मौके कम ही मिलते थे। उसके पिता ज्यादहतर बकरे की मुण्डी या फिर पैर ही खरीदते थे। वे बडी़ एकाग्रता से बकरे के पैरों को भूंजते और उसके बालों को निकाल करते थे। वे अपने काम में एकदम ध्यानमग्न होते थे। यह पूरे दिनभर का कार्यक्रम होता था। सुबह के खरीदे हुए पैरों की अपरान्ह लगभग चार बजे तक ही तरकारी बन पाती थी। अभावों के उस दौर में उन्हेें भूख भी बेहद ज़्यादह लगती थी। और वे भाई-बहन गोश्त के उबाले जाने के दौरान जाने के दौरान ही आधा खत्म कर देते थे। वास्तव में भूख की सही तीव्रता का अहसास अभावों के समय ही पता लग पाता है। उसके पिता मटन को उबालते वक़्त ही लहसुन, प्याज हल्दी व मिर्च भी साथ ही डाल दिया करते थे। सो तरकारी पूरी तरह बनने के पहले ही उन्हें उसमें तरकारी का पूरा मजा आता था। और वे सभी भाई-बहन चूल्हे के इर्द-गिर्द इकट्ठे होकर बैठते थे। और गिनती गिना करते थे कि एक हजार तक गिनती ख़त्म होने पर तरकारी तैय्यार हो ही जायेगी।
हड्डियों और मांस की काट-छांट करने के लिये उनकेे घर पर एक भारी सा काले रंग का छुरा हुआ करता था। लगभग उसी साईज का छुरा कसाई के पास भी होता था। मीडिल स्कूल पहुंचने तक उसकेे पिता की मृत्यु हो गई थी और वे लोग फिर मांसाहार नहीं कर पाने की मजबूरी के कारण पूरी तरह शाकाहारी हो गये थे। खैर फिर धीरे-धीरे उसमें समझ विकसित होने लगी, और मांसाहार के विषय मेें उसकी एक नई धारणा बन गई कि यह बुरी चीज़ है। लेकिन उसके घर में अब भी वह बडा़ वाला छुरा अपने अस्तित्व का अहसास कराता हुआ दीख पड़ता था और उसे कसाई और अपने पिता दोनों ही एक साथ याद आ जाते थे। इस बीच उसे जानवरों के क़त्ल के संबंध में नई-नई जानकारियां मिलने लगीं। उसे पता चला कि दिल्लीं के कुछ इलाकों में सुअर को मारने के लिए बड़ा ही विचित्र और नया तरीका अपनाया जाता है। पुराने तरीके से जब कसाई उन्हें मारते थे, तो उस मारने वाले छुरे को देखकर डर के मारे सुअर अपने अंगों को सिकोड ़लेता था, जिससे उस सुअर का मांस स्वादिष्ट नहीं रह जाता था, सो वहां के कसाई अब दूसरा तरीका अपनाने लगे थे। वे उसे पुचकारते हुए कुछ खिलाते जाते और उसकी गर्दन को सहलाते हुए एक झटके में गर्दन को धड़ से अलग-कर देते। इस तरह से मारे गये सुअर का मांस बड़ा ही स्वादिष्ट होता है, ऐसा कहा जाता था। इस तरह की जानकारी मिलने पर गोपी को बेचारे सुअरों पर तरस आने लगा था जो पुचकारे और सहलाये जाकर अचानक धोखे से मार डाले जाते हैं। ऐसे ही उसनेे कहीं एक आलेख पढ़ा़ था कि कई देशों सहित भारत के कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में भी लोग कुत्ते का मांस खाते हंै। यह उसके लिए शाकिंग न्यूज थी। वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कुत्ते जैसे वफ़ादार जानवर को भी लोग मारकर खा जाते हैं। कुत्तों की वफ़ादारी से तो वह खुद ही बेहद अच्छी तरह से परिचित था। उसने एक देसी नस्ल का कुत्ता पाला था, जो उससे बातें किया करता था। वह उसके आॅफिस से लौटने पर वह शिकायती लहजे में पूछता था कि आप दिन भर कहां थे। मुझे अकेला छोड़कर क्यों चले गये थें। आॅफिस से आते-आते जब गोपी सब्जियों के ठेले से सब्जियां लिया करता तो वह उसके आगे-पीछे घूमता और जब पाता कि उसके खाने लायक कोई चीज नहीं है तो वह शिकायती लहज़े में भौंकता। उस वक्त उसकी भौंक अलग तरह से होती जैसे किसी बच्चे को मनपसंद चीज न मिली हो। ं धीरे-धीरे गोपी उसकी भाषा पूरी तरह समझने लगा था। और वह उसके लिये आॅफिस से आते वक्त कुछ न कुछ खाने का लाने लगा। उसे छी-छी या सू-सू करने भी जाना होता तो वह उसके पास आकर अलग तरीके से आवाज निकाला करता और गोपी उसकी भाषा समझकर उसे बाहर घुमा लाता। उसनेे एक कुत्ते के साथ पिता-पुत्र सा संबंध जिया था। सो कुत्ते को मारकर खाने वाली घटना से उसे भीतर तक दहला दिया था। आगे उस आलेख में कुत्ते को मारने का तरीका भी लिखा हुआ था कि मारने के पहले उसे खूब सारा भात खिलाया जाता है और मारकर उसे साबुत ही भूना जाता है।
गोपी एक गांव में नौकरी करता था। वह गांव दो राज्यों के बार्डर पर था। चूंकि एक राज्य में गोवध प्रतिबंधित था, सो उस राज्य के गोवंश से संबंधित मवेशियों को दूसरे राज्य के बूचड़खाने में भेजा जाता था। इसमे आवारा मवेशियों के अलावा ऐसी गोमाताएं भी होती थीं, जिन्हे बूढ़ी हो जाने पर उनके मालिक कसाई को बेच दिया करते थे। चूँकि प्रतिबंध के कारण कसाई की हिम्मत नही पड़ती थी कि वह इसी राज्य में उसे काटे, सो वह थोडे़ से लाभ के साथ उन मवेशियों को मवेशी तस्करों को बेच दिया करता था। उस गांव में यूँ तो सभी जाति के लोग रहते थे, पर वह गांव दलित बहुल होने के कारण वहाँ का सरपंच एक दलित ही था। उस गांव में एक ब्राम्हण परिवार रहता था। वह परिवार मूल रूप से उस गांव का नहीं था। उस परिवार का मुखिया गांव की स्कूल में चपरासी था। उसका एक जवान लड़का था, जो पूरी तरह से बर्बाद था। वह तमाम कुकर्म किया करता था। अपनी इन बुरी आदतों को पूरा करने के लिये उसे पैसों की सख़्त जरूरत रहती थी, जिसके लिये वह अवैध वसूली और राहगीरों से लूट-पाट आदि किया करता था।
इसी गाँव में एक ठाकुर परिवार भी रहता था। किसी जमाने में इस ठाकुर के पूर्वज उस क्षेत्र के जमींदार हुआ करते थे, लेकिन पीढी़ दर पीढी़ उनकी अय्याशी से उनके खेत बिकते चले गये और अब इस परिवार के पास दो एकड़ खेत ही बच गये थे, लेकिन वह परिवार अकड़ अब भी जमीदारों जैसी ही दिखाता था। अब जबकि गांव-गांव में सरकारी काम खूल गये थे, सो ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी बढ़ गई थी। भला अब वे क्यों किसी की अकड़ बर्दाशत करते। अब ठाकुर के एक कहने पर लोग उसे दस बातें सुनाने लगे थे। और उनके द्वारा सामूहिक रूप से फै़सला ले लिया गया था कि उसके खेतों में मजदूरी करने कोई नहीं जायेगा। फिर भी उसे न सुधरना था, न ही वह सुधरा।उस ठाकुर के उपर लाखों रूपये का कर्ज था, क्योंकि, उसके ठाठ में तो किसी किस्म की कमी नहीं आई थी। उसका एक लड़का था। वह भी नंबरी नालायक था, और बांभन के लड़के के बाद उस गिरोह का दूसरे नंबर का सरगना था। इसके अलावा गांव के और भी लोफर किस्म के लड़के भी इस गिरोह के सदस्य थे। लेकिन इस गिरोह की वारदातें ज़्यादह दिनों तक नहीं चल पाई, क्योंकि अब लोग पुलिस के पास उनकी शिकायतें करने लगे थे। और पुलिस ने उनपर सख़्ती बरतनी शुरू कर दी थी। कुछ दिनों तक तो इस गिरोह के लोग शांत बैठे रहे, लेकिन बुरी लतों के आदी इन लड़कों की आवश्यकताएं उन्हंे परेशान करने लगीं। इस बीच गिरोह के मुखिया उस बांभन लड़के को एक नई बात पता चली कि चूंकि इस राज्य में गोवध प्रतिबंधित है, सो पडा़ेसी राज्य में गोवंश की तस्करी की जाती है और उसे एक आयडिया सूंझा। उसने अपने गांव में गौरक्षा दल का गठन कर लिया। इस दल में उसके गिरोह के सभी सदस्य थे, पर चूंकि गांव के मुखियां की सहमति के बिना इस दल को मान्यता मिलनी नहीं थी। सो उन्हांेने उस दलित सरपंच को भी अपने दल में शामिल कर लिया। सरपंच को गोरक्षा दल का अध्यक्ष बना दिया गया। उधर वह दलित सरपंच गोमाता की सुरक्षा और उसे कसाइयों के हाथों से बचाने के पुनीत कार्य में सहयोग देने के उदेदश्य से उनके साथ शामिल हो गया। अब गिरोह का मुख्य कार्य था हाईवे पर होती मवेशियों की तस्करी को रोकना था। उस गोरक्षा दल के सदस्य मवेशियों से भरे ट्रकों को पकड़कर उन्हंे वापस लौटने के लिए बाध्य कर देते थे। वास्तव में यह सिर्फ़ दिखाने के लिये होता था। वे ट्रकों को बीस किलोमीटर दूर वापस लौटाते और वहां एक कच्चें रास्ते से उन्हे दूसरे राज्य में प्रवेश करा देते थे। मेाड़ पर उस गिरोह का एक सदस्य बैठा होता था। वे तस्कर को अगली बार हाइवे न जाकर उसी रास्ते से होकर जाने की हिदायत भी दे देते। इसके एवज़ में तस्कर उन्हे मुंहमांगी रकम दे देते थे। इस तरह उन्होंने तस्करों को दूसरे राज्य में प्रवेश कराने का धंधा खोल लिया थां। अब उनका यह धंधा चल निकला। उधर दलित सरपंच को उनकी करतूतों की भनक भी नहीं लग पाई, क्योंकि वे उसके सामने से तो मवेशियों से भरी ट्रकों को वापस लौटाते थे। इस बीच उस क्षेत्र के थाने में एक बांभन थानेदार आ गया और उसने उनकी करतूतों को पकड़ लिया। उधर उस बांभन लड़के ने अपने सजातीय होने का फायदा उठाते हुए गउ को अपनी माता बताना शुरू कर दिया। चंूकि गोरक्षा दल का अध्यक्ष वह दलित सरपंच था और वह चमार जाति का ही था, सो सारा दोष उसी पर मढ़ दिया गया। यह बात सार्वजनिक रूप से मान भी ली गई कि बांभन गोरक्षक होते हंै जबकि दलित गोभक्षक। गोमाता की स्मगलिंग का पता चलते ही गांव वालों ने सरपंच को ही पीटना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद संरपंच को गोमाता की स्मगलिंग के अपराध में जेल हो गई,जबकि वो बांभन और ठाकुर आज भी मूंछों पर ताव देते घूमते हैं।उन्हें सामने देखकर गोपी के मुंह से बरबस ही निकल जाता है-साले कसाई।
16 उऋण
उस दलित बहुल क्षेत्र में डाॅक्टर्स नहीं थे। हालाँकि उस क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य क्रेन्द्र बना दिये गये थे, पर कोई भी डाॅक्टर वहाँ रहना नहीं चाहता था। जिस भी डाॅक्टर की वहाँ पर नियुक्ति होती, वह कुछ ही दिनों में जुगाड़ बिठाकर अपना ट्राँसफर वहाँ से किसी दूसरी जगह करा लेता, और वह क्षेत्र डाॅक्टर-विहीन ही रह जाता था। इस डाॅक्टर-विहीन क्षेत्र में झोला-छाप डाॅक्टरों की चाँदी हो गई थी। ये झोला-झाप डाॅक्टर यूँ तो सभी जाति के थे, पर चैबे डाॅक्टर साहब की विश्वसनीयता गाँव वालों में सर्वाधिक थी। वे ब्राम्हण थे, सो उनकी विश्वसनीयता तो स्वयंसिध्द थी। क्योंकि हमारे यहां किसी को कुछ मालूम हो या न हो रामचरित मानस की यह पंक्ति पक्के तौर पर मालूम होती है कि पूजिये विप्र सकल गुनहीना। यह बात उन्हे घुट्टी में पिला दी जाती है। हालाँकि डाॅ. साहब की रग-रग में छुआछूत भरी हुइ्र्र थी, पर चूंकि दाल-रोटी के जुगाड़ के चक्कर में उन्हें अपना मूल प्रदेश छोड़कर यहाँ बसना पडा़ था सो मजबूरी थी, क्योंकि कुछ किया नहीं जा सकता था। इसके अलावा उनका पेशा ही ऐसा था, जिसमें छूआ-छूत के लिए किसी किस्म की गुंजाईश ही नहीं थी। उन्हें दलित मरीज़ों की देखभाल करनी ही थी। उनकी शातिर बुध्दि ने उन्हें यह समझा दिया था कि यहाँ पर दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि अपने जातिवादी स्वरूप को किसी भी रूप में बाहर न लाया जाये। उधर गाँव वाले भी एक बांभन डाॅक्टर को अपने बीच पाकर खुद को धन्य समझ रहे थे। महाराज-महाराज कहते हुए वे उनकी सेवा-सुश्रुषा में लगे रहते थे। चैबे डाॅक्टर को पता ही नहीं चल पाता था कि कब उनके घर पर बुनियादी चीज़ंे जैसे राशन-सब्जी आदि पहुँच जाया करती थीं। उनका जीवन यहाँ पर मजे से कट रहा था। उनके अपने मूल राज्य में तो खाने के लाले पडे़ हुए थे।
ख़ैर चैबे डाॅक्टर ने पूरी तरह शराफ़त ओढ़ रखी थी। उन्हें यह पता चल चुका था कि ये दलित अपने परिवार की महिलाओं की इज़्ज़त के प्रति बेहद संवेदनशील होते हंै, और हल्का सा भी शक होने पर या तो अपनी महिलाओं को काट डालते हैं, या फिर उसके प्रेमी को। यूँ तो चैबेजी बडे़ ही नीयतखोर किस्म के व्यक्ति थे, पर वे देखते कि यहाँ के दलित हमेशा ही अपने कंधे पर फरसा लेकर ही घूमते हंै और इनके लिए किसी की भी गरदन को धड़ से अलग करना मामूली सी बात है, सो वे डर के मारे शराफ़त का पुतला बने हुए थे। हालाँकि कभी-कभी वे इलाज़ के बहाने महिलाओं के अंगों से स्पर्श-सुख ले लेते थे, लेकिन ऐसा वे उन महिलाओं को भरोसे में लेकर ही कर पाते थे। महिलाएँ भी उनका बेहद सम्मान करती थीं, क्योंकि एक तो वे बांभन थे, दूसरे डाॅक्टर भी। इस तरह से उनकी प्रतिष्ठा डबल थी। ब्रम्हा के मुख से ब्राम्हणों की उत्पत्ति की बात हर जगह की तरह, यहाँ भी घुट्टी में पिलाई गई थी। मौसमी भागवत कथाओं में प्रवचनकर्ताओं द्वारा हमेशा ही इस बात की पुष्टि भी करायी जाती थी। डाॅक्टर को तो वैसे भी भगवान का रूप माना ही जाता है। इस कारण वे पूज्यनीय भी थे। समय बीतते-बीतते वे उस क्षेत्र में एक सेवाभावी डाॅक्टर के रूप में में स्थापित हो गये थे। उनकी पत्नी इन दलितों से बेहद नफ़रत करती थी वह तो इनसे बात तक नहीं करती थी, और हमेशा भुनभुनाती रहती थी। डाॅक्टर-साहब उसे समझाते कि इन साले दलितों को तो छूने की इच्छा तो मेरी भी नहीं होती है, पर क्या कर,ें हमारी रोजी-रोटी भी तो यहीं से चलती है।
डाॅक्टर साहब के एक सुपुत्र थे। उसमें अपनी माँ के संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए थे। वह दलितों से बद्तमीज़ी करना, और दलित लड़कियों का उपभोग करना अपना जन्मसिध्द अधिकार समझता था, लेकिन फरसा टांगे हुए लड़की के बाप और भाइयों की छवि सामने आते ही उसकी रूह काँप जाती थी। फिर भी अब उस पर जवानी का जोश तो चढ़ ही गया था। उधर लड़कियाँ भी जवान हो रही थीं, सो वे भी अपने-आपको उसके सामने प्रस्तुत करती हुई सी चलती थी। एक तो स्माॅर्ट लड़का, फिर प्रतिष्ठित परिवार का, और सबसे बड़ी बात बांभन। वे भी उसके सामने बिछ-बिछ सी जाती थीं। अब डाॅक्टर साहब के लड़के ने गुल खिलाना शुरू कर दिया था। गांव की तीन-चार लड़कियों से संबंध बनाने के बाद उसका दुस्साहस बढ़ने लगा, और धीरे-धीरे वह बेलगाम सा होने लगा था। उसे अब फरसे से डर नहीं लगता था। उसे फरसा, लोहे की जगह लकडी़ का भोथरा हुआ एक खिलौना सा लगने लगा था। एक दिन तो हद ही हो गई। उसकी नज़र गाँव के दलित मुखिया की तेरह-वर्षीय लड़की पर पड़ी। वह सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। उस नाबालिग़ लड़की को किसी भी क़िस्म की समझ नहीं थी। डाॅ साहब के लड़के की यों तो उस पर बहुत दिनों से नज़रें गडी़ हुई थीं, पर एक दिन मौका देख कर वह उसके घर घुस गया। उस वक़्त मुखिया और उसकी पत्नी खेत गये हुए थे। वह उस लड़की से अनाचार करने लगा, और किसी को भी नहीं बताने की धमकी देकर घर चला आया। खेत से आकर मुखिया ने अपनी बेटी की हालत देखी तो उसका खून खौल गया। लड़की की माँ ने बहलाकर उससे कुकर्मी का नाम पूछ लिया। लड़की ने रोते-रोते डाॅक्टर के लड़के का नाम बता दिया। मुखिया फरसा लेकर निकल पड़ा, डाॅक्टर के लड़के को काट डालने के लिए। उसके साथ गाँव के सारे दलित भी फरसा लेकर निकल पडे़। डाॅक्टर के घर की तरफ़। फरसा लेकर आते हुए लोगों की भीड़ देखकर महाराज-महाराजिन की रूहें कांप गई। डाॅक्टर के दरवाज़े पहुँचकर सारे लोगांे ने एक स्वर में कहा-डाॅक्टर अपने बेटे को हमारे हवाले कर दे। हम उसे सज़ा देंगे। उसने हमारी इज़्ज़़्त से खिलवाड़ किया है। सभी लोग एक स्वर में चिल्लाने लगे कि हम उसे कांट डालेंगे। अब तक महाराज और महाराजिन को सारा माज़रा समझ में आ गया था। कल तक दलितांे से दुत्कार कर बात करने वाली महाराजिन अब मुखिया के पैरों में गिर पड़ी, और अपने बेटे की ज़िन्दगी की भीख मांगने लगी। इस पर भी लोग शंात नहीं हुए। अब पैंतरा बदलने की बारी डाॅक्टर साहब की थी। उन्होने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने अपना सारा जीवन तुम्हारी सेवा में समर्पित कर दिया। तुम सभी के परिवार का मैने निःस्वार्थ भाव से इलाज़ किया है। तुम सभी जानते हो कि यहाँ कोई भी डाॅक्टर नहीं आता था। मैं अपने देश में सैकड़ों बीघे के खेत छोड़-छाड़कर तुम सबकी सेवा करने में अपना जीवन गुजार दिया। क्या तुम सब मेरी सेवा का बदला मेरे बच्चे की जान लेकर दोगे। मेरे सभी बांभन साथी बोलते थे कि तुम दलितों पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं किया जा सकता। तुम सब लोग अहसान फ़रामोश होते हो। लेकिन मैं तुम लोगों को अपना समझकर तुम्हारी सेवा करता रहा। लोग तो तुम लोगों को छूना भी नहीं चाहते हैं, लेकिन मैंने अपने इन हाथों से तुम लोगों की मरहम-पट्टी की है। आज मुझे समझ में आ गया है कि मेरे दोस्त लोग सही कहते थे। तुम लोगो को नमक नहीं लगता है, जो मेरे बच्चे की छोटी सी ग़लती पर उसे जान से मारने आ गये हो। मैं अब अपने परिवार को लेकर यहां से चला जाऊँगा, फिर रहना बिना डाॅक्टर के। डाॅक्टर साहब का धमकी भरा निवेदन जादू कर गया और मुखिया सहित सभी गांववासी शांत होकर धीरे-धीरे अपने-अपने घर लौट गये।
17 नस्लभेद
मैंने जब से होश संभाला, नेल्सन मण्डेला के बारे में लगातार पढ़ता रहा। चूंकि मैं स्वयं दलित जाति का हूं, सो मुझे ऐसी ख़बरें हमेशा ही आकर्षित करती रहीं। मैंने महात्मा गांधी के बारे में भी पढ़ा कि उसे काला आदमी कहकर प्रथम श्रेणी के रेल के डिब्बे से नीचे उतार दिया गया था। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि काले-गोरे आदि का भेद तो शरीर की संरचना के आधार पर फौरी तौर निर्मित हो सकता है, लेकिन भारतीय सन्दर्भो में वर्ण व्यवस्था के बीज तो खून में ही पड़ जाते हैं। जातिवाद-संप्रदायवाद तो हम भारतीयों की रगों में बहता है। ये ज़हर हमारे लहू में कुछ इस तरह से बहता है कि उच्च वर्णो की तो बात छोड़िये, मुसलमान दलितों से नफ़रत कर रहे हंै, दलित मुसलमानों से नफ़रत कर रहे हंै। पिछडे़ दलितों से नफ़रत कर रहे हंै। आदिवासी भी दलितों से नफ़रत कर रहे है। और तो और दलित स्वयं भी दूसरी दलित जातियों से नफ़रत कर रहे हैं। चलो इतने पे भी ठीक था, पर एक ही जाति के दलित भी अपनी उपजातियों में छोटे-बडे़ का भेद पाले हुए हंै। हमारे यहां हर व्यक्ति अपने आप में तालिबानी मानसिकता रखने लगा है। उसे अपने अलावा सारी दुनिया काफ़िर नज़़र आती है। कभी-कभी तो लगता है कि कहीं हमारे जीवन का उद्देश्य सिर्फ़़ एक दूसरे से नफ़रत करना भर तो नहीं रह गया है। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि क्या हम इंसान, इंसान न होकर एक जात मात्र बनकर रह गये हैं। हम अपनी जातिगत मानसिकता के गुलाम हो गये हैं। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुलाम नं. फलां की जगह जाति-उपजाति का नाम लिखा जा रहा है।
हमारे यहाँ कुत्ते पालने की परंपरा रही है। हमने कई तरह के विदेशी नस्ल के कुत्ते पाले। विदेशी नस्ल के कुत्तों के गले में एक पट्टा लगाकर एक महंगी चैन के साथ घूमाने में एक अजीब किस्म के गर्व की अनुभूति होती थी। एक तरह से खुद में सपन्नता का बोध होता था। वे कुत्ते सिर्फ़ सजावटी ही होते थे। वे तो अपने आपको कुत्ता भी नहीं मानते थे। वे तो रात में चैकीदारी भी नहीं करते थे। वे ना तो किसी के उपर भौंकते ही थे, ना ही खाना देने पर दुम ही हिलाते थे। हम उन्हें शैम्पू से नहलाते थे। उनके लिए महंगे बिस्कुट और बाज़ार में उपलब्ध तमाम तरह के खाद्य पदार्थ लाया करते थे। एक बार तो हमने पामेरियन नस्ल के नर और मादा कुत्ते पाले। जब वह मादा गर्भवती हो जाती थी तो हमारे आस-पास के पडो़सी से लेकर तमाम रिश्तेदार कहते थे कि इसका एक बच्चा हमें दे देना। हालांकि ये कुत्ते सिर्फ दिखावटी, और सजावटी ही होते थे, तो भी इन कुत्तों के साथ हमारे भावनात्मक संबंध स्थापित हो जाते थे। धीरे-धीरे व्यस्तता के कारण हमने कुत्ते पालना बंद कर दिया।
एक दिन मेरा बेटा कहीं से एक देसी नस्ल का पिल्ला उठा लाया और उसे पालने की ज़िद करने लगा। हमने उसे पाल लिया। हालांकि हम भी और लोगों की तरह ही देसी से नफ़रत करते थे, फिर भी बच्चे की ज़ि़द के कारण हमने उसे पाल लिया। हमने उसके लिये पट्टा और चैन नहीं खरीदा । एक देसी पिल्ले के पीछे इतना खर्च करना हमें फिजूलखर्ची लगा। हमने सोचा कि थोडा़ बड़ा होगा तो बच्चे को समझाकर उसे कहीं छोड़ देंगे। हम उसे यूं ही खुला छोड़ देते थे। वह आस-पास के घरों के सामने छीछी कर देता था। हालांकि हमारे विदेशी नस्ल के कुत्ते भी आस-पास ही छीछी करते थे। चूंकि वे विदेशी नस्ल के थे, सो हमारी काॅलोनी की महिलाएं बडे़ प्यार से उसे पोटी करते हुए निहारा करती थी। पर अब अडो़स-पडा़ेस की उन्हीं महिलाओं से शिकायतें आने लगीं कि आपका वो देसी पिल्ला कहीं भी हग देता है। आप उसे संभालिये। विदेशी नस्ल के कुत्तों को लड़ियाने वाली पडा़सी महिलायें अब हमारे देसी पिल्ले को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं। उन्हांेने गाहे-बगाहे उसे पत्थर फेंककर मारना भी शुरू कर दिया था। अब मुझे अपने उस देसी पिल्ले को संभालकर रखना था। इसके लिये पट्टा और चैन जरूरी था। मैं कुत्तों का सामान बिकने वाली दुकान पर पहुंचा। मेरे और उस दुकानदार के बीच बातचीत कुछ इस तरह हुई-
मैं- तीन महीने के कुत्ते के पिल्ले के गले में बांधने वाला पट्टा दीजियेगा।
दुकानदार-सिर्फ़ पट्टा ही चाहिये या पट्टे के साथ कुत्तों को घूमाने वाली चेन भी चाहिए।
मैं-जी दोनों चाहिए।
दुकानदार- लेब्राडोर, बुलडाॅग,या फिर पामेरियन कौन सी नस्ल का है?
मैं- जी नस्ल से पट्टे का क्या संबंध?
दुकानदार-अजी कुत्तों की नस्ल के हिसाब से डिज़ाईनर पट्टे और चेन मिलते है। 500 से उपर कीमत के
हालांकि मैं यह बात जानता था तो भी मैंने बातचीत जारी रखी।
मैं-जी देसी है
दुकानदार-तब तो आप ये साधारण सा 50 रूपल्ली वाला पट्टा ले जाइये। इसे आप नायलोन की रस्सी से बांधकर भी घूमा सकते हंै।
यह तो सरासर मेरे कुत्ते का अपमान था। भले ही वह देसी नस्ल का था, पर उसके साथ हमारे भावनात्मक संबंध स्थापित हो गये थे। मैंने सोचा कि मेरे कुत्ते को अपमानित करने वाली दुकान से मैं कुछ भी नहीं खरीदूंगा। मैंने पट्टा और चैन खरीदने का विचार त्यागकर अपने कुत्ते के लिये बिस्कुट खरीदने दूसरी दुकान पर पहुंचा। वहां पर मेरे और दुकानदार के बीच कुछ इस तरह बात हुई-
मैं- जी कुत्तों को खिलाने वाले ब्राण्डेड बिस्कुट देंगे।
दुकानदार-वैसे कौन सी नस्ल का है आपका डाॅगी?
मैं- क्या बिस्कुट भी नस्लों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है।
दुकानदार-जी हां ज्यादह कीमती और उंची नस्ल वाले कुत्तों के लिये अलग तरह के इम्पोर्टेड बिस्कुट आते हैं, जबकि कम कीमत के औसत नस्ल के कुत्तों के लिये मेड इन इंडिया बिस्कुट होते हैं।
हालांकि मैं यह बात भी जानता था, तो भी मैंने इस दुकानदार से भी बातचीत जारी रखी।
मैं- जी वो देसी नस्ल का है। कहीं पर बीमार पडा़ हुआ था। मेरे बच्चे को उस पर दया आ गई और वह उसे घर उठा लाया।
दुकानदार-अरे साहब आप भी कहां-कहां उसे उठा लाये और पालने लगे। अरे इन कुत्तों की नियति ही है सड़कांे पर जनमना और वहीं पर अपनी मौत मर जाना। आप तो उसको उसकी औकात में रखिये। बिस्कुट पहली बार तो उसे सूट नहीं करेंगे और यदि कर भी लिया तो वह उसका आदी हो जायेगा। फिर उसको पालना आपको काफी महंगा साबित होगा।
अपनी सुविधानुसार अब मुझे दोनों ही दुकानदारों की बातें सही लगने लगी। मैंने सबसे सस्ता वाला पट्टा लिया और अब मैं उसमें नायलोन की रस्सी बांधकर उसे घुमाता हूं। खाने के लिये भी मैं उसे बचा-खुचा ही देता हूं। मैं उसे उसकी औकात में ही रखना चाहता हूं। वर्णभेद का शिकार मैं अब खुद ही नस्लभेद को बढ़ावा देने लगा हूं।
18 तमाचा
मुझे याद पड़ता है कि मेरे स्कूल पढ़ने के दौरान अन्य पिछ़ड़े वर्ग के छात्र भी अपने आपको सवर्णो की श्रेणी में ही मानते थे। वे भी अनुसूचित जाति के लोगों को बडी़ हेय नज़रों से देखते थे। और उनसे बेहद नफ़रत करते थे। मैं अपने स्कूली जीवन के प्रारंभिक दौर मे एक प्रतिभावान छात्र माना जाता था, और कक्षाओं में हमेशा ही मेरी पीठ ठोकी जाती थी। चूंकि मैं शहरी क्षेत्र की स्कूल में था, तो टीचर्स ने कभी भी जाति के आधार पर मेरे साथ भेदभाव नहीं किया। मेरा निष्पक्ष मूल्यांकन होता रहा। मुझे शाबाशी मिलने पर क्लास के सारे लोग जल-भुन से जाते थे। उस वक़्त प्रायमरी स्कूल से ही जाति का ज़हर छात्रों के दिमाग़ में उनके ही मां-बाप द्वारा भर दिया जाता था। वे जब पढ़ाई में मुझसे पिछ़ड़ने लगते तो वे मेरी नीची जाति पर कटाक्ष करने लगते। ये उनका मास्टर स्ट्रोक होता और मैं चारों खाने चित हो जाता, और अचानक से मेरा आत्मविश्वास डगमगा सा जाता। मेरे साथ ऐसा लगातार होता रहा, और बडी़ क्लास तक पहुंचते-पहुंचते कान्फिडंेस डगमगाते-डगमगाते पूरी तरह ख़त्म सा हो गया। अब तक मेरे वे साथी मुझे सरकारी दामाद कहने लगे थे।
इस बीच मण्डल कमीशन की रिपोर्ट आई, और तमाम विरोधों के बावजूद पिछडे़ वर्गो को भी आरक्षण का लाभ मिलने लगा। पर चूंकि उनमें दलितों से नफ़रत करने की भावना कूट-कूटकर भरी़ हुई थी, सो काॅलेज़ की पढा़ई पूरी होते वे लोग आदतन मेरी जात पर टिप्पणी कर ही देते। लेकिन अब मेरे पास उनसे कहने के लिये एक ही बात होती कि अब तो हम सब बराबर ही हो गये हैं। तुम लोग भी तो अब आरक्षित वर्ग की श्रेणी में आ गये हो। तुम लोग भी अब सरकारी दामाद हो गये हो। यह वाक्य ब्रम्हास्त्र की तरह कार्य करता, और वे चुप हो जाते। अब मेरा पूरी तरह तबाह आत्मविश्वास फिर से पुनर्जीवित होने लगा था और मैं दुगने जोश से प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारियों में लग गया। फिर मुझे नौकरी भी लग गई। धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि अन्य पिछडे़ वर्ग के मेरे दोस्त अब मेरा बेहद सम्मान करने लगे हंै। अब हम लोग आपस में एकदम सहज हो गये। हम सब एक साथ ही जाति वाले मुद्दों पर बहस करने लगे थे और वे मेरे और करीब आने लगे। अब उन्हें भी पिछडे़े वर्ग के आरक्षण के कारण सहूलियतें मिलने लगीं थीं। हालांकि धीरे-धीरे मेरा उन दोस्तों से मिलना-जुलना कम होता गया, लेकिन अख़बारों में पिछडे़ वर्ग की चेतना के लिये उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों से संबंधित गतिविधियों के बारे में पता चलता रहा,। यह पढ़-सुनकर मुझे बडा़ अच्छा महसूस होता। कभी-कभी किसी कार्यक्रम की सूचना भी मैसेज़ के माध्यम से आ जाती। पिछड़े वर्गो के पढे़-लिखों में तो इस तरह की चेतना नज़र आने लगी थी। मुझे लगता अनपढों़ मेें इस चेतना के विकसित होने में टाईम लग सकता है, क्योंकि ये छुआछूत की भावना संस्कार के रूप में उनके खून में विद्यमान होती है। लेकिन मैंने पाया कि कम पढे़-लिखों लोगों में भी ये चेतना तेज़ी से फैलती जा रही है।
मेरी काॅलोनी में मेरे घर सेे लगे हुए एक घर में एक बिहारी परिवार रहता था। सभी बिहारियों की तरह वे भी बडे़ ही जीवट किस्म के थे, और हर जगह सर्वाइव करने की क्षमता रखते थे। वे जल्द ही अच्छा कमाने-खाने भी लगे थे। चूंकि कालोनियों में जातियों के बारे में आमतौर पर कम ही मालूम रहता है, सो हम दोनो एक दूसरे के जाति से अनभिज्ञ थे। एक बार उस परिवार के मुखिया ने मुझसे कहा कि मेरी श्रीमती गर्भवती है। उसे खडे़ होकर रोटियां बनाने में दिक्कत होती है। आपके घर पर जो बाई काम करती है, उसे बोल दीजिएगा कि कुछ महीनों के लिये वह हमारे घर पर रोटियां बना दे। मेरे घर पर झाडू़-पोछा करने वाली बाई बेहद व्यस्त रहती थी। उसके पास पहले से ही इतने सारे घर थे कि वह कोई नया काम नहीं लेना चाहती थी, सो उसने मुझसे कहा भैया मुझसे नहीं हो पायेगा। आप उन्हें बता दीजिएगा। मैंने अपनी बाई को समझाते हुए कहा कि अरे भई उसकी पत्नी गर्भवती है, तो हमें उसकी मदद करनी चाहिए। वैसे भी वे सिर्फ़ चार-पांच माह के लिए ही तो रोटियां बनाने को कह रहे हंै। मेरे समझाने पर वह उनके घर रोटियां बनाने के लिए तैयार हो गई, और कहा कि दो दिन बाद से वह उनके घर जायेगी। मैंने उसकी यह बात अपने पड़ोसी को बता दी। दूसरे दिन उस घर का मुखिया मेरे पास आकर पूछने लगा कि भैया वो बाई किस जाति की है? जरा उससे बोलियेगा कि उसके पास जाति प्रमाण पत्र हो तो वह मुझे लाकर दिखा दे। मैं यह पक्का करना चाहता हूं कि कहीं वह अनुसूचित जाति की तो नहीं है। चूंकि मैं खुद अनुसूचित जाति का हूं, सो उसके ऐसा कहने पर मैं बेहद तिलमिला सा गया। मैंने उससे कहा कि मैं शाम को उससे पूछकर बताता हूं। हालांकि मुझे मालूम था कि मेरी बाई पिछडे़ वर्ग की निषाद जाति की है। शाम को मैंने अपनी बाई से कहा कि वह तो तुम्हारी जात पूछ रहा है और साथ में प्रमाण-पत्र भी मांग रहा है। मेरे ऐसा कहते ही वह भड़क गई और उस व्यक्ति को स्थानीय बोली में गाली देते हुए कहने लगी-रोगहा-भड़वा मेरे से मेरी जात पूछता है। उस परदेसिया की क्या जात है। आप उसको बता देना कि मैं भी उससे उसका जाति प्रमाण पत्र मांग रही हूं। उसका उत्तर सुनकर मुझे अपनी बाई पर बेहद गर्व हुआ कि कम पढी़-लिखी होने के बावजूद उसमें इतनी चेतना है। शाम को मैंने अपने उस पड़ोसी से कह दिया कि वह भी आपका जाति प्रमाण-पत्र मांग रही है। इस पर उसके चेहरे के हाव-भाव से लगा कि उसे किसी ने जबर्दस्त तमाचा जड़ दिया है।
19 ठप्पा
घनश्याम अभी-अभी उषा के घर से बाहर निकला था। उषा उसकी सहपाठी थी। दोनांे एक ही गांव में रहते थे। उषा की शादी उनके गाँव से पाँच सौ कि.मी. दूर एक कस्बे में हुई थी। चूँकि हर वर्ष हरतालिका पर्व के मौके पर वह अपने मायके आती थी, तो इस भी वह आई होगी, सोचकर वह उषा से मिलने चला आया था।लेकिन इस बार उषा नहीं आई थी। उषा की माँ ने जो बातें उससे कही, उससे उसका मन खट्टा हो गया था। वह अपने गांव का सबसे ग़रीब, पर सबसे ज़्यादह प्रतिभावान लड़का था। उसकी सबसे बडी़ कमज़ोरी यह थी कि वह एक दलित जाति का छात्र था। वह हर कक्षा में टाॅप करता रहा था। उषा पिछड़े वर्ग की लड़की थी और पढा़ई में औसत थी। उनके गाँव की स्कूल में ज़्यादहतर छात्र-छात्राएँ पढा़ई मंे औसत ही थे। इसमें उनकी भी ज़्यादह ग़लती नहीं थी। घनघोर आदिवासी क्षेत्र होने के कारण एक तो वैसे भी वहाँ पर लोगों का पढ़ाई के प्रति रूझान कम था, दूसरे उस गाँव मंे गणित और विज्ञान के टीचर नहीं थे। जिसकी भी वहां पर पोस्ंिटग होती, वह उठा-पटककर अपना स्थानातरण शहर के नज़दीक की किसी स्कूल में करा लेता था। पढ़ने में जिन बच्चों की लगन होती, वे खुद ही क़िताबांे को पढ़कर और समझकर आगे की क्लाॅस में पहुँचते जा रहे थे। घनश्याम अपनी कक्षा के सभी छात्रों को गणित पढ़ा दिया करता था, सो वह बच्चों में बडा़ लोकप्रिय था। बचपन से ही टीचर जैसा कार्य करने के कारण उसमें शिक्षकों जैसी गंभीरता भी आ गई थी। उसकी प्रतिभा के कारण गांव के सारे सरकारी कर्मचारी उसको सम्मान देते थे। वह भी हमेशा उनसे प्रतियोगिता परीक्षाओं के बारे में पूछता रहता था।
इधर बारहवीं कक्षा पास होने के बाद उषा की शादी हो गई थी। उषा के दिल में घनश्याम के प्रति सम्मान तो था ही, पर वह उससे प्रेम भी करने लगी थी। यह बात घनश्याम भी जानता था, पर घनश्याम की समझदारी ने उसे बता दिया था कि उसे अभी इन फालतू चक्करों में न रहकर बडी़ नौकरियों में जाना है, और अपने क्षेत्र के दूसरों लड़कों के अंदर भी प्रतियोगिती स्पर्धाओं के लिए जोश भरना हैं। अपने क्षेत्र के लोगों के बुरे हालातों से वह भली-भांति परिचित था। उसे यह भी समझ आने लगा था कि इस अभावग्रस्त स्कूल में पढ़कर वह शहर के लोगांे का मुक़ाबला नहीं कर पायेगा। साथ ही उसे यह भी समझ में आ गया था कि यदि उसे अपने-आपको सिध्द करना है तो उसे अपने अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना को जीवित रखना होगा। उसके पिता तो बहुत पहले ही मर चुके थे। हाॅयर सेकण्डरी के बाद उसकी माँ ने भी बिस्तर पकड़ लिया था। अपनी बीमारी के पहले उसकी माँ मजदूरी कर जैसे-तैसे घर चला रही थी, पर अब घर की सारी जिम्मेदारी घनश्याम पर ही आन पडी़ थी। उसकी एक बहन भी थी, जो उससे पाँच साल छोटी थी। वह भी पढ़ाई में बेहद तेज़ थी। ख़ैर अब घनश्याम को जीविकोपार्जन के लिए साधन खोजने थे। खेतों में हाड़-तोड़ मेहनत करते हुए वह यह समझ गया था कि अब काॅलेज़़ स्तर की नियमित पढ़ाई संभव नहीं है। उसने काॅलेज़ की पढ़ाई प्राइवेट करते हुए प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया था। वह लोगों से कहता कि आगे चलकर उसे डिप्टी कलेक्टर बनना है, तो लोग उसका मजाक उड़ा़ते। आपस में वे व्यंग्यात्मक तरीके से कहते-साला चमार कलेक्टर बनेगा। उसने लोगांे की बातों पर ध्यान देना छोड़ दिया था। वह पूरी तरह अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित था। स्नातक होते ही उसने प्रतियोगी परिक्षाओं के फाॅर्म भरना शुरू कर दिया था और चूंकि वह पहले से ही तैयारियाँ कर रहा था, सो उसका चयन होना तो तय ही था। वह जितनी जगह फाॅर्म भरता, वह सफल होता जाता।प्रतिभावान होने के कारण हर नौकरी में उसका चयन सामान्य वर्ग से हुआ था। उसका यह जूनून सा था कि वह हर प्रतियोगिता में सामान्य वर्ग से ही सलेक्ट हो। इससे उसका आत्मविश्वास तो बढ़ता ही था, साथ ही उसे इस बात का भी संतोष रहता था कि उसके सामान्य वर्ग से चयनित होने पर जरूरतमंद दलितों के लिये सीटें बच जाती थीं। उसे नौकरियों पे नौकरियाँ मिलती जा रही थीं। पिछले तीन सालों में वह पाँच नौकरियाँ छोड़ चुका था। कुछ दिनांेे बाद उसने राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में डिप्टी कलेक्टर का पद भी सामान्य वर्ग से ही पाया था, सो वह आत्मविश्वास से लबरेज़ था, और यूपीएससी की तैयारियों के बारे में गंभीरता-पूर्वक सोचने लगा था।
आज उषा की माँ ने उससे कहा था कि तुम लोग तो सरकारी दामाद हो। तुम लोगों को तो बैठे-ठाले नौकरियाँ मिल जाती हैं। तुम लोग तो अच्छी किस्मत लेकर पैदा हुए हो। तुम नौकरियाँ छोड़ते जा रहे हो। तुम लोगों के आरक्षण के कारण हमारे राकेश को कहीं नौकरी ही नहीं लग रही है। अब तो तुम साहब बन गयेे हो देखना कहीं क्लर्क वगैरह में राकेश को घुसा देना। राकेश उषा का भाई था। वह आठवीं फेल था, और गांव के लोफर लड़कांे के साथ दिनभर आवारागर्दी किया करता था। वह छोटी-मोटी चोरियाँ भी करता था। वास्तव में वह चपरासी की नौकरी के लायक़ भी नहीं था, और उसकी माँ उसे क्लर्क बनाना चाह रही थी। वह आरक्षण को कोस रही थी। घनश्याम सोचने लगा कि अब वह कैसे बताये कि उसे आरक्षण के कारण नहीं बल्कि अपनी मेहनत से नौकरियाँ मिल रही हैं। उषा के घर से निकलते हुए उसका आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगाया हुआ था। उसे समझ आ चुका था कि उसकी जाति का ठप्पा किसी भी हालत में उसका पीछा नहीं छोड़ने वाला नहीं था।
20 चीटिंयांॅ
मैने चीटियों के विषय में बहुत सी बातें सुन रखी हंै। हमें चीटिंयों से सीखना चाहिये कि कैसे दिन-रात मेहनत की जाये। मैंने यह भी पढ़ रखा था कि एक चींटी अपने वज़न का 100 गुना तक भार उठा सकती है। चंीटियाँ अंधी होती हैं, और वे सिर्फ गंध के सहारे ही एक दूसरे के पीछे लाईन बनाकर चलती हंै। यदि चीटिंयों को उनके रास्ते से भटकाना हो तो, उनकी लाईन के बीच में उंगली से थोडा़ सा रगड दो तो पीछे आने वाली चींटियां रास्ता भटक जाती हंै। मैंने तो ज़्यादह ख़ून पिये हुए और उड़ पाने में अक्षम मच्छरों को इन चीटिंयों का ज़िन्दा शिकार बनते हुए देखा है। वे इन्हें जीवित ही उठाकर अपने अड्डे की तरफ चल पड़ती हैं। चींटियों के बारे में एक तथ्य मंैने यह भी पढा़ है कि उनमें असुरक्षा की भावना भी बहुत होती है, इसलिये वे अपने लिये आठ महीनों का खाना गर्मियों में ही इकट्ठा कर लेती हैं, ताकि बरसात और ठण्ड का मौसम मजे से कट जाये।
इस बरस बरसात के मौसम में ठीक से पानी नहीं बरसा। कई जगहों पर अकाल की स्थिति बन गई। इससे चींटियों को भी पता नहीं चल पाया कि बरसात का मौसम आ गया है, और वे गर्मियों में जमा किये हुए अपने खाने का उपभोग कर सकती हैं। वे या तो असुरक्षा की भावना के चलते, या फिर मौसम से भ्रमित होकर बरसात के पूरे महीने खाना जमा करने का अपना काम करती रही। मैं दीवारों पर उनकी लाइनें लगातार देखता रहा। हद तो तब हुई जब उनकी लाईने मुझे ठण्ड के महीनों में भी नज़र आने लगीं। वैसे इस बार ठण्ड भी कम ही पडी़, सो जनवरी के अंत तक उनकी लाइनें दिखती रही। फरवरी से फिर गर्मी शुरू होनी हैं, इस तरह इस बरस वे बारहांे माह खाने की चीजें़ इकट्ठी ही करती रह गईं। उनका उपभोग नहीं कर पायी। हे भगवान, अपनी असुरक्षा की भावना के कारण और मौसम की अनिश्चितता से बेचारी चींटियाँ भ्रमित ही रह गई।
मेरी अब तक की उम्र में मेरे रिश्ते और परिचय के दायरे में यों तो बहुत सी दलित महिलाएं रहीं, पर मंजू, सुरेखा और मोनिका ने मेरे जीवन पर विशेष प्रभाव डाला। यों तो महिलाएं चाहें वे किसी भी जाति या धर्म की हों, दलित की श्रेणी में ही आती हैं, पर यदि महिलाएँ महत्वकांक्षी भी हों तो फिर उन्हें असहनीय पीड़ाओं से गुजरना होता है। मेरे जीवन पर सबसे ज़्यादह प्रभाव डाला मंजू नामक एक महिला ने। वह हमारे दूर के रिश्ते में आती थी। हम ऐसे शहर में रहते थे, जहाँ सबकुछ था, पर रिश्तेदार के नाम पर कोई भी नहीं था। ऐसे में मंजू हमारे ही शहर में शादी होकर आयी थी, सो हमारी सबसे क़रीबी हो गई थी। वह हमारे घर के नज़दीक ही रहा करती थी। हम सब बहन-भाई हर रविवार को उनके घर जाया करते थे। हम उस समय बच्चे ही थे। वह हमें अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाकर खिलाती थी। उनके पतिदेव एक बडे़ सरकारी अधिकारी थे। वे भी हमसे बहुत पे्रम करते थे। सब कुछ ठीक चलता रहा, पर पांच-छः महीने बाद वह हमारे मां के सामने रोने लगती। हमें समझ में नहीं आता था कि आख़िर बात क्या हो गई। कुछ दिनों बाद हमें पता चला कि उसकी हाईट ज्यादह थी, जबकि उसके पति की हाईट कम थी, सो वह अपने-आपको अपने पति के साथ बेहद ही असहज महसूस करने लगी थी। उनकी जोडी़ बेमेल है कहकर कुछ लोगों ने उसे भड़काना भी शुरू कर दिया था। वह एक बेहद खुबसूरत महिला थी, सो उसे अपनी सुन्दरता पर बेहद अभिमान था, और सिर्फ़ पति की हाईट कम होने के कारण वह अपने पति से अलग होना चाहती थी। तमाम समझाईश के बाद भी वह तलाक़ के लिए कोर्ट पहुँच गई थी। उस समय वह गर्भवती थी, इन सारे तनाव के दौरान ही उसने एक बच्चे को जन्म दे दिया। कुछ ही दिनांे बाद उनका विधिवत तलाक़ भी हो गया, और वह अपने बच्चे के साथ अपने मायके में ही रहने लगी। इस घटना का हमारे बालपन पर बेहद ख़राब प्रभाव पड़ा था। हमें लगने लगा था कि छोटी सी बात से भी दाम्पत्य जीवन ख़त्म किया जा सकता है। खै़र कुछ दिनों बाद पता चला कि उसने दूसरी शादी कर ली है। उसका दूसरा पति शराबी था। वह तमाम तरह के व्यसनों से घिरा हुआ था। वह मँजू के बच्चे को सिग़रेट से दा़ग़ा करता था। वह फिर उससे भी अलग हो गई। फिर उसने तीसरा और चैथा पति भी बनाया। उसके चैथे पति ने तो ना जाने क्यों, सुसाईड ही कर लिया। इस दौरान उसका बच्चा सब कुछ जानने-समझने की उम्र में पहुँच चुका था। आख़िर में वह फिर से अपने मायके ही पहुँच गई। बच्चे के जैविक पिता को उससे बडा़ प्रेम था। दोनो ही आपस में संपर्क मे थे, और तलाक़ हो जाने के बावजूद वह अपने बच्चे की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति किया करता था। मंजू को उसके चैथे पति से एक लड़की भी थी, वह भी बडी़ हो रही थी, और उसे भी दुनियादारी समझ में आने लगी थी। जब भी घर में विवाद की स्थिति पैदा होती तो दोनो भाई-बहन अपनी माँ को ग़ालियाँ देते, और बेटा तो उसे रण्डी तक कह देता था। यह एक बेहद ख़राब स्थिति थी। एक पढे़-लिखे शिक्षित दलित परिवार से ऐसी अपेक्षा तो कतई नहीं थी। मंजू प्रारंभ में अपने पतियों के साथ असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रही, फिर बच्चों के साथ और निश्चित तौर पर वह बहू और दामाद के साथ भी असुरक्षा की भावना के शिकार की तरह ही रहेगी।
मेरे आॅफ़िस में सुरेखा नाम की साधारण सी क्लर्क थी। वह एकदम ही साधारण लड़की थी। वह भी दलित जाति की ही थी, और उसमें आत्मविश्वास की बेहद कमी थी। वह एक बेहद भावुक लड़की थी, और बात-बात पर उसकी आँखें डबडबा जातीं। मुझे कई सालों बाद पता चला था कि वह एक डाॅक्टर थी, किन्तु आत्म विश्वास की कमी के कारण वह कभी भी प्राईवेट प्रैक्टिस की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी। इस बीच सरकारी कार्यालय में बारहवीं क्वालिफिकेशन के आधार पर क्लर्क पद पर भर्ती का विज्ञापन आया और उसने उसे भर दिया, और फिर उसका इस क्लर्क के पद के लिये चयन भी हो गया। वह तब से लेकर आज तक क्लर्क ही थी। मुझे उस पर बडा़ ही तरस आता था। मेरे पूछने पर एक बार उसने बताया था कि घर में वही सबसे बड़ी थी, और छोटे भाई-बहनांे की सारी जिम्मेदारी उसी पर थी, सो वह क्लर्क की नौकरी पहले मिलने पर क्लर्क ही बन गई, और उसने अपने सारे भाई-बहनों को पढ़ाया-लिखा और उनकी शादी भी करा दी।जबकि वह खुद अविवाहित ही रही। बातो ही बातो में एक बार उसने मुझे यह भी बताया था कि उसका भाई डीएसपी बन चुका है, और एक बहन काॅलेज़ में प्रोफ़ेसर है। भाई और उसकी पत्नी ने उसे दूध में पडी़ मक्खी की तरह घर से निकाल बाहर कर दिया है। बहन और उसका पति भी अपने में ही मस्त हैं। उसके बतायेनुसार उसका भाई और बहन एक तरह से अहसान फ़रामोश ही हैं।
मैं अक्सर देखता कि सुरेेखा को छोड़ने और लेने के लिए बाजू दफ़्तर का एक गुप्ता बाबू आता है। शुरू में मुझे लगता रहा कि शायद वह सुरेखा का पड़ोसी है, और दोनांे साथ ही आना-जाना करते हैं पर बाद में पता चला कि सुरेखा को उसने अपनी रखैल बनाकर रखा हुआ है, और उसकी सारी कमाई को हड़प कर जाता है। उसके भाई-बहन जब से आत्मनिर्भर हुए ये तब से सुरेखा उन्हे आर्थिक सहायता देना बंद कर दिया था। गुप्ता बाबू लगभग 58 बरस का व्यक्ति था। उसका एक भरा-पूरा परिवार था। वह नाती-पोतों वाला आदमी था। उसकी बडी़ लड़की की उम्र सुरेखा जितनी ही थी। मैंने कई बार सुरेखा को कोने में बैठकर रोते देखा था। पता नहीं सुरेखा में इतनी असुरक्षा की भावना क्यों भरी हुई थी कि वह इतने उम्रदराज़ व्यक्ति की रखैल बनी बैठी थी।मैं देखता कि गुप्ता कई बार हमारे आॅफ़िस में आकर उसे उल्टा-सीधा बोलता, और वह एकदम निरीह सी चुपचाप बैठी रहती। वह कई बार उसकी जाति को भी भला-बुरा कहता। एक बार उसके ऐसा कहने पर मेरा ख़ून खौल गया और मैंने उसे जबान संभाल कर बात करने को कहा। इस पर सुरेखा मुझसे कहने लगी कि सर ये हमारा आपसी मामला है। मैंने उन्हे धमकाते हुए कहा था आपसी मामले में अगर भविष्य में जाति वाली बात आई, तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इस पर वह कातर नज़रों से मुझे देखती रही। इसके बाद गुप्ता हमारे आॅफ़िस में संभलकर ही बोलने लगा था। सुरेखा के अन्दर भी बेहद असुरक्षा की भावना पनप रही थी तभी वह एक नकारे से उम्रदराज़ व्यक्ति जुड़ी हुई थी।
मोनिका भी मेरी दूर की रिश्तेदार थी। वह एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की थी। ख़ूबसूरत होने के के साथ-साथ वह बेहद महत्वाकांक्षी भी थी। उसके बेहद लंबे बाल थे, और इसलिये वह जाति-समाज में होने वाले शादी-ब्याह में सबके आकर्षण का केन्द्र बनी रहती। उसे अपनी ख़ूबसूरती पर बेहद गुमान था। वह पूरी तरह भौतिकवादी लड़की थी। पढा़ई-लिखाई में वह एक औसत लड़की ही थी। हालाँकि एक रात में पढ़कर पास होने वाली कुंजियाँ पढ़-पढ़कर उसने एम.ए. पास कर लिया था। उसके लिए अच्छे-अच्छे रिश्ते आ रहे थे, पर चूँकि उसकी एक बडी बहन भी थी, जिसकी शादी नहीं हो पाई थी सो उसके माँ-बाप मना कर देते थे। कुछ रिश्ते तो मोनिका ने खुद ही ठुकरा दिये थे। वह तो एनआरआई दूल्हे का ख़्वाब देखा करती थी। उसकी बड़ी बहन की शादी के बाद कुछ ऐसा हुआ कि मोनिका के लिए रिश्ते आने कम होते गये। जात-समाज में उसकी नकचढ़ी होने के क़िस्से फैल गये थे। एक समय के बाद रिश्ते आने पूरी तरह बंद ही हो गये। अंत में एक साधारण बीमा एजेण्ट का रिश्ता आया, और मन मानकर मोनिका को हामी भरनी ही पड़ी। अपने पति को लेकर बेहद महत्वाकांक्षी मोनिका कभी यह स्वीकार ही नहीं कर पाती थी कि किसी समय डाॅक्टर और इंजीनियर लड़कों को उनके हैण्डसम न होने पर रिज़ेक्ट करने वाली एक लड़की आज बेहद मामूली परिवार में ब्याही गई है। अब वह बात-बात पर अपने पति से उलझने लगी थी। वह अपने पति से रोज नई-नई और महंगी डिमाँड कर देती, जो कि उसकी हैसियत से बाहर की बात होती। आख़िरकार तीन-चार महीने बाद ही उसने अपने पति से तलाक़ के लिए कोर्ट में अर्जी दे दी।उसका पति भी उससे परेशान था। आपसी समझौते के आधार से दो-चार पेशी में ही वह अपने पति से आज़ाद हो गई। अब उसे लगने था कि उसके उड़ने के लिए सारा आसमान पडा़ हुआ है, पर उसे कतई गुमान नहीं था कि किसी नन्ही चिड़िया के लिए आसमान में उड़ना भी मौत को दावत देना हो सकता है। आसमान में चारों ओर बाज ही बाज़ हैं। ख़ैर उसने एक पाॅलिटिकल बैकग्राउण्ड वाले लड़के से दूसरा ब्याह रचा लिया। बाद में पता चला कि वह लड़का तो बेरोजगार है, और उसकी सारी चमक-दमक खोखली है। उनका महल जैसा घर भी किराये का है और उसकी सारी लग्ज़रियस गाडियां लोन में उठाई गयी हैं जिनकी किस्तंे पटी नही है, और सिर्फ पाॅलिटीकल बैकग्राउण्ड की वजह से ही कंपनी वाले उन गाड़ियों को खींचकर ले जाने में डर रहे हैं। और तो और उस लड़के का अपना कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कि पाॅलिटिकल बैकग्राउण्ड भी उसके बडे़ भाई का ही है, और जिस क्षेत्रीय पार्टी से वे लोग जुडे़ हुए हैं उसका आधार भी ख़त्म होने की स्थिति में है।
इस बीच मोनिका को एक छोटी सी सरकारी नौकरी लग गयी थी। अब उसे अपना नकारा पति बोझ सा लगने लगा था। उसका वह कुण्ठित पति भी शराब पीकर उससे मारपीट करने लगा था। अब वह उससे भी अलग होना चाहती थी। उन्होंने बाका़यदा कोर्ट-मैरिज की हुई थी। मोनिका ने वकील से पूछ लिया था कि क्या इससे भी तलाक़ लिया जा सकता है। इस पर वकील ने बताया था कि यदि तुम उससे तलाक लोगी तो तुम्हंे उसे जीवन निर्वाह भत्ता देना पडे़गा। यह तो बड़ी ही विचित्र स्थिति थी। वकील ने उसे सुझाया था कि तुम बग़ैर तलाक लिये ही उससे अलग रहना शुरू कर दो। और फिर वह अपने उस पति से अलग रहने लगी।
मोनिका को अब भी अपनी ख़़ूबसूरती पे बेहद गुमां था। वह दुबली-पतली थी, सो उसकी उम्र का पता ही नहीं चलता था। इतने उतार-चढा़वों के बाद भी उसने अपने आप को फिज़िकली मेण्टेन करके रखा हुआ था। अब तक वह 40 बरस की हो चुकी थी। वह अपने नाम के आगे कुमारी ही लिखती थी, सो अब भी वह लोगों को आकर्षित करती थी। उसके आॅफ़िस में कुछ कम उम्र के सजातीय लड़कों ने भी उसे शादी का प्रस्ताव दिया था, पर वह तो बेहद महत्वकांक्षी महिला थी। उसे हमेशा से एक एनआरआई दूल्हे की ख़्वाहिश थी। उसने विवाह कराने वाली एक साइट पर अपना बाॅयोडाॅटा डाल दिया था। एक दिन अचानक उसे एक बढ़िया आॅफ़र आया। लड़के की प्रोफाइल में कनाडा में हार्ट सर्जन होना लिखा हुआ था। मूल निवास में अहमदाबाद के किसी पते का जिक्र था। इतना बढ़िया आॅफ़र देखकर मोनिका तो आसमान में उड़ने लगी। इस बीच उस लड़के से उसका उसका टेलीफ़ोनिक और इंटरनेट के जरिये संपर्क बना रहा। अब तक वह उस लड़के के प्रभाव में पूरी तरह आ चुकी थी। इस बीच लड़के ने एक दिन फ़ोन पर अचानक कहा कि उसके पास इफ़रात रूपये हैं, जिसे वह भारत में अपने करीबी लोगों के खाते में जमा कराना चाहता है। चूँकि तुम मेरी जीवन-संगिनी बनने वाली हो, सो मैं तुम्हारे खाते में 80 लाख रूपये जमा कराना चाहता हूँ। लड़के के चंगुल में पूरी तरह फँस चुकी और अपनी महत्वकांक्षाओं के मकड़जाल में उलझी मोनिका ने उसे अपना एकाउण्ट नंबर दे दिया। इस बीच एक दिन लड़के ने कहा कि उसने शुभ मुहूर्त देख लिया है। शुक्रवार का शुभमुहूर्त है, तुम मंुबई आ जाओ। हम कोर्ट में शादी कर लेेंगे और फिर मैं तुम्हे अपने साथ कनाडा ले चलंूगा। इस पर मोनिका ने कहा कि मैं गुरूवार की ट्रेन में अपना रिज़र्वेशन कराकर शुक्रवार सुबह पहुँच जाऊँगी। इस पर लड़के ने कहा कि तुम मेरी जीवन-संगिनी बनने वाली हो और क्या ट्रेन में आना-जाना करोगी। यह मेरे लिये शर्म की बात है मैं फ़्लाईट की टिकट का किराया तुम्हारे अकाउण्ट में जमा करा देता हूँ। अगले ही दिन सचमुच ही मोनिका के एकाउण्ट में फ्लाईट की एक तरफ की टिकट के पैसे जमा हो चुके थे। यह मोनिका के लिए फ़्लाईट में बैठकर उड़ने का पहला मौक़ा था। फ़्लाईट में बैठने की कल्पना ही उसे रोमांचित कर रही थी। उसे अब हमेशा लगने लगा कि अब तो वह आसमान में ही उड़ रही है। कनाडा से भारत और भारत से कनाडा और भी न जाने दुनिया के कितने देशों को देखने का मौका मिलेगा। चलो देर से ही सही, उसे एनआरआई पति आख़िर मिल ही गया। अब वह अपने सारे अरमान पूरे करेगी। अभी तो अभावों के कारण वह अच्छे से शापिंग नहीं कर पा रही है, लेकिन पैसे हाथ में आते ही वह हमेशा ही माॅल जाया करेगी। ख़ैर सुखद सपनांे में जीते-जीते उसका मुम्बई जाने का दिन भी आ गया। प्लेन में बैठते हुए वह बेहद रोमांचित थी। दो घण्टों का प्लेन का सफर उसे बेहद छोटा लगा। जब एयर होस्टेस ने लैण्डिग की सूचना दी तो उसे लगा कि हे भगवान, ये प्लेन इतनी जल्दी क्यों लैण्ड कर रहा है, पर अपने भावी एनआरआई पति से मिलने की चाह ने उससे कहा कि अभी तो शुरूआत है।
मुंबई में उतरते ही उसे अपने नाम की तख्ती लिये हुए एक शोफ़र नज़र आया। वह उसके पीछे चल दी। बाहर एक बेहद ख़ूबसूरत सी लग्ज़री कार में एक बेहद हैण्डसम सा व्यक्ति बैठा हुआ था। उसने एक बेहद महँगा वाला सनग्लाॅस लगा रखा था। उसकी उम्र 32-33 वर्ष के आस-पास रही होगी। वह बिल्कुल ही किसी फिल्मी हीरो की तरह दिख रहा था। मोनिका का दिल बल्लियों उछलने लगा था। उसने अपने बाॅयोडाटा में अपनी उम्र 30 वर्ष ही लिखी थी। उसने अपने दो बार तलाक़शुदा होने की जानकारी भी नहीं दी थी। चूंकि अपने नाम के आगे वह कुमारी ही लिखा करती थी, सो इतना अच्छा रिश्ता उसके हाथ में आ गया था। मोनिका का जी चाह रहा था कि वह अपनी इस चालाकी पर खुद ही अपनी पीठ थपथपायें। चूंकि लड़के ने कह दिया था कि हम शादी करके सीधे कनाडा चले जायेंग,े तो वह अपने सारे जे़वर और नग़दी अपने साथ लेकर ही आई थी। हालाँकि बैंक में अब भी उसके खाते में दो लाख रूपये थे। एटीएम पास में होने से वह रूपये भी एक तरह से साथ ही थे। लड़के ने उसे बताया कि इतनी जल्दी कोर्ट-मैरिज़ संभव नहीं है, इसलिये हम मंदिर में ईश्वर को साक्षी मानकर शादी कर लेते हैं। मोनिका ने सोचा शादी तो करनी ही है, फिर क्या कोई कोर्ट और क्या मंदिर। मोनिका ने कहा कोई बात नहीं। भोगवादी मोनिका ने सोचा ऐसे आदमी के साथ तो साल दो साल लिव इन रिलेशनशिप में रहने को मिल जाये, तो भी कोई नुक़सान नहीं है।
वे लोग एक छोटे से मंदिर में पहुंचे। वहाँ उन्हांेने शादी की। वहाँ उपस्थ्ति पुजारी और कुछ भक्तों ने उन्हंे आशीर्वाद दिया। वे दोनों दिनभर इधर-उधर घूमते रहे। रात में उन्हांेने एक होटल में सुहागरात का प्लान बनाया। सोने से पहले दोनांे ने गर्म दूध पिया। अगले दिन मोनिका की नींद दोपहर बारह बजे खुली। उसका सर भारी-भारी लग रहा था। उसने आंखें खोलकर देखा तो पाया कि उसके सारे जे़वर और नग़दी सहित वो शख़्स ग़ायब है। उसे सारा माज़रा समझ में आ गया कि वह एक धोखेबाज की शिकार बन गई है। उसने जल्दी से नज़दीक के एटीएम में पहुंचकर अपना बैलेंस चैक किया तो पता चला कि बैंक में जमा रक़म भी निकाली जा चुकी है। अति महत्वकांक्षा और असुरक्षा की भावना से भरी हुई इस चींटी के जमा किये हुए सारे खाने को किसी और ने लूट लिया था।
ड्रामेबाज
मैंने एक सरकारी काॅलोनी में मकान खरीदा था। दो कमरों और किचन युक्त छोटा सा मकान था। वह काॅलोनी मुख्य सक से काफी अन्दर थी, इसलिए वहां बसाहट हो नहीं पा रही थी और काॅलोनी के मकान खाली पड़े हुए थे। कुछ लोगों ने तो इन्वेस्टमेंण्ट के हिसाब से वहां मकान खरीद रखा था, पर चूंकि बसाहट हो नहीं पा रहा रही थी, सो मकानों के मूल्यों में वृध्दि नहीं हो रही थी, और उनके लिए ये मकान घाटे का सौदा साबित हो रहे थे। मैंने भी उस काॅलोनी में मकान लिया था और काॅलोनी के बसने के इंतजार में था। मैंने वह मकान अपनी जरूरत के लिये खरीदा था, पर चूंकि वहां इक्का-दुक्का लोग ही बसे थे सो मैं वहां शिफ्ट होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उस काॅलोंनी में हमेशा ही सन्नाटा पसरा हुआ रहता था। इस इस बीच मैं उस काॅलोनी की बसाहट के बारे में लोंगो से पता करता रहता। एक दिन मुझे पता चला कि मेरे सेक्टर में चार-पंाच लोग बस गये है और समें एक दलित परिवार रहने आया है। यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई कि उस परिवार का मुखिया पास के किसी काॅलेज में विज्ञान का प्रोफेसर है। मैं अब अपने उस घर में शिफ्ट होने का सोचने लगा। एक बार मैं उनसे मिलने पहंुचा तो उन्होंने बड़े ही गर्म जोशी से मेरा स्वागत किया और कहने लगा कि आप जल्द से जल्द अपने घर में शिफट हो जाये फिर हम बैठकर बौध्दिक चर्चाएं करते रहेंगे। पहली बार उनसे मिलकर मैं उनसे बेहद प्रभावित हुआ। उनसे विदा लेते हुए मैंने ठान लिया कि अब अपने घर में शिफ्ट हो जाना ही चाहिए। पास में हमारे एक विद्वान दलित भाई तो है ही तो। हम दलित विमर्श पर खूब चर्चा करेंगे। घर पहंुचकर मैंने अपनी श्रीमती से कहा कि अब हमें वहां अपने घर में तुरन्त ही शिफ्ट हो जाना चाहिए इस पर श्रीमती जी ना नकुर करने लगी और कहने लगी कि अपनी बच्ची बड़ी होती जा रही है ऐसे में हम उस सुनसान काॅलोनी में जाने का रिस्क नहीं ले सकते पर मुझे तो अपने उस दलित पड़ोसी ने पहली मुलाकात मे ही इतना प्रभावित कर दिया था कि मैं एक तरह से उसका अंधभक्त बन चुका था। मैंने कहा कि यदि सभी लोग उस काॅलोनी में बसाहट का इंतजार करते रहे तो काॅलोनी तो बसने से रही। आखिर बसने की शुरूआत का रिस्क तो किसी न किसी को लेना ही पड़ेगा, और फिर हमारे सेक्टर में तो पांच परिवार बस भी चुके हैं। ऐसे में हमें वहां बहुत ज़्यादह समस्याएं नही होंगी। और फिर हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब ने आश्वस्त किया है कि हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं होगी। वे हमारा पूरा सहयोग करेंगे। पत्नी अब भी आशंकित थी और तैयार नहीं हो पा रही थी। सो मैंने सकी दुखती रग पर हाथ रखते हुए कह दिया कि अपना खुद का घर होते हुए भी हम तीन-चार सालों से किराये से रह रहे हैं। हम यदि अपने घर में शिफ्ट हो जाते हंै तो मकान किराये की शुध्द बचत हो जायेगी, जो हमारे काम आयेगी। मेरी यह बात असर कर गई और पत्नी भी तैयार हो गई। अगले ही रविवार हमने शिफ्टििंग का प्लान बना लिया। अपने खुद के घर में रहने में रहने की पुलक और एक दलित विद्वान की संगत की कल्पना से मैं बेहद रोमांचित था। आखिर रविवार आ गया और हम अपने घर में शिफ्ट हो गये। हमारे वो पड़ोसी दलित जाति के थे पर उनका सरनेम चतुर्वेदी था यह सरनेम आमतौर पर ब्राम्हनों का होता है। उनका का एक लड़का और एक लड़की थे। उनकी लड़की मेरी बच्ची से तीन साल बड़ी थी। जबकि लड़की बड़ी और दसवी कक्षा में पढ़ता था। उन्होंने हमें खाने पर बुलाया था। हमने खाना खाया तो महसूस हुआ खाना एकदम फीका सा है। उसमें मसाले बिल्कुल भी नहीं थे। और ऐसा लग रहा था कि सब्जियां उबाल कर परोस दी गई है। खैर हमें लगा कि शायद डाॅक्टर ने उन्हें इसी तरह का खाना खाने की सलाह दे रखी हो। खैर हम खाना खाकर हाथ धोने को ठें वाॅश बेसिन दोनों कमरों के बीच मे था। हाथ धोते-धोते अचानक मेरी नज़र उनके अन्दर कमरे में पड़ा। वहां पर बहुत बड़ी साईज की फ्रेम की हुई एक बाबा की तस्वीर दिखी। और उसके बिल्कुल सामने फ्रेम की हुई एक दूसरे बाबा की तस्वीर भी दिख गई। ये दोनों ही बाबा इन दिनों जेल में बलात्कार के आरोप में बन्द थे। इन बाबाओं की तस्वीर देखकर मेरा माथा ठनका। एक तो दलित दूसरे विज्ञान के प्रोफेसर ऐसे बाबाओं के भक्त हो सकते है यह अकल्पनीय था। मेरा सारा उत्साह ठण्डा हो चुका था। तो भी मैंने प्रोफेसर साहब से इस संबंध में कोई बात नहीं की। अब तक हमें अपने नये घर में पूरी तरह सैट हुए एक सप्ताह हो चुके थे। प्रोफेसर साहब रोज शाम हमारे घर आते। मैं और वे बाहर कुर्सियां निकालकर बैठ जाते। मैंने महसूस किया कि प्रोफेसर साहब दलित मुद्दे पर किसी तरह की बात खुद से नहीं करते थे उलटे मेरे द्वारा पहल किये जाने पर वह विषय बदल देते थे और काॅलोनियों में रहने वालों की निजी जिन्दगी से जुड़े किस्से बताने लगते कि फलां की लड़की भाग गई, तो उसकी पत्नी के किसी अन्य पुरूष के साथ संबंध हैं। फलां का लड़का चोर है और वह चोरी के पंप बेचा करता है। फलां आदमी दलाली करता है और जवां लड़के लड़कियों को किसी भी खाली कमरे की चाबी पांच सौ रूपये लेकर दे देता है। मुझे उनकी बाते बोर करनेे लगी। कुछ दिनों बाद वे एक अलग तरह की चर्चा करने लगे कि दुनिया में जो भी घटनाएं घट रही हैं, वही ड्रामा है यह रिपीट होने वाला ड्रामा है। हम सारे तो कठपुतली हंै। हमारा कण्ट्रोल उपर वाले के हाथ में है। वह जो चाहता है वहीं होता है। हम दलित इसलिये हैं। वह जो चाहता है, वही होता है। हम दलित इसलिए है क्योंकि हमने पिछले जन्मों में बहुत से पाप किये है। उनकी यह विचित्र फिलाॅसफी मुझे कोरी बकवास लगने लगी। धर उनकी पत्नी मेरी धर्मपत्नी के पास आकर एक अलग ही तरह की फिलासफी बघारती। वह राधेकृष्ण के प्रेम में मगन होकर नाचने की बात कहती। उनकी बकवास धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। इस बीच हमने ध्यान दिया कि वे अपने घर तो हमें चाय-नाश्ता कराते, लेकिन हमारे घर का पानी भी नहीं पीते हंै। चाय-पानी सामने लाने पर वे दोनों पति-पत्नी हाथ जोकर मना कर देते है। उनका इस तरह से करना मुझे बेहद अपमान-जनक लगता। एक दिन मैंने चिढ़कर उनसे पूछ ही लिया-क्यों प्रोफेसर साहब? क्या आप हमसे छुआ मानते हैं? इस पर उन्होंने बताया कि हमारे बाबा का आदेश है कि किसी के भी घर कुछ खाना-पीना नहीं है। उनका कहना है कि शुध्दतापूर्वक जीवन जीने से आप ब्राम्हणों से भी श्रेष्ठ हो जाते हैं। हमारी पत्नी के बाबा भी दूसरों के घर खाने-पीने से बचने के लिए कहते हैं।समय बीतता जा रहा था और हमें समझ में आने लगा था कि प्रोफेसर साहब वैचारिक रूप से पूरी तरह दिवालिया हैं। अब उन दोनों पति-पत्नियों को झेल पाना हमारे लिये मुश्किल होता जा रहा था, सो हम अपने चेहरे के हाव-भाव से न्हें जताने लगे कि हमें उनकी बातें नापसंद है। उन्हें भी यह बात समझ में आ गई और वे भी हमसे दूरियां बनाने लगे। अब संबंध सिर्फ हाय-हैलो जल्दी चलो तक का रह गया था। इस बीच काॅलोनी में और भी लोग रहने आ गये थे। उनमें से एक हमारे मित्र तिवारी जी भी थ,े जो प्रोफेसर साहब के काॅलेज में ही क्लर्क थे। वे मुझसे कहने लगे कि अरे प्रोफेसर साहब तो बड़े ही सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति है। काम-क्रोध मद मोह है। लोभ से एकदम अछूते। हमेशा ही ईश्वर के ध्यान में रहने वाले। अरे उनकी धार्मिकता का क्या कहना, वे तो गृहस्थ में रहते हुए भी सन्यासियों सा जीवन जीते है। वे तो अपना बिस्तर भी अलग रखते है। मतलब पत्नी के साथ नहीं सोते और खान-पान की शुध्दता के बारे में तो कहना ही क्या मांसाहार की बात छोड़िये वे तो लहसुन-प्याज जैसी तामसिक वस्तुओं का नाम भी नहीं लेते वाकई में वे एक आदर्श व्यक्ति हंै। तिवारी जी के द्वारा प्रोफेसर साहब की शान में पढ़े गये कसीदे ने मेरे तन-बदन में आग़ लगा दी मेरा जी चाहा कि मैं तिवारी जी से कहूं कि तुम्हारें द्वारा रचित ढोंग को आंख मूंदकर जो माने वो आदर्श है और जो तर्क के द्वारा आपके पाखण्ड को खारिज करे वह कतर्क करने वाला कहलाए। खैर तिवारी ने मुझे उकसा दिया था और मैंने शालीनता के साथ कहा तिवारी जी मुझे तो ये कर्मकाण्ड ढोंग लगते है। आदमी एक सामाजिक प्राणी है और उसे व्यावहारिक होना ही होता है। और आपके प्रोफेसर साहब निहायत ही अव्यावहारिक किस्म के आदमी हंै। खै़र अब हमारे और प्रोफेसर साहब के बीच सिर्फ़ औपचारिक संबंध भर रह गये थे। हां उनके बच्चे जरूर हमारे घर आते-जाते रहते। आॅफ़िस के काम से कई बार मुझे सुबह जागकर काम करता होता था, मैं चार बजे सुबह का अलार्म लगाया करता था, लेकिन मेरी नींद प्रोफेसर साहब के घर पर सुबह साढे़ तीन बजे होने वाली खटर-पटर से ही खुल जाती। कभी उनके घर भजन की आवाज आती तो कभी पति-पत्नी के बीच चीं आवाज़ में बातें करने की। फिर किचन में खाना बनाने की आवाजें आने लगती थी। मुझे बड़े ही आश्चर्य होता था कि प्रोफेसर साहब काॅलेज तो बारह बजे जाते हंै, और उनकी पत्नी तो हाउस वाईफ है फिर इतनी सुबह से ठकर ये लोग करते क्या हैं यह जिज्ञासा मेेरे मन में बहुत दिनों से थी। फिर मैं देखता कि वे दोनो पति-पत्नी सुबह पांच बजे से कहीं जाने के लिये निकल जाते। उनके बच्चे अन्दर सोते रहते और वे दोनो लोहे के गेट पर ताला लगाकर कहीं निकल जाते। वे दोनों ही पति-पत्नी रहस्यमय व्यक्ति के स्वामी थे एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने गर्व से बताया था कि हम दोनों पति-पत्नी अलग-अलग बाबाओं के आश्रम में ध्यान करने जाते है। हमारा तो सारा खानदान ही आध्यात्मिक है। उन्होंने कहा कि धोकर पूजा-पाठ करके पढ़ने बैठ जाते है। हमने ज्यादह लोगों के संपर्क में नहीं रहते हैं मैं यही देखता कि उनके बच्चे नौ बच्चे स्कूल के लिये निकलते। उनकी बच्ची को तो मैंने दो-चार बार आवारा लड़कों के साथ भी देखा था। उनके द्वारा ऐसा कहे जाने पर मुझे भी आ गई उनका बेटा बहुत ही सीधा-साधा था लेकिन उनके घर में लहसुन प्याज वाली मसालेदार सब्जियां नहीं बनती थी सो वह मसालेदार सब्जियां नहीं बनती थी सो वह मसालेदार सब्जियां खाने के लिये लालायित रहता था। वह हमारे घर में बनी तरकारी को बहेद पसंद करता था। वो जैसे ही हमारे घर आता उसके मां-बाप पंाच-दस मिनट बाद ही आवाज़ देकर से बुला लेते थे। उन्हें कतई यह पसंद नहीं था कि उनका बेटा लहसुन-प्याज जैसी तामसिक वस्तुओं का सेवन करे। हमें उनके बच्चें पर तरस आता था, लेकिन हम कर भी क्या सकते थे। यह उनका नितांत ही निजी मुआमला था। सकी इच्छा को देखते हुए हम जल्दी से ही से सब्जी-रोटी खिला देते थे। धीरे-धीरे अब वह बड़ा होने लगा था। अब से इस तरह के फालतू बंधन कतई स्वीकार्य नहीं थे। धर प्रोफेसर साहब को लगने लगा कि हम नके लके को बिगा रहे हैं और न्होंने अपने बच्चे को हमारे घर आना लगभग बंद सा करा दिया। अब जब उसके मां-बाप घर पर नहीं होते तभी वह हमारे घर आता था। अब उसके अन्दर की छटपटाहट हमें स्पष्ट महसूस होने लगी थी। एकाध बार उसने हमसे अण्डे की तरकारी खिलाने का कहा लेकिन हमने मना कर दिया मसालेदार शाकाहारी सब्जियों तक तो ठीक था लेकिन हम यह कतई नहीं चाहते थे कि सके माता-पिता यह कहे कि हमने नके बेटे को मांसाहारी बना दिया है। ख़ैर वह अण्डें के ठेलों में अण्डें खाता हुआ हमें कभी-कभी दिख जाता था। वह हम दोनो पति-पत्नी को अपना बेहद करीबी मानता था। अब वह काॅलेज़ पहंुच चुका था। काॅलेज़ के साथियों के बारे में वह मुझसे सारी बातें बताया करता था। एक तरह से वह मेरा मित्र ही बन गया था।इस बीच प्रोफेसर साहब की पुत्री के बारे में काॅलोनी में खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी कि वह आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती है। काॅलोनी के कुछ लोगों ने प्रोफेसर साहब को बताने की कोशिश की थी पर उन्होंने उलटे उन पर भड़कते हुए कहा था कि आप अपना घर संभाले। उनकी इस तरह की बदतमीजी भरी बाते सुनकर लोग धीरे-धीरे उनसे कन्नी काटने लगे थे वे और उनका परिवार काॅलोनी में एक दम अलग-थलग सा पाया गया था। मेरे साथ भी उनकी हाॅय-हैलो भी सिमट गई थी। अब जब अचानक सामना हो जाता था, तभी हाॅय-हलो हो जाती थी। उनकी लड़की के बारे में परिचित लोग बताते कि यह एक नंबर की चोर है। मोबाईल चोरी करने में वह एकदम सिध्दहस्त है। नगद भी पार कर देती है और उसको देखकर लोग सतर्क हो जाते है। चोरी के पैसे से वह अपने ब्याय फ्रेण्ड्स को ऐश कराती है।उनकी लड़की 18 वर्ष की होते ही एक शादी-शुदा आॅटो डाईव्हर के साथ भाग गई। यह बेहद ही अपमानजनक बात थी। मुझे लगा प्रोफेसर साहब को अब तक अपनी ग़लती का अहसास हो चुका होगा कि आश्रमों में जाने की बजाय गृहस्थ आश्रम को ही ठीक तरीके से जीना चाहिये। अपने बच्चों की तरफ पूरा ध्यान देना चाहिये। इतनी बड़ी घटना घर जाने के बाद भी मैं देखता दोनों पति-पत्नी के चेहरे में शिकन तक नहीं है। मुझे लगा ये लोग अन्दर से पक्के तौर पर दुःखी होंगे, भले ही बाहर जाहिर न करें। सबसे करीबी पड़ोसी होने के नाते मेरे अन्दर ये यह आवाज लगातार आ रही थी कि मैं नसे सहानुभूति के दो बोल बोलूं। सो एक दिन मैंने नसे कहा आजकल के बच्चे जरा भी नियंत्रण में नहीं रहते है। मां-बाप की इज्जत को तो वे सड़कों में उछाल देते हैं। वाकई बड़े बुरे दिन आ गये है। वे शांति से मेरी बात सुनते रहे और फिर कहने लगे कि इस दुनिया में जो घट रहा है, वह सारा का सारा पूर्व नियोजित है। यह एक किस्म का ड्रामा है, जो बार-बार रिपीट होता है। ऐसा कहते हुए वे चले गये। इधर मैं सोचने लगा कि यदि सबकुछ ड्रामा के अनुसार ही होना है, तो भला कर्म करने की जरूरत ही क्या है? उधर उनका लड़का आगे की पढ़ाई करने के लिये दिल्ली चला गया था। वह फेसबुक और व्हाट्सप के माध्यम से मुझसे जुड़ा हुआ था। दूर रहकर भी वह मेरे बेहद करीब था। उसके पिता के उम्र का होने के बावजूद हम बेहद मित्रवत थे। हालांकि कुछ मुआमलांे में उसने अब भी संकोच कायम रखा हुआ था। एक दिन सने मुझसे घुमा-फिराकर अंतर्जातीय विवाह के बारे में पूछा। हालांकि मैं समझ गया कि वह किसी दूसरी जाति की लड़की से अंतरर्जातीय विवाह करना चाहता है, लेकिन मैंने उसे बिल्कुल ही नहीं छेड़ा और अंतरजातीय विवाह के बारे में वह जो-जो पूछता गया मैं बताता गया। कुछ महीनों बाद उसने कोर्ट मैरिज करने या मंदिर में शादी करने पर वैधता के बारे में पूछा। अब तक मैं पूरी तरह समझ चुका थां कि वह किसी लड़की से प्रेम करता है और उससे शादी करना चाहता है। इसमें कोई बुराई तो थी भी नहीं सो मैंने उससे मित्रवत स्पष्ट पूछा और यह भी आश्वस्त किया कि यह बात हम दोनो के बीच ही रहेगी, बल्कि जरूरत पड़ने पर मैं खुद ही तुम लोगांे की शादी करा दूंगा। भले ही तुम्हारे मां-बाप मुझे अपना दुश्मन ही क्यों न समझने लगे।वह मेरी बातों से आश्वस्त हुआ या नहीं मुझे नहीं मालूम। खैर उससे होती बातों से मैंने अंदाज़ लगाया कि वह अपने बाप से बेहद नफ़रत करने लगा ह,ै और मां के प्रति भी उसे कोई विशेष लगाव नहीं रह गया है। वह अब अपने घर से विद्रोह करने की तैयारी करने लगा है, लेकिन उसकी जैसी परवरिश हुई थी उसके हिसाब से न जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि सके व्यक्तित्व पर अपने बाप का इतना खौफ़ है कि वह विद्रोह करने में नाकाम हो जायेगा या फिर उसके विद्रोह को बलात् दबा दिया जायेगा। उसमें आत्मविश्वास की बेहद कमी थी। ख़ैर इस दौरान मैं अपने कामों में इतना व्यस्त हो गया कि सोशल मीडिया से मैं कट सा गया। वह भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया था। हमारे बीच संवाद कम हो गया था। एक बार जब प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी दोनो अपने-अपने आध्यात्मिक बाबा की यात्रा पर 10 दिनों के लिये गये बाहर गये हुए थे, उसी दौरान एक दिन उसने हमें उस लड़की से मिलवाया। वाकई में वह लड़की भी दलित ही थी पर प्रोफेसर साहब की जात स इतर जात की थी। मैंने फिर से उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस बारे में प्रोफेसर साहब से बात करूंगा और यदि वे नहीं माने तो तुम लोग कोर्ट मैरिज कर लेना मैं तुम्हारे साथ हूं। वह लड़की बेहद सभ्य और मिलनसार लगी। औपचारिक बात-चीत के दौरान ही हमने अंदाज लगा लिया कि वह दलित आंदोलनों की बुनियादी समझ रखती है। वह लड़की हमारे शहर की थी और सके पिता से मेरी जान पहचान भी थी। मैंने उन्हें चेताया था कि अभी अपने संबंधों के बारे में ज्यादह बातें न की जाये इस पर उसने कहा था कि मैंने अपने ताऊ के हम उम्र लड़के को बता रखा है। वह मेरा रिश्तेदार कम, दोस्त ज़्यादह है।एक दिन अचानक प्रोफेसर साहब के घर पर उनके बहुत से रिश्तेदार नज़र आये। सबके चेहरों पर मातम पसरा हुआ था। कुछ महिलाओं के रोने की आवाजं़े आती थी। प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी दोनों ही घर पर नहीं थे। प्रोफेसर साहब के साले से साहब से मेरी मित्रता थी, वे दलित आंदोलनों से जुड़े हुए थे? उन्हें अपने घर के सामने बेचैनी से टहलते हुए पाया तो पूछ लिया। इस पर उन्होंने जो उत्तर दिया वह सुनकर मैं शाॅक्ड सा रह गया। उसने बताया कि प्रोफेसर साहब के लड़के ने दिल्ली में ही अपने हास्टल में फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली है, और दोनो पति-पत्नी यह कहते हुए कि आत्मा तो चोला बदलती ही है इसमें क्या रोना कहते हुए कुछ रिश्तेदारों के साथ दिल्ली निकल गये हैं। वे वहीं पर उसका क्रिया-कर्म करके वापस आयेंगे। यह बताते हुए उसका गला रूंध सा गया। इधर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे थे। मुझे रह-रहकर उसकी बातें याद आ रही थी। मैं उस रात सो नहीं पाया। मेरे मन में उसकी खुदकुशी के कारणों को जानने की जिज्ञासा भी थी। अगले दिन थो सहज होने पर मैंने प्रोफेसर साहब के साले को कुरेदा इस पर वह फटपटे् और अपनी बहन और जीजाजी दोनो को कोसते हुए बताने लगे कि मेरे भानजे के ये हत्यारे हैं। फिर उन्होंने विस्तार से बताना शुरू कर दिया कि प्रोफेसर साहब के भतीजे ने परिवार में यह बात लीक कर दी कि वह एक दूसरी जाति की लड़की से शादी करना चाहता है। बस फिर क्या था इन दोनों ने अपने बेटे को फोन लगाकर खूब भला-बुरा कहा और फिर क्षणिक आवेश में आकर उसने आत्महत्या कर ली। यह सुनकर अब मैं अपनी व्यस्तता को कोसने लगा था यह इस दौरान मेरी, उनके बेटे के साथ संवादहीनता की स्थिति निर्मित हो गई थीं और मैं उसे माॅरल सपोर्ट नहीं दे पाया। खै़र अब कुछ नहीं हो सकता था। दो-तीन दिनों बाद प्रोफेसर दंपति वापस आ गये। उन्होंने किसी भी तरह की औपचारिकताओं के बगैर सभी रिश्तेदारों को रवाना कर दिया।अब तक पूरी तरह बस चुकी काॅलोनी में मेरे सहित दो-चार लोगों को ही उनके बेटे की मृत्यु के बारे में पता था। वे दोनों पति-पत्नि फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे लग गय,े मानो कुछ हुआ ही न हो। उसका वही सुबह से आश्रम जाना फिर चालू हो गया। उनके चेहरों पर किसी किस्म की मायूसी नज़र नहीं आती थी। इधर मैं यह सोचता रहा कि शायद दोनों अपने चेहरे से दु:ख जताना नहीं चाहते होंगे। वरना इतने जवान लड़के की मौत पर कोई इतना सहज कैसे रह सकता है। मुझे लगा कि वे अन्दर से बेहद दुःखी होंग,े सो पड़ोसी होने के नाते यह मेरा फर्ज है कि मैं उनसे सहानुभूति के दो शब्द बोलंू। सो एक बार मैंने प्रोफेसर साहब से कहा कि मुझे आपके बेटे की मौत का बेहद दुःख है। इस पर उन्होंने कहा अरे मरना जीना तो लगा रहता है। आत्मा तो अजर-अमर है। वह तो शरीर रूपी चोला बदलती है। और हमारी जिन्दगी अपने-आप में एक ड्रामा है, और घटने वाली घटनाएं उसका हिस्सा होती हैं। ड्रामा में जो होना है, वो होकर रहेगा। मेरा और मेरे बेटे का इतने ही दिनों का साथ था। ये तो रीपिट होने वाला ड्रामा है, इसमें हम कर भी क्या सकते हैं। उसके ऐसा कहते-कहते मुझे लगने लगा कि एक हत्यारा अपनी सफाई में कह रहा हो- जनाब मकतूल तो खुद मेरे छुरे के सामने आ गया था। खैर इस बीच उसने ड्रामा-ड्रामा इतनी बार कहा कि मेरे दिमाग में ड्रामा शब्द पूरी तरह घर कर गया वापस लौटते हुए मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया -साला ड्रामेबाज़।
ड्रामेबाज
मैंने एक सरकारी काॅलोनी में मकान खरीदा था। दो कमरों और किचन युक्त छोटा सा मकान था। वह काॅलोनी मुख्य सक से काफी अन्दर थी, इसलिए वहां बसाहट हो नहीं पा रही थी और काॅलोनी के मकान खाली पड़े हुए थे। कुछ लोगों ने तो इन्वेस्टमेंण्ट के हिसाब से वहां मकान खरीद रखा था, पर चूंकि बसाहट हो नहीं पा रहा रही थी, सो मकानों के मूल्यों में वृध्दि नहीं हो रही थी, और उनके लिए ये मकान घाटे का सौदा साबित हो रहे थे। मैंने भी उस काॅलोनी में मकान लिया था और काॅलोनी के बसने के इंतजार में था। मैंने वह मकान अपनी जरूरत के लिये खरीदा था, पर चूंकि वहां इक्का-दुक्का लोग ही बसे थे सो मैं वहां शिफ्ट होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उस काॅलोंनी में हमेशा ही सन्नाटा पसरा हुआ रहता था। इस इस बीच मैं उस काॅलोनी की बसाहट के बारे में लोंगो से पता करता रहता। एक दिन मुझे पता चला कि मेरे सेक्टर में चार-पंाच लोग बस गये है और समें एक दलित परिवार रहने आया है। यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई कि उस परिवार का मुखिया पास के किसी काॅलेज में विज्ञान का प्रोफेसर है। मैं अब अपने उस घर में शिफ्ट होने का सोचने लगा। एक बार मैं उनसे मिलने पहंुचा तो उन्होंने बड़े ही गर्म जोशी से मेरा स्वागत किया और कहने लगा कि आप जल्द से जल्द अपने घर में शिफट हो जाये फिर हम बैठकर बौध्दिक चर्चाएं करते रहेंगे। पहली बार उनसे मिलकर मैं उनसे बेहद प्रभावित हुआ। उनसे विदा लेते हुए मैंने ठान लिया कि अब अपने घर में शिफ्ट हो जाना ही चाहिए। पास में हमारे एक विद्वान दलित भाई तो है ही तो। हम दलित विमर्श पर खूब चर्चा करेंगे। घर पहंुचकर मैंने अपनी श्रीमती से कहा कि अब हमें वहां अपने घर में तुरन्त ही शिफ्ट हो जाना चाहिए इस पर श्रीमती जी ना नकुर करने लगी और कहने लगी कि अपनी बच्ची बड़ी होती जा रही है ऐसे में हम उस सुनसान काॅलोनी में जाने का रिस्क नहीं ले सकते पर मुझे तो अपने उस दलित पड़ोसी ने पहली मुलाकात मे ही इतना प्रभावित कर दिया था कि मैं एक तरह से उसका अंधभक्त बन चुका था। मैंने कहा कि यदि सभी लोग उस काॅलोनी में बसाहट का इंतजार करते रहे तो काॅलोनी तो बसने से रही। आखिर बसने की शुरूआत का रिस्क तो किसी न किसी को लेना ही पड़ेगा, और फिर हमारे सेक्टर में तो पांच परिवार बस भी चुके हैं। ऐसे में हमें वहां बहुत ज़्यादह समस्याएं नही होंगी। और फिर हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब ने आश्वस्त किया है कि हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं होगी। वे हमारा पूरा सहयोग करेंगे। पत्नी अब भी आशंकित थी और तैयार नहीं हो पा रही थी। सो मैंने सकी दुखती रग पर हाथ रखते हुए कह दिया कि अपना खुद का घर होते हुए भी हम तीन-चार सालों से किराये से रह रहे हैं। हम यदि अपने घर में शिफ्ट हो जाते हंै तो मकान किराये की शुध्द बचत हो जायेगी, जो हमारे काम आयेगी। मेरी यह बात असर कर गई और पत्नी भी तैयार हो गई। अगले ही रविवार हमने शिफ्टििंग का प्लान बना लिया। अपने खुद के घर में रहने में रहने की पुलक और एक दलित विद्वान की संगत की कल्पना से मैं बेहद रोमांचित था। आखिर रविवार आ गया और हम अपने घर में शिफ्ट हो गये। हमारे वो पड़ोसी दलित जाति के थे पर उनका सरनेम चतुर्वेदी था यह सरनेम आमतौर पर ब्राम्हनों का होता है। उनका का एक लड़का और एक लड़की थे। उनकी लड़की मेरी बच्ची से तीन साल बड़ी थी। जबकि लड़की बड़ी और दसवी कक्षा में पढ़ता था। उन्होंने हमें खाने पर बुलाया था। हमने खाना खाया तो महसूस हुआ खाना एकदम फीका सा है। उसमें मसाले बिल्कुल भी नहीं थे। और ऐसा लग रहा था कि सब्जियां उबाल कर परोस दी गई है। खैर हमें लगा कि शायद डाॅक्टर ने उन्हें इसी तरह का खाना खाने की सलाह दे रखी हो। खैर हम खाना खाकर हाथ धोने को ठें वाॅश बेसिन दोनों कमरों के बीच मे था। हाथ धोते-धोते अचानक मेरी नज़र उनके अन्दर कमरे में पड़ा। वहां पर बहुत बड़ी साईज की फ्रेम की हुई एक बाबा की तस्वीर दिखी। और उसके बिल्कुल सामने फ्रेम की हुई एक दूसरे बाबा की तस्वीर भी दिख गई। ये दोनों ही बाबा इन दिनों जेल में बलात्कार के आरोप में बन्द थे। इन बाबाओं की तस्वीर देखकर मेरा माथा ठनका। एक तो दलित दूसरे विज्ञान के प्रोफेसर ऐसे बाबाओं के भक्त हो सकते है यह अकल्पनीय था। मेरा सारा उत्साह ठण्डा हो चुका था। तो भी मैंने प्रोफेसर साहब से इस संबंध में कोई बात नहीं की। अब तक हमें अपने नये घर में पूरी तरह सैट हुए एक सप्ताह हो चुके थे। प्रोफेसर साहब रोज शाम हमारे घर आते। मैं और वे बाहर कुर्सियां निकालकर बैठ जाते। मैंने महसूस किया कि प्रोफेसर साहब दलित मुद्दे पर किसी तरह की बात खुद से नहीं करते थे उलटे मेरे द्वारा पहल किये जाने पर वह विषय बदल देते थे और काॅलोनियों में रहने वालों की निजी जिन्दगी से जुड़े किस्से बताने लगते कि फलां की लड़की भाग गई, तो उसकी पत्नी के किसी अन्य पुरूष के साथ संबंध हैं। फलां का लड़का चोर है और वह चोरी के पंप बेचा करता है। फलां आदमी दलाली करता है और जवां लड़के लड़कियों को किसी भी खाली कमरे की चाबी पांच सौ रूपये लेकर दे देता है। मुझे उनकी बाते बोर करनेे लगी। कुछ दिनों बाद वे एक अलग तरह की चर्चा करने लगे कि दुनिया में जो भी घटनाएं घट रही हैं, वही ड्रामा है यह रिपीट होने वाला ड्रामा है। हम सारे तो कठपुतली हंै। हमारा कण्ट्रोल उपर वाले के हाथ में है। वह जो चाहता है वहीं होता है। हम दलित इसलिये हैं। वह जो चाहता है, वही होता है। हम दलित इसलिए है क्योंकि हमने पिछले जन्मों में बहुत से पाप किये है। उनकी यह विचित्र फिलाॅसफी मुझे कोरी बकवास लगने लगी। धर उनकी पत्नी मेरी धर्मपत्नी के पास आकर एक अलग ही तरह की फिलासफी बघारती। वह राधेकृष्ण के प्रेम में मगन होकर नाचने की बात कहती। उनकी बकवास धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। इस बीच हमने ध्यान दिया कि वे अपने घर तो हमें चाय-नाश्ता कराते, लेकिन हमारे घर का पानी भी नहीं पीते हंै। चाय-पानी सामने लाने पर वे दोनों पति-पत्नी हाथ जोकर मना कर देते है। उनका इस तरह से करना मुझे बेहद अपमान-जनक लगता। एक दिन मैंने चिढ़कर उनसे पूछ ही लिया-क्यों प्रोफेसर साहब? क्या आप हमसे छुआ मानते हैं? इस पर उन्होंने बताया कि हमारे बाबा का आदेश है कि किसी के भी घर कुछ खाना-पीना नहीं है। उनका कहना है कि शुध्दतापूर्वक जीवन जीने से आप ब्राम्हणों से भी श्रेष्ठ हो जाते हैं। हमारी पत्नी के बाबा भी दूसरों के घर खाने-पीने से बचने के लिए कहते हैं।समय बीतता जा रहा था और हमें समझ में आने लगा था कि प्रोफेसर साहब वैचारिक रूप से पूरी तरह दिवालिया हैं। अब उन दोनों पति-पत्नियों को झेल पाना हमारे लिये मुश्किल होता जा रहा था, सो हम अपने चेहरे के हाव-भाव से न्हें जताने लगे कि हमें उनकी बातें नापसंद है। उन्हें भी यह बात समझ में आ गई और वे भी हमसे दूरियां बनाने लगे। अब संबंध सिर्फ हाय-हैलो जल्दी चलो तक का रह गया था। इस बीच काॅलोनी में और भी लोग रहने आ गये थे। उनमें से एक हमारे मित्र तिवारी जी भी थ,े जो प्रोफेसर साहब के काॅलेज में ही क्लर्क थे। वे मुझसे कहने लगे कि अरे प्रोफेसर साहब तो बड़े ही सात्विक प्रवृत्ति के व्यक्ति है। काम-क्रोध मद मोह है। लोभ से एकदम अछूते। हमेशा ही ईश्वर के ध्यान में रहने वाले। अरे उनकी धार्मिकता का क्या कहना, वे तो गृहस्थ में रहते हुए भी सन्यासियों सा जीवन जीते है। वे तो अपना बिस्तर भी अलग रखते है। मतलब पत्नी के साथ नहीं सोते और खान-पान की शुध्दता के बारे में तो कहना ही क्या मांसाहार की बात छोड़िये वे तो लहसुन-प्याज जैसी तामसिक वस्तुओं का नाम भी नहीं लेते वाकई में वे एक आदर्श व्यक्ति हंै। तिवारी जी के द्वारा प्रोफेसर साहब की शान में पढ़े गये कसीदे ने मेरे तन-बदन में आग़ लगा दी मेरा जी चाहा कि मैं तिवारी जी से कहूं कि तुम्हारें द्वारा रचित ढोंग को आंख मूंदकर जो माने वो आदर्श है और जो तर्क के द्वारा आपके पाखण्ड को खारिज करे वह कतर्क करने वाला कहलाए। खैर तिवारी ने मुझे उकसा दिया था और मैंने शालीनता के साथ कहा तिवारी जी मुझे तो ये कर्मकाण्ड ढोंग लगते है। आदमी एक सामाजिक प्राणी है और उसे व्यावहारिक होना ही होता है। और आपके प्रोफेसर साहब निहायत ही अव्यावहारिक किस्म के आदमी हंै। खै़र अब हमारे और प्रोफेसर साहब के बीच सिर्फ़ औपचारिक संबंध भर रह गये थे। हां उनके बच्चे जरूर हमारे घर आते-जाते रहते। आॅफ़िस के काम से कई बार मुझे सुबह जागकर काम करता होता था, मैं चार बजे सुबह का अलार्म लगाया करता था, लेकिन मेरी नींद प्रोफेसर साहब के घर पर सुबह साढे़ तीन बजे होने वाली खटर-पटर से ही खुल जाती। कभी उनके घर भजन की आवाज आती तो कभी पति-पत्नी के बीच चीं आवाज़ में बातें करने की। फिर किचन में खाना बनाने की आवाजें आने लगती थी। मुझे बड़े ही आश्चर्य होता था कि प्रोफेसर साहब काॅलेज तो बारह बजे जाते हंै, और उनकी पत्नी तो हाउस वाईफ है फिर इतनी सुबह से ठकर ये लोग करते क्या हैं यह जिज्ञासा मेेरे मन में बहुत दिनों से थी। फिर मैं देखता कि वे दोनो पति-पत्नी सुबह पांच बजे से कहीं जाने के लिये निकल जाते। उनके बच्चे अन्दर सोते रहते और वे दोनो लोहे के गेट पर ताला लगाकर कहीं निकल जाते। वे दोनों ही पति-पत्नी रहस्यमय व्यक्ति के स्वामी थे एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने गर्व से बताया था कि हम दोनों पति-पत्नी अलग-अलग बाबाओं के आश्रम में ध्यान करने जाते है। हमारा तो सारा खानदान ही आध्यात्मिक है। उन्होंने कहा कि धोकर पूजा-पाठ करके पढ़ने बैठ जाते है। हमने ज्यादह लोगों के संपर्क में नहीं रहते हैं मैं यही देखता कि उनके बच्चे नौ बच्चे स्कूल के लिये निकलते। उनकी बच्ची को तो मैंने दो-चार बार आवारा लड़कों के साथ भी देखा था। उनके द्वारा ऐसा कहे जाने पर मुझे भी आ गई उनका बेटा बहुत ही सीधा-साधा था लेकिन उनके घर में लहसुन प्याज वाली मसालेदार सब्जियां नहीं बनती थी सो वह मसालेदार सब्जियां नहीं बनती थी सो वह मसालेदार सब्जियां खाने के लिये लालायित रहता था। वह हमारे घर में बनी तरकारी को बहेद पसंद करता था। वो जैसे ही हमारे घर आता उसके मां-बाप पंाच-दस मिनट बाद ही आवाज़ देकर से बुला लेते थे। उन्हें कतई यह पसंद नहीं था कि उनका बेटा लहसुन-प्याज जैसी तामसिक वस्तुओं का सेवन करे। हमें उनके बच्चें पर तरस आता था, लेकिन हम कर भी क्या सकते थे। यह उनका नितांत ही निजी मुआमला था। सकी इच्छा को देखते हुए हम जल्दी से ही से सब्जी-रोटी खिला देते थे। धीरे-धीरे अब वह बड़ा होने लगा था। अब से इस तरह के फालतू बंधन कतई स्वीकार्य नहीं थे। धर प्रोफेसर साहब को लगने लगा कि हम नके लके को बिगा रहे हैं और न्होंने अपने बच्चे को हमारे घर आना लगभग बंद सा करा दिया। अब जब उसके मां-बाप घर पर नहीं होते तभी वह हमारे घर आता था। अब उसके अन्दर की छटपटाहट हमें स्पष्ट महसूस होने लगी थी। एकाध बार उसने हमसे अण्डे की तरकारी खिलाने का कहा लेकिन हमने मना कर दिया मसालेदार शाकाहारी सब्जियों तक तो ठीक था लेकिन हम यह कतई नहीं चाहते थे कि सके माता-पिता यह कहे कि हमने नके बेटे को मांसाहारी बना दिया है। ख़ैर वह अण्डें के ठेलों में अण्डें खाता हुआ हमें कभी-कभी दिख जाता था। वह हम दोनो पति-पत्नी को अपना बेहद करीबी मानता था। अब वह काॅलेज़ पहंुच चुका था। काॅलेज़ के साथियों के बारे में वह मुझसे सारी बातें बताया करता था। एक तरह से वह मेरा मित्र ही बन गया था।इस बीच प्रोफेसर साहब की पुत्री के बारे में काॅलोनी में खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी कि वह आवारा लड़कों के साथ घूमती रहती है। काॅलोनी के कुछ लोगों ने प्रोफेसर साहब को बताने की कोशिश की थी पर उन्होंने उलटे उन पर भड़कते हुए कहा था कि आप अपना घर संभाले। उनकी इस तरह की बदतमीजी भरी बाते सुनकर लोग धीरे-धीरे उनसे कन्नी काटने लगे थे वे और उनका परिवार काॅलोनी में एक दम अलग-थलग सा पाया गया था। मेरे साथ भी उनकी हाॅय-हैलो भी सिमट गई थी। अब जब अचानक सामना हो जाता था, तभी हाॅय-हलो हो जाती थी। उनकी लड़की के बारे में परिचित लोग बताते कि यह एक नंबर की चोर है। मोबाईल चोरी करने में वह एकदम सिध्दहस्त है। नगद भी पार कर देती है और उसको देखकर लोग सतर्क हो जाते है। चोरी के पैसे से वह अपने ब्याय फ्रेण्ड्स को ऐश कराती है।उनकी लड़की 18 वर्ष की होते ही एक शादी-शुदा आॅटो डाईव्हर के साथ भाग गई। यह बेहद ही अपमानजनक बात थी। मुझे लगा प्रोफेसर साहब को अब तक अपनी ग़लती का अहसास हो चुका होगा कि आश्रमों में जाने की बजाय गृहस्थ आश्रम को ही ठीक तरीके से जीना चाहिये। अपने बच्चों की तरफ पूरा ध्यान देना चाहिये। इतनी बड़ी घटना घर जाने के बाद भी मैं देखता दोनों पति-पत्नी के चेहरे में शिकन तक नहीं है। मुझे लगा ये लोग अन्दर से पक्के तौर पर दुःखी होंगे, भले ही बाहर जाहिर न करें। सबसे करीबी पड़ोसी होने के नाते मेरे अन्दर ये यह आवाज लगातार आ रही थी कि मैं नसे सहानुभूति के दो बोल बोलूं। सो एक दिन मैंने नसे कहा आजकल के बच्चे जरा भी नियंत्रण में नहीं रहते है। मां-बाप की इज्जत को तो वे सड़कों में उछाल देते हैं। वाकई बड़े बुरे दिन आ गये है। वे शांति से मेरी बात सुनते रहे और फिर कहने लगे कि इस दुनिया में जो घट रहा है, वह सारा का सारा पूर्व नियोजित है। यह एक किस्म का ड्रामा है, जो बार-बार रिपीट होता है। ऐसा कहते हुए वे चले गये। इधर मैं सोचने लगा कि यदि सबकुछ ड्रामा के अनुसार ही होना है, तो भला कर्म करने की जरूरत ही क्या है? उधर उनका लड़का आगे की पढ़ाई करने के लिये दिल्ली चला गया था। वह फेसबुक और व्हाट्सप के माध्यम से मुझसे जुड़ा हुआ था। दूर रहकर भी वह मेरे बेहद करीब था। उसके पिता के उम्र का होने के बावजूद हम बेहद मित्रवत थे। हालांकि कुछ मुआमलांे में उसने अब भी संकोच कायम रखा हुआ था। एक दिन सने मुझसे घुमा-फिराकर अंतर्जातीय विवाह के बारे में पूछा। हालांकि मैं समझ गया कि वह किसी दूसरी जाति की लड़की से अंतरर्जातीय विवाह करना चाहता है, लेकिन मैंने उसे बिल्कुल ही नहीं छेड़ा और अंतरजातीय विवाह के बारे में वह जो-जो पूछता गया मैं बताता गया। कुछ महीनों बाद उसने कोर्ट मैरिज करने या मंदिर में शादी करने पर वैधता के बारे में पूछा। अब तक मैं पूरी तरह समझ चुका थां कि वह किसी लड़की से प्रेम करता है और उससे शादी करना चाहता है। इसमें कोई बुराई तो थी भी नहीं सो मैंने उससे मित्रवत स्पष्ट पूछा और यह भी आश्वस्त किया कि यह बात हम दोनो के बीच ही रहेगी, बल्कि जरूरत पड़ने पर मैं खुद ही तुम लोगांे की शादी करा दूंगा। भले ही तुम्हारे मां-बाप मुझे अपना दुश्मन ही क्यों न समझने लगे।वह मेरी बातों से आश्वस्त हुआ या नहीं मुझे नहीं मालूम। खैर उससे होती बातों से मैंने अंदाज़ लगाया कि वह अपने बाप से बेहद नफ़रत करने लगा ह,ै और मां के प्रति भी उसे कोई विशेष लगाव नहीं रह गया है। वह अब अपने घर से विद्रोह करने की तैयारी करने लगा है, लेकिन उसकी जैसी परवरिश हुई थी उसके हिसाब से न जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि सके व्यक्तित्व पर अपने बाप का इतना खौफ़ है कि वह विद्रोह करने में नाकाम हो जायेगा या फिर उसके विद्रोह को बलात् दबा दिया जायेगा। उसमें आत्मविश्वास की बेहद कमी थी। ख़ैर इस दौरान मैं अपने कामों में इतना व्यस्त हो गया कि सोशल मीडिया से मैं कट सा गया। वह भी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गया था। हमारे बीच संवाद कम हो गया था। एक बार जब प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी दोनो अपने-अपने आध्यात्मिक बाबा की यात्रा पर 10 दिनों के लिये गये बाहर गये हुए थे, उसी दौरान एक दिन उसने हमें उस लड़की से मिलवाया। वाकई में वह लड़की भी दलित ही थी पर प्रोफेसर साहब की जात स इतर जात की थी। मैंने फिर से उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इस बारे में प्रोफेसर साहब से बात करूंगा और यदि वे नहीं माने तो तुम लोग कोर्ट मैरिज कर लेना मैं तुम्हारे साथ हूं। वह लड़की बेहद सभ्य और मिलनसार लगी। औपचारिक बात-चीत के दौरान ही हमने अंदाज लगा लिया कि वह दलित आंदोलनों की बुनियादी समझ रखती है। वह लड़की हमारे शहर की थी और सके पिता से मेरी जान पहचान भी थी। मैंने उन्हें चेताया था कि अभी अपने संबंधों के बारे में ज्यादह बातें न की जाये इस पर उसने कहा था कि मैंने अपने ताऊ के हम उम्र लड़के को बता रखा है। वह मेरा रिश्तेदार कम, दोस्त ज़्यादह है।एक दिन अचानक प्रोफेसर साहब के घर पर उनके बहुत से रिश्तेदार नज़र आये। सबके चेहरों पर मातम पसरा हुआ था। कुछ महिलाओं के रोने की आवाजं़े आती थी। प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी दोनों ही घर पर नहीं थे। प्रोफेसर साहब के साले से साहब से मेरी मित्रता थी, वे दलित आंदोलनों से जुड़े हुए थे? उन्हें अपने घर के सामने बेचैनी से टहलते हुए पाया तो पूछ लिया। इस पर उन्होंने जो उत्तर दिया वह सुनकर मैं शाॅक्ड सा रह गया। उसने बताया कि प्रोफेसर साहब के लड़के ने दिल्ली में ही अपने हास्टल में फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली है, और दोनो पति-पत्नी यह कहते हुए कि आत्मा तो चोला बदलती ही है इसमें क्या रोना कहते हुए कुछ रिश्तेदारों के साथ दिल्ली निकल गये हैं। वे वहीं पर उसका क्रिया-कर्म करके वापस आयेंगे। यह बताते हुए उसका गला रूंध सा गया। इधर मेरी आंखों से आंसू बहने लगे थे। मुझे रह-रहकर उसकी बातें याद आ रही थी। मैं उस रात सो नहीं पाया। मेरे मन में उसकी खुदकुशी के कारणों को जानने की जिज्ञासा भी थी। अगले दिन थो सहज होने पर मैंने प्रोफेसर साहब के साले को कुरेदा इस पर वह फटपटे् और अपनी बहन और जीजाजी दोनो को कोसते हुए बताने लगे कि मेरे भानजे के ये हत्यारे हैं। फिर उन्होंने विस्तार से बताना शुरू कर दिया कि प्रोफेसर साहब के भतीजे ने परिवार में यह बात लीक कर दी कि वह एक दूसरी जाति की लड़की से शादी करना चाहता है। बस फिर क्या था इन दोनों ने अपने बेटे को फोन लगाकर खूब भला-बुरा कहा और फिर क्षणिक आवेश में आकर उसने आत्महत्या कर ली। यह सुनकर अब मैं अपनी व्यस्तता को कोसने लगा था यह इस दौरान मेरी, उनके बेटे के साथ संवादहीनता की स्थिति निर्मित हो गई थीं और मैं उसे माॅरल सपोर्ट नहीं दे पाया। खै़र अब कुछ नहीं हो सकता था। दो-तीन दिनों बाद प्रोफेसर दंपति वापस आ गये। उन्होंने किसी भी तरह की औपचारिकताओं के बगैर सभी रिश्तेदारों को रवाना कर दिया।अब तक पूरी तरह बस चुकी काॅलोनी में मेरे सहित दो-चार लोगों को ही उनके बेटे की मृत्यु के बारे में पता था। वे दोनों पति-पत्नि फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे लग गय,े मानो कुछ हुआ ही न हो। उसका वही सुबह से आश्रम जाना फिर चालू हो गया। उनके चेहरों पर किसी किस्म की मायूसी नज़र नहीं आती थी। इधर मैं यह सोचता रहा कि शायद दोनों अपने चेहरे से दु:ख जताना नहीं चाहते होंगे। वरना इतने जवान लड़के की मौत पर कोई इतना सहज कैसे रह सकता है। मुझे लगा कि वे अन्दर से बेहद दुःखी होंग,े सो पड़ोसी होने के नाते यह मेरा फर्ज है कि मैं उनसे सहानुभूति के दो शब्द बोलंू। सो एक बार मैंने प्रोफेसर साहब से कहा कि मुझे आपके बेटे की मौत का बेहद दुःख है। इस पर उन्होंने कहा अरे मरना जीना तो लगा रहता है। आत्मा तो अजर-अमर है। वह तो शरीर रूपी चोला बदलती है। और हमारी जिन्दगी अपने-आप में एक ड्रामा है, और घटने वाली घटनाएं उसका हिस्सा होती हैं। ड्रामा में जो होना है, वो होकर रहेगा। मेरा और मेरे बेटे का इतने ही दिनों का साथ था। ये तो रीपिट होने वाला ड्रामा है, इसमें हम कर भी क्या सकते हैं। उसके ऐसा कहते-कहते मुझे लगने लगा कि एक हत्यारा अपनी सफाई में कह रहा हो- जनाब मकतूल तो खुद मेरे छुरे के सामने आ गया था। खैर इस बीच उसने ड्रामा-ड्रामा इतनी बार कहा कि मेरे दिमाग में ड्रामा शब्द पूरी तरह घर कर गया वापस लौटते हुए मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया -साला ड्रामेबाज़।
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